विश्व की 2.3 प्रतिशत भूमि और उससे विश्व की 17.5 प्रतिशत जनसंख्या का पेट भरना भारत के लिए हमेशा एक चूनौती रहा है। लेकिन भारतीय किसानों के अथक प्रयासों के बाद आज भारत खाघान्नों में केवल आत्मनिर्भर ही नहीं रहा बलिक जरूरत से कहीं ज्यादा उत्पादन कर रहा है । दूसरी और ग्लोबल हंगर इंडैक्स रिर्पोट 2011 के अनुसार, दुनिया के आधे से ज्यादा भूखे लोग भारत में ही निवास करते है दुनिया के 53.7 प्रतिशत लोग भारत में भूखमरी का शिकार है। भारत के 22 प्रतिशत से भी अधिक लोग कुपोषण का शिकार हैं । दुनिया के 81 विकासशील देशों की सूची में ग्लोबल हंगर इंडैक्स रिर्पोट 2011 में भारत का स्थान 67 वां है । अनाज की भारत में जितनी माग है उससे भी ज्यादा पूर्ति है लेकिन फिर भी खाध मुद्रा स्फीति इतनी अधिक है कि लोगो की थाली से भोजन की मात्रा निरन्तर कम होती जा रही है। दूसरी विड़म्बना ये है कि किसानों को अपनी फसल का पूरा दाम नहीं मिलता। हमारे देश के बाजार अनियंत्रित है इसे हम निम्न तालिका की मदद से भी देख सकते है।
उत्पादन मूल्य व बाजार मूल्य में अन्तर 2011-12 में
किसान को मिलने वाली कीमत-प्रति किलो में उपभोक्ता को मिलने वाली कीमत-प्रति किला में
गेहुं की कीमत दाल की कीमत आटे की कीमत उपभोक्ता के लिए दाल की कीमत
12 30 30 70
ऐसा ही चावल, फलों व सबिजयों के मामले में होता है जिसमें धरती पुत्र किसान को अपनी फसल का पूरा दाम इसलिए नहीं मिलता कि कही मुद्रा स्फीति की दर ना बढ़ जाए लेकिन उपभोक्ता को इतनी अधिक कीमतें देनी पड़ती है जिसका असर सीधा उनके भोजन की मात्रा पर पड़ता है। एक ही वर्ग खुशहाल है और वह है बिचोलिया अन्यथा उत्पादक व उपभोक्ता दोनों ही त्रस्त है, एक कीमतों के कम होने से तो दूसरा कीमतों के बढने से। समस्या का मूल कारण जो नजर आता है वह है सरकार का बाजार पर अनियन्त्रण व अनाज के भण्डारण का कुप्रब्न्धन। वर्तमान 2012-13 में तो इस कुप्रब्न्धन की यहां तक हद हो गई की सरकार भण्डारण व्यवस्था तो दूर उत्पादित अनाज को भरने के लिए बोरियों की समुचित व्यवस्था तक करने में विफल रही जिससे किसानों को अपनी फसलों की बिक्री ना होने व बारिस के डर के कारण औने-पौने दामों में बिचोलियो को बेचना पड़ी।
भारतीय अर्थव्यवस्था आरम्भ से ही कृषिप्रधान रही है। भारतीय किसानों के अथक प्रयासों के बावजूद आज भारत विश्व के प्रथम पाच देशों में शामिल है जो पूरे विश्व के 80 प्रतिशत खाधान्नों का उत्पादन करते है। खाध एवं कृषि सिंगठन ;एफ ऐ ओद्ध के अनुसार भारत गेहु व चावल के उत्पादन में पूरे विश्व में दुसरे नम्बर का उत्पादक देश है। भारत के पास 159.7 मिलियन हैक्टेयर भुमि उपजाऊ है जो कि पूरे विश्व में अमरिका के बाद दुसरे स्थान पर है। इसके अतिरिक्त 82.6 मिलियन हैक्टेयर भुमि पर सिंचाई की व्यवस्था है जो कि विश्व भर में सबसे अधिक है, दुग्ध उत्पादन,पशुपालन व अनेकों तरह के फलों व सबिजयों, मसालों व चाय के उत्पादन में भारत प्रथम या दूसरे स्थान पर है। स्वतन्त्रता के बाद से अब तक कृषि क्षेत्र में बहुत ही बदलाव आये है। कृषि का राष्टृीय आय में योगदान भी काफी ज्यादा कम हुआ है व लोगो की भी कृषि पर निर्भरता पहले की अपेक्षा कम हुई है।
