सभी धर्मों में एक ही बात नहीं / शंकर शरण

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शंकर शरण

एक प्रवासी हिन्दू भारतीय की बिटिया ने किसी मुस्लिम से विवाह का निश्चय किया तो वह बड़े दुःखी हुए। उन्होंने समझाने का प्रयास किया कि यह उस के लिए, परिवार के लिए और अपने समाज के लिए भी अच्छा न होगा। तब बिटिया ने कहा, ‘मगर पापा, आप ही ने तो सिखाया था कि सभी धर्म समान हैं और एक ही ईश्वर की ओर पहुँचने के अलग-अलग मार्ग हैं। तब यह आपत्ति क्यों?’ कहने की आवश्यकता नहीं कि पिता को कोई उत्तर न सूझ पड़ा।

वस्तुतः असंख्य हिन्दू, विशेषकर उनका सुशिक्षित वर्ग, अपनी सदभावना को अनुचित रूप से बहुत दूर खींच ले जाते हैं। सभी मनुष्य ईश्वर की संतान हैं, यह ठीक है। सभी मनुष्यों को समान समझना और सद्बाव रखना चाहिए यह भी उचित है। किंतु इस का अर्थ यह नहीं कि विचारधाराओं, विश्वास, रीति-नीति, राजनीतिक-सामाजिक-कानूनी प्रणालियों आदि के भेद भी नगण्य हैं। धर्म और मजहब का भेद तो और भी बुनियादी है। भारत के ‘धर्म’ का पश्चिम के ‘रिलीजन’ का पर्याय समझना सब से घातक भूल है। इसी से दूसरी भूलों का स्त्रोत जुड़ता है।

धर्म आचरण से जुड़ा है, जबकि रिलीजन विश्वास से। धर्म कहता है आपका विश्वास कुछ भी क्यों न हो, आपका आचरण नीति, मर्यादा, विवेक के अनुरूप होना चाहिए। यही धर्म है। इसी लिए भारतीय समाज में ऐसी अवधारणाएं और शब्द हैं जिनके लिए पश्चिमी भाषाओं में कोई शब्द नहीं है। जैसे, राज-धर्म, पुत्र-धर्म, क्षात्र-धर्म, आदि। दूसरी ओर, आप का आचरण कुछ भी क्यों न हो, यदि आप कुछ निश्चित बातों पर विश्वास करते हैं तो आप ईसाई या मुस्लिम रिलीजन को मानने वाले हुए। इसीलिए उन के बीच रिलीजन को ‘फेथ’ भी कहा जता है। बल्कि फेथ ही रिलीजन है।

निजामुद्दीन औलिया का एक प्रसंग है जिस में वह कहते हैं कि उलेमा का हुक्म बिना ना-नुच के मानना चाहिए। इस से उसे लाभ यह होगा कि “उस के पाप उस के कर्मों की किताब में नहीं लिखे जाएंगे”। जबकि हिंदू परंपरा में किसी के द्वारा कोई पाप करना या अनुचित कर्म करना ही अधर्म है। प्रत्येक हिन्दू यह जानता है। मिथिलांचल के गंगातटीय क्षेत्र में लोकोक्ति है, “बाभन बढ़े नेम से, मुसलमान बढ़े कुनेम से”। इसे जिस अर्थ में भी समझें, पर अंततः यह धर्म और मजहब (रिलीजन) की पूरी विचार-दृष्टि के विपरीत होने का संकेत है। इस में कोई दुराग्रह नहीं है, वरन सामान्य हिन्दू का सदियों का अवलोकन है। ध्यान से देखें तो औलिया की बात और यह लोकोक्ति एक दूसरे की पुष्टि ही करती हैं। विडंबना यह है कि शिक्षित हिन्दू इस तथ्य से उतने अवगत नहीं हैं। वह नहीं जानते कि रिलीजन और धर्म का बुनियादी भेद मात्र आध्यात्मिक ही नहीं – अपनी सामाजिक, वैचारिक, नैतिक, राजनीतिक निष्पत्तियों में भी बहुत दूर तक जाता है।

यद्यपि धुँधले रूप में अपने अंतःकरण में कई हिन्दू इस तत्व को न्यूनाधिक महसूस करते हैं। अपने को सेक्यूलर, आधुनिक, वामपंथी कहने वाले हिन्दू भी। किंतु इस सच्चाई को खुलकर कहने, विचार-विमर्श में लाने में संकोच करते हैं। मुख्यतः राजनीतिक-विचारधारात्मक कारणों से। इसीलिए वह प्रायः ऐसी स्थिति में फँस जाते हैं जिस से साम्राज्यवादी विचारधाराएं उन्हें अपने ही शब्दों से बाँध कर शिकार बना लेती हैं। तब उदारवादी हिन्दू छटपटाता है, किंतु देर हो चुकी होती है।

