सियासती मयख़ाने में
कुछ रिंद नहीं पी रहे
अबके उनके पैमाने से
ठुकरा कर मुदब्बिर का
हर जाम ए नज़राना
उड़ जाना चाहे बंदी
सियासी कैदखाने से
गर दस्तूर पुराने टूट गये
जाल से परिंदे छूट गये
जीने में क़नाअत कर बैठे
लालच से बग़ावत कर बैठे
कैसे भी ये आग बुझा डालो
इरादे पर इनके पानी डालो
होश में आये हैं जो अभी
हर सूरत फिर बहका डालो
मुदब्बिर= राजनीतिज्ञ ,
क़नाअत =सन्तोष