राष्ट्रीय आय में कृषि की योगदान
वर्ष लोगो की कृषि पर निर्भरता प्रतिशत में कृषि की राष्ट्रीय आय में योगदान प्रतिशत में
1950-51 80 52
2011-12 52 14
प्रतिशत परिवर्तन 35 73
उपरोक्त तालिका से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि पिछले 60 वर्षो में कृषि क्षेत्र में जो संरचनात्मक परिवर्तन आया है उससे यह परिलक्षित होता है कि कृषि पर लोगो की निर्भरता में केवल 35 प्रतिशत की कमी आई है जबकि राष्ट्रीय आय में कृषि किे योगदान में भारी कमी आई है जिससे दो निष्कर्ष निकलते है:-
1 आधुनिक निष्कर्ष तो यह निकलता है कि विकसीत देशों की तरह भारत में भी प्राथमिक क्षेत्र का योगदान कम हो रहा है व ़िद्वतीयक, तृतीयक क्षेत्र का योगदान बड़ा है।
2 लेकिन समावेषी विकास की भावना को देखे तो यह भी बिल्कुल स्पष्ट है कि खेती पर निर्भर 50 प्रतिशत से भी ज्यादा आबादी बहुत ही गरीब है क्योंकि 50 प्रतिशत को 14 प्रतिशत मिलते है और षेÔ के 50 प्रतिशत को 86 प्रतिशत यह तालिका हमारे देश की कृषि क्षेत्र की दुर्दशा व आय में फैली भारी विषमता को दर्शाती है।
1991 में उदारीकरण, निजीकरण, व वैष्वीकरण की नीति अपनाने के बाद भारत के सकल धरेलु उत्पाद में लगभग दो गुणा वष्द्धि हुई है लेकिन किसानों व कृषि क्षेत्र पर इसका कोई भी अच्छा प्रभाव पड़ा हो ऐसा प्रतीत नहीं होता पिछले कुछ वर्षों में तो हालात ये हुऐ है कि किसानों की जमीनों के दाम तो आसमान छू गये पर खेतो में पैदा हुऐ अनाज ने अपनी लागत भी पूरी नहीं की। जिससे किसान को अपनी जमीने भी बेचनी पड़ रही है।
भारत में जोतो का वितरण कृषि जिेतो का आकार प्रतिशत
एक हैक्टेयर से कम 62.3
एक व दो हैक्टेयर के बीच 19
दो व पांच हैक्टेयर के बीच 12
पांच से अधिक 6.7
उपरोक्त तालिका से स्पष्ट है कि भारत में जोतो का आकार बहुत ही छोटा है 80 प्रतिशत से अधिक जोते दो हैक्टेयर से भी अधिक है। जो यह दिखाती है कि भारतीय किसानों का इस छोटे से जमीन के टुकड़े पर जीवन यापन करना अत्याधिक कठिन है।
भारत में केवल 26 फसलों के ही न्यूनतम समर्थन मूल्य होते है इनमें गेहु व चावल के अतिरिक्त ज्यादातर दालें हैं। फलों व सबिजयों के एम एस पी निर्धारित नहीं होने की वजह से इनका उत्पादन थोड़ा सा अधिक होने पर इनकी कीमतों में अत्याधिक गिरावट आ जाती हैं और कभी-कभी ये गिरावट इतनी ज्यादा होती हैं कि किसानो को ये सबिजयां सड़को पर फेंकनी पड़ती है। उतर भारत में आलू, टमाटर, प्याज के साथ तो ये धटनाक्रम आमतौर पर चलता ही रहता है। इस साल 2011-12 में भी पंजाब व हरियाणा में आलु की फसलों की कीमतों में भारी गिरावट आ गई जिस कारण किसानो ने आलु को सड़को पर डालना पड़ा। हालांकि आलु की उपयोगिता व इसमें विधमान पोषक तत्वों को देखते हुऐ संयुक्त राष्ट्र संध ने वर्ष 2010 को आलु वर्ष के तौर पर मनाया था क्योंकि यह गरीबी एवं कुपोषण को मिटाने में कारगर हथियार है। भारत वर्ष में जहां विश्व की सबसे ज्यादा जनसंख्या भूखमरी का शिकार है वहां पर आलु जैसी फसल को भण्डारण की कमी के चलते सड़को पर डा़लना पड़ता है। फलों व सबिजयों की बहुत ही अधिक कीमत होने के कारण गरीब व्यकित तो दूर की बात मध्यमवर्गीय परिवार को भी अपने संतुलित आहार में कटौती करनी पड़ती है यही वजह है कि हमारे देश की प्रत्येक 10 में से 9 महिलाएं खुन की कमी से पीडि़त होती है व 46 प्रतिशत से भी ज्यादा हमारे बच्चे कुपोषण का शिकार है।