यह मात्र निजी स्थितियों में ही नहीं, सामाजिक राजनीतिक मामलों में भी होता है। हिन्दू उदारता का प्रयोग उसी के विरुद्ध किया जाता है। उस की दुर्गति इसलिए होती है कि हिन्दू शिक्षित वर्ग, विशेषकर इस का उच्चवर्ग अपनी परिकल्पनाओं को दूसरों पर भी लागू मान लेता है। वह रटता है कि सभी धर्म एक समान हैं; किंतु कभी जाँचने-परखने का यत्न नहीं करता कि क्या दूसरे धर्मावलंबी, उन की मजहबी किताबें, उन के मजहबी नेता, निर्णयकर्ता भी यह मानते हैं? यदि नहीं, तो ऐसा कहकर वह अपने आपको निहत्था क्यों कर रहा है?

ऐसे प्रश्नों पर समुचित विचार करने में एक बहुत बड़ी बाधा सेक्यूलरवाद है। इस का प्रभाव इतना है कि इस झूठे देवता को पूजने में कई हिंदूवादी भी लगे हुए हैं। यह किसी विषय को यथातथ्य देखने नहीं देता, चाहे वह इतिहास, दर्शन, राजनीति हो या अन्य समस्याएं। सेक्यूलर समझी जाने वाली अनेक धारणाएं वास्तव में पूर्णतः निराधार हैं। जैसे, यही कि ‘सभी धर्मों में एक जैसी बातें हैं’ या ‘कोई धर्म हिंसा की सीख नहीं देता’। इसे बड़ी सुंदर प्रस्थापना मानकर अंधविश्वास की तरह दशकों से प्रचारित किया गया। मगर क्या किसी ने कभी आकलन किया कि इस से लाभ हुआ है या हानि? सच्चाई से विचार करें तो विश्वविजय की नीति रखने वाले, संगठित धर्मांतरणकारी सामी (Semitic) मजहबों को सनातन हिंदू धर्म के बराबर कह कर भारत को पिछले सौ साल से निरंतर विखंडन के लिए खुला छोड़ दिया गया है।

कानून के समक्ष और सामाजिक व्यवहार में विभिन्न धर्मावलंबियों की समानता एक बात है। किंतु विचार-दर्शन के क्षेत्र में ईसाइयत, इस्लाम, हिंदुत्व आदि को समान बताना खतरे से खाली नहीं। इस से अनजाने ही भारतीय ईसाइयों को अपने देश की संस्कृति, नियम, कानून आदि की उपेक्षा कर, यहाँ तक कि घात करके भी, दूर देश के पोप के आदेशों पर चलने के लिए छोड़ दिया जाता है। इसी तरह, भारतीय मुसलमानों को भी दुनिया पर इस्लामी राज का सपना देखने वाले इस्लामियों के हवाले कर दिया जाता है। केवल समय और परिस्थिति की बात रहती है कि कब कोई प्रभावशाली मौलाना दुनिया के मुसलमानों का आह्वान करता है, जिस में भारतीय मुस्लिम भी स्वतः संबोधित होंगे।

यदि सभी धर्मों में एक ही बातें हैं, तो जब कोई आलिम (अयातुल्ला, इमाम, मुफ्ती आदि) ऐसी अपील करे, जो मुसलमानों को हिंसक या देश-द्रोही काम के लिए प्रेरित करता हो – तब आप क्या कहकर अपने दीनी मुसलमान को उस का आदेश मानने से रोकेंगे? क्या यह कहकर कि अलाँ मौलाना या फलाँ अयातुल्ला सच्चा मुसलमान नहीं है? यह कौन मानेगा, और क्यों मानेगा? जब इस मौलाना या उस अयातुल्ला को इस्लाम का अधिकारी टीकाकार, निर्देशक, प्रवक्ता माना जाता रहा तो उसी के किसी आह्वान विशेष को यकायक गैर-इस्लामी कहना कितना प्रभावी होगा, इस पर ठंढे दिमाग से सोचना चाहिए।

अतः सच यह है कि सभी धर्मों में ‘समान’ नीति-दर्शन बिलकुल नहीं है। इस पर बल देना जरूरी है। पूरी मानवता को आदर का अधिकारी कहते हुए यथोचित उल्लेख करना ही होगा कि कौन मजहब किस विंदु पर, विवेक और मानवीयता की कसौटी पर खरा नहीं उतरता। तभी संभव होगा कि किसी कार्डिनल, मौलाना या रब्बी को (ईसाइयत, इस्लाम, यहूदी आदि) विशेष धर्म-दर्शन का विद्वान मान कर भी उस के अनुयायी उस के सभी आह्वान मानना आवश्यक न समझें। बल्कि अनुचित बातों का खुला विरोध करें। तभी विवेकशील मुसलमान विश्व-इस्लाम के नाम पर देशद्रोह, काफिरों की हत्या, उन्हें धर्मांतरित करने, जैसे आदेशों को खारिज करेंगे। किंतु यह तब होगा जब वे इस भ्रम से मुक्त हों कि इस्लाम ही एक मात्र सच्चा मजहब है। उन्हें यह समझाना ही होगा कि चाहे वह मुसलमान हैं, किंतु पूरी दुनिया को इस्लामी बनाने की बात में अन्य धर्मावलंबियों के प्रति हिकारत व हिंसा है, जो विवेक-विरुद्ध और मानवता की दृष्टि से अनुचित है। यदि यह कहने से हिंदू भाई कतराते हैं, तो निश्चय ही वह अपने और अपनी संततियों को भी मुसीबत में फँसा रहे हैं।

जब इस्लाम के आदेशों में मानवीय विवेक की दृष्टि से – किसी जड़सूत्र से नहीं – उचित और अनुचित तत्वों के प्रति मुसलमानों को चेतनशील बनाया जाएगा, तभी वे किसी मौलाना की बात को अपनी विवेक-बुद्धि पर कसकर मानने या छोड़ने की सार्वजनिक नीति बनाएंगे। इस आवश्यक वैचारिक संघर्ष से कतराने से केवल यह होगा कि मुस्लिम आबादी स्थाई रूप से देशी-विदेशी उलेमा की बंधक रहेगी। जब चाहे कोई कट्टरपंथी मौलाना मुसलमानों को यहाँ-वहाँ हिंसक कार्रवाई के लिए भड़काएगा। तब मुसलमानों के पास उस की बात को सक्रिय/निष्क्रिय रूप से मानने, अन्यथा खुद को दोषी समझने के बीच कोई विकल्प नहीं रहता। इस से अंतर नहीं पड़ता कि कितने मुसलमान वैसा आह्वान मानते हैं। किसी समाज, यहाँ तक कि पूरी दुनिया पर कहर बरपाने के लिए मुट्ठी भर अंधविश्वासी काफी हैं। न्यूयॉर्क या गोधरा का उदाहरण सामने है। वैसे आह्वान में भाग न लेने वाले मुसलमान भी दुविधा में रहेंगे। अंततः परिणाम वही होगा, जो 1947 में हुआ था। मुट्ठी भर इस्लामपंथी पूरे समुदाय को जैसे न तैसे अपने पीछे खींच ले जाएंगे। यह दुनिया भर का अनुभव है। सदाशयी मुसलमान कट्टर इस्लामी नेताओं की काट करने में सदैव अक्षम रहते हैं।

इसलिए भी जब तक ‘सभी धर्मों में एक ही चीज है’ का झूठा प्रचार रहेगा और मुस्लिम आबादी उलेमा के खाते में मानी जाएगी, सभी मुसलमान नैतिक रूप से उलेमा की बात मानना ठीक समझेंगे। न मानने पर धर्मसंकट महसूस करेंगे। उन के लिए यह संकट सुसुप्त अवस्था में सदैव रहेगा। केवल समय की बात होगी कि कब वह इसमें फंसते हैं।

यदि आप किसी मौलाना को नीति-विचार-दर्शन का उतना ही अधिकारी प्रवक्ता मानते हों, जितना हिंदू शास्त्रों का कोई पंडित, तब उस मौलाना के आह्वानों से अपने मुस्लिमों को आप जब चाहे नहीं बचा सकते। इस के लिए निरंतर, अनम्य वैचारिक संघर्ष जरूरी है, जिस में इस्लाम की कमियाँ दिखाने में संकोच नहीं करना होगा। इस पर बल देना होगा कि मुसलमान जनता और इस्लाम एक चीज नहीं। कहना होगा कि विचार-विमर्श में इस्लाम समेत किसी भी विचारधारा या सिद्धांत की समुचित आलोचना करने का अधिकार प्रत्येक मनुष्य को है। इस पर नहीं डटने के कारण ही (सेक्यूलरिज्म के नाम पर) भारत को इस्लामी और चर्च-मिशनरी आक्रामकों के लिए खुला छोड़ दिया गया है।