कृषि में प्रयोग होने वाले साधनों की लागत निरन्तर बड़ती ही जा रही है इनमें खाद, बीज व मजदुरी प्रमुख है। वही न्युनतम समर्थन मूल्य में बढोतरी अपेक्षाकृत कम हो रही है यह भी एक बड़ा कारण है कि खेती एक धाटे का सौदा बन गया है।
खाद व न्युनतम सर्मथन मूल्य में तुलनात्मक वृद्धि
मदें 2010 में कीमतें 2012 में कीमते प्रतिशत परिवर्तन
एम एस पी गेहुं 1100 1285 16.81
डी ऐ पी 9350 20300 117.11
एम ओ पी 4450 12040 170.56
युरिया 4830 5310 09.93
ग्हुं फसल कटाई 800 1200 50.00
पिछले दो वर्षो में गेहुं की कीमतां में केवल 16.81 प्रतिशत वृद्धि हुई है जबकि विभिन्न खादों में हईु वृद्धि क्रमश: 117 व 170 प्रतिशत रही है वही फसल कटाई की मजदुरी में भी 50 प्रतिशत से अधिक वद्वि हुई है। कृषि एिवं लागत मूल्य आयोग ने स्वयं गेहुं का समर्थन मूल्य 2012 के लिए 1350 रूपये निर्धारित किया था । लेकिन केन्द्र सरकार ने केवल 1200 रूपये प्रति किवंटल ही दिया। यह स्पष्ट है कि कृषि में प्रयोग सामग्री की कीमतों में जिस तेजी से बढोतरी हुई है उससे खेती लगातार धाटे का सौदा बनती जा रही है।
कृषि पदार्थो की उत्पादन के समय कीमतों में वृद्धि का लाभ सीधे 50 प्रतिशत से भी अधिक लोगो तक पहुंचता है और यह भी सर्वविदित सत्य है कि हमारे देश में जब तक फसल किसानों के पास होती है तभी तक उसकी कीमतें कम रहती है जब फसले उन से निकल कर व्यापारियों के पास पहुंचती तो उनकी कीमतों में एकाएक वृद्धि होने लगती हैं। जबकि एम एस पी में वृद्धि का फायदा सीधा किसानों व मजदुरों तक जाता है । क्योंकि भुमिहीन मजदुर जो खेती पर निर्भर करता है, एम एस पी में वृद्धि होने से उसकी फसल को रोपने व काटने की मजदुरी में भी वृद्धि हो जाती है। भारत की गरीब जनता का सीधा संबंध कृषि क्षेत्र से है। आज भी कृषि क्षेत्र में मजदुरी का निर्धारण काफी हद तक वस्तु विनिमय प्रणाली के आधार पर ही होता है। जैसे फसल की कटाई के लिए मजदुरी के रूप में ग्यारहवां हिस्सा लेता रहा है उदाहरणत एक एकड़ में यदि 20 किवंटल अनाज पैदा होता है तो उसका दो किवंटल मजदुर को मजदुरी के रूप में मिलता है यदि सरकार एम एस पी बढाती है तो उसका फायदा किसान व मजदुर जो हमारे देश का गरीबतम वर्ग है उस तक पहुंचता है। जिससे गरीबी पर काबु पाया जा सकता है।