इसीलिए विदेशी इस्लामी उलेमा/ आक्रांता भी भारतीय मुसलमानों को अपनी थाती समझते हैं। जब भी ऐसे लोग कोई हिंसक आह्वान करते हैं, जो वे करते ही रहते हैं, हम अपने ही फूहड़ सेक्यूलर तर्क के अधीन बेबस होकर रह जाते हैं। क्योंकि हमने सेक्यूलरिज्म के प्रभाव में इस्लामी विचारधारा की कुछ भी आलोचना को गलत मान लिया है। मानो इस्लामी विचार और राजनीति के बारे में विचारने या भूल दिखाने का दूसरे को अधिकार नहीं। यह अनुचित और आत्मघाती दृष्टि है।

एक ओर उलेमा पूरी दुनिया की एक-एक चीज का ‘इस्लामी’ मूल्यांकन ही नहीं रखते, उसे उसी तरह चलाने के लिए दबाव डालते रहते हैं। यूरोपीय देशों में भी जहाँ मुट्ठी भर मुसलमान हैं, वह भी अरब, अफ्रीका, एसिया से गए प्रवासी – वहाँ भी इस्लाम के मुताबिक यह करने, वह न करने की माँग अधिकारपूर्वक की जाती है। जबकि इस्लामी देशों में अन्य धर्मावलंबी की कौन कहे, उलेमा के सिवा आम मुसलमान को भी रीति-नीति में किसी परिवर्तन की बात करने का अधिकार नहीं। क्या यह साम्राज्यवादी, तानाशाही नजरिया सभी धर्मों में है?

(लेखक की पुस्तक ‘धर्म बनाम मजहब’ से एक अंश)

32 COMMENTS

  1. इस लेख के आने के बाद मैं बहुत से धर्माचार्यों से मिला था व मिलता रहता हूँ और खास बात ये है की सबने एक स्वर में कहा सब रिलीजन समान नहीं कहते है |ये बात वो संत गण अपने प्रवचनों में भी बोलते है कोई एरे गैरे नहीं है परंपरा वित आचार्य है प्रस्थान त्रय मतलब उपनिषद गीता ब्रहमसूत्र के \

  2. ऐसा लग रहा हे की शंकर शरण जी की लेखनी जब चलती हे तो सिर्फ इस्लाफ़ के खिलाफ ही चलती हे कुछ मुल्ला और पंडितो के आधार पर किसी धर्म के बारे में कुछ बोलना ऐसी ही मुरखता हे जैसी इस लेख में हे .पहले इस्लाम का गहन अध्द्य्याँ कीजिये शंकर जी तब लिखना शुरू करे आप को पढ़ कर तो इतनी भी गुंजाईश नहीं की कुछ समझाया जा सके उसकी भी तो कुछ सीमा होगी. इश्ह्वर
    आप को थोड़ी तो बुद्धहि दे.

  3. R.Singh == आर सिंह जी –
    कृपया आप मेरे द्वारा लिखा गया, लेख, “बन्धन मुक्त विवाह” पढें, और आपकी बिना हिचकाहट, स्वतन्त्र टिप्पणी दें।

  4. डाक्टर मधुसुदन जी,मेरी ३० दिसंबर वाली टिप्पणी में मेरी विचार धारा के साथ ही उस विचार धारा की पृष्ठ भूमि का भी उल्लेख है.ऐसे भी आप अमेरिका में हैं और संयोग बस अभी मैं यहीं हूँ,अतः इस विषय पर वार्तालाप भी हो सकती है.

    • मैंने आपका नंबर कहीं रख छोड़ा है|
      यदि आप मुझे एक बार फोन पर नंबर दे दें, तो फिर बात बन जाएगी|
      ५०८ -९४७ -५३४३
      नमस्कार