दुष्मनों से बचने के लिए जैसे बंकरो की आवष्यकता होती है ठीक वैसे ही जीवन रक्षक अनाज को बचाने के लिए गोदामों की आवष्यकता होती है। किसानो की दरिद्रता, बच्चा में कुपोषण व महिलाओं में अल्परक्तता के मूल में जो कारण है वो अनाज रक्षण के लिए गोदाम की कमी हैं। हमारे देश के कोने कोने तक जब शराब की उपलब्धता हो सकती है, छोटे-छोटे कस्बों तक वातानुकूलित माँल है और हमारे जुते तक वहा बिक सकते है लेकिन अनाज के लिए हमारे पास भण्डारण का अभाव हमारे निति निर्माताओं के लिए जवाबदेही तय करता है। और इसके कारण जब अनेको लोग भुखे रहते है और हजारों किसान आत्महत्या तक कर लेते हे तो ये एक अपराधिक मामला बनता है। ऐसे अपराध के लिए सजा का प्रावधन होना चाहिए। देश के सर्वोच्च न्यायालय ने भी अनाज सड़ने के मामले में कई बार गंभीर टिप्पणीयां की है। जैसे 30 अक्तुबर 2010, 14 मई 2011, 2 मई 2012 में बार-बार कहा है कि भण्डारण की कमी के चलते खाधन्नों की जितनी मात्रा को नहीं रखा जा सकता कम से कम उस अनाज को ही गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने वाली जनसंख्या में तत्काल पहुंचाया जाऐं। लेकिन सूचना के अधिकार के अन्तर्गत दी गई सूचना में सरकार ने स्वयं माना कि पिछले एक दशक में 13 लाख टन से भी ज्यादा खाधान्न, जिसमें 1,83,000 टन गेह, 3,95,000 टन चावल शामिल है यह 1997 से 2007 तक नष्ट हो चुका है। और इससे से भी खराब सिथति यह रही की इस खराब अनाज को संरक्षित रखने के लिए 243 करोड़ रूपये खर्च किये गऐ इससे भी आगे इस खराब अनाज को फिर से नष्ट करने के लिए 2 करोड़ रूपये और खर्च किऐ गये। सुप्रीम कोर्ट के लगातार साल दर साल निर्देष दिये जाने के बाद भी खराब अनाज की मात्रा में भी लगातार वृद्धि होती गई।
गोदामों में रखी खराब अनाज की मात्रा
साल मात्रा टन में
2007-08 924
2008-09 947
2009-10 2010
2010-11 2100
2012 में खाध मंत्रालय ने 3.18 करोड़ टन गेहुं की खरीद की है जबकि मात्र इसके 20 प्रतिशत तक ही अनाज भण्डारण की व्यवस्था है बाकी 80 प्रतिशत अनाज का संग्रहण खुले में ही किया है। अब फिर ये अनाज खुले में बारिष के भीगने, चुहे के खाने के लिए तैयार है। वही दूसरी और करोड़ो लोग भूखे पेट सोते हैं। हरियाणा व पंजाब जैसे समष्द राज्य भी भण्डारण की कमी से त्रस्त है। यहां अब तक गोदामो में 2009,2010 व 2011 तक का अनाज गोदामों में भरा पड़ा है। और यहां भी 80 प्रतिशत से ज्यादा अनाज का भण्डारण असुरक्षित है।
भारतीय कृषि की दुर्दशा के पीछे अनेकों कारण है लेकिन भण्डारण व्यवस्था का अभाव कई समस्याओं की जड़ है। यदि सरकार गोदामो की अच्छी व्यवस्था कर देती है तो करोडो टन अनाज को खराब होने से बचाया जा सकता है और गरीबो में उसका उचित वितरण किया जा सकता है। भण्डारण की व्यवस्था उचित होने के बाद ही इस बात का अनुमान सही लगाया सकता हे कि अगले वर्ष किस फसल की कितनी पैदावर करने की आवष्यकता है।
सरकार को अनाज व दालों के साथ साथ फलों व सबिजयों का एम एस पी भी निर्धारित करना चाहिए ताकि किसान कर्जमंद ना हो और उपभोक्ता को पौषिटक भोजन मिले।
यह बात तो स्पष्ट है कि एम एस पी में वृद्धि से खाध मुद्रा स्फीति नहीं बढ़ती इसके बढने का तो मुख्य कारण बिचोलियों द्वारा अधिक लाभ प्रापित के लिए कीमतो का कही अधिक वसूल करना होता है। अत: सरकार को बाजार पर भी पूर्ण नियन्त्रण रखना होगा और वितरण व्यवस्था को भी ठीक करना होगा, तभी किसानो द्वारा उत्पन्न अनाज का सही फायदा उठा कर हम भूखमरी जैसे कलंक से बच पाऐगे।