  5. अभिषेक पुरोहित जी नव वर्ष की शुभ कामनाये.विजय जी के आधे श्लोक के मेरे उत्तर पर जो टिप्पणी आपने की है,उस पर मेरा केवल यह कहना है कि मैं इस समय जहाँ हूँ,वहाँ मेरे पास भगवद गीता पर केवल तीन पुस्तकें उपलब्ध है पहली पुस्तक तो गीता रहस्य है जिसको मैं पहले हीं ऊद्ध्रित कर चुका हूँ और आपको यह भी बता दूं कि गीता रहस्य को भगवद गीता पर जो भाष्य हैं उनमे से सबसे प्रमाणिक ग्रंथों में गिना जाता है.दूसरी दो पुस्तकें भी भारतीयों द्वारा लिखी हुई हैं,पर अंग्रेजी में हैं.वहां भी यही अर्थ दिया गया है.गीता रहस्य की विशेषता यह है कि लोकमान्य तिलक ने यह भाष्य लिखते समय गीता रहस्य में उन सभी भाष्यों का जिक्र किया है,जो उस समय उपलब्ध थी.दूसरी बात यह है कि भगवद गीता पर यह भाष्य लिखते समय वे किसी दुराग्रह से प्रभावित नहीं दीखते.इस श्लोक के संवंध में उन्होंने उसी ग्रन्थ में अन्यत्र विस्तृत चर्चा भी की हैऔर तर्क द्वारा सिद्ध किया है कि इसका यही अर्थ क्यों सही है.(गीता रहस्य,हिंदी रूपांतर,सताईसवां संस्करण पृष्ठ संख्या ६५ से ७४.)

  6. डाक्टर मधुसुदन जी,नव वर्ष के लिए बहुत बहुत शुभकामनाएं. डाक्टर साहब, ऐसे तो मैंने अपने ढंग से आपके प्रश्नों की उत्तर देने की चेष्टा की पहले भी की थी,पर आपके आदेशानुसार मैं बिंदु वार उत्तर देने का का प्रयत्न करता हूँ.बिंदु संख्या १ से ५– -मेरे विचार से यदि कोई व्यक्तिगत विचार या संवंध समाज या राज्य में किसी तरह का दुराचार नहीं फैलाता या किसी प्राकृतिक न्याय या सामाजिक या राष्ट्रीय हित के विरुद्ध नहीं जाता,उसपर अपना विचार व्यक्त करना वह भी जब उस विचार करने लिए ,उस फैसले से सेप्रभावित किसी व्यक्ति विशेष ने न उसके लिए अनुरोध किया हो और न उसकी अपेक्षा की हो टांग अडाना ही कहा जा सकता है.बिंदु संख्या ६ और ७ का उत्तर मैं पहले ही दे चुका हूँ.
    मैं समझता हूँ की बिंदु संख्या ८ पर मुझे कुछ कहने की आवश्यकता नहीं है.

  7. कुछ टिप्पणियों को पढ़कर माओ की उक्ति ध्यान में आती है, “ऊँगली से चाँद की ओर संकेत कर देखने कहो, तो मूर्ख ऊँगली देखता रहेगा। चाँद को नहीं।”

  8. अगर शंकर शरण जी के ब्लॉग का लिंक मिल जाता तो बहुत कृपा होती |

  9. ज्यादा जानकारी के लिए इस लिंक पर क्लिक कर देखें
    https://www.quranhindi.com/

    इसे बहुत ही ध्यान व लगन से पढे ये खुद बता देगा की गीता व कुरान एक जैसे न है हा दोनों मे कुछ बाते समान जरूर है पर अधिकांश अलग अलग है खास कर जेहाद काफिर व दारुल-ए-इस्लाम के विचार |रही बात सिंह साहब के श्लोक के अर्थ की तो वो भी ठीक है क्योकि तिलक ने गीता को कर्म आधारित रूप से व्यखित किया था लेकिन प्रामाणिक गीता तो गुरु के संधीय मे ही सीखिए जा सकती है अपनी मन मर्जी से नहीं फिर भी सिह साहब चाहे तो शंकर भाषी पढ़ सकते है जिसमे स्पष्ट लिखा है की स्वधर्म का अर्थ अपना धर्म ही होता है

  10. भारत मे क्या है की एक खराब आदत है लोग जानते कुछ नहीं है वो बकवास करना शुरू हो जाते है खास कर सेक्युलर नाम के जन्तु |जो ये सोचता है की सब धर्म एक जैसे है उन्हे जरा नेट पर कुरान के बारे मे सर्च जरूर मारना चहाइए हिन्दी मे भी मिल जाएगा किसी का नहीं सीधा कुरान ही पढ़िये अल बकरा मे ही जवाब मिल जाएगा मैं ये नहीं कहता की कुरान के पाठ पर चल कर ईश्वर नहीं मिलता है मिलता है जरूर मिलता है पर केवल इस नाते से ही सारे धर्म एक न हो जाते है एक मुसलमान को तीन बाते मानना बहुत जरूरी है 1।एक मात्र अल्लाह है
    2।केवल पैगंबर मोहम्मद साहब ही आखिरी पैगंबर है
    3 केवल इस्लाम ही सही मार्ग है
    कोई भी सोच सकता है की पहली बात को छोड़ कर दूसरी दोनों बाते सनातन सत्य को चोट पाहुचती है ईश्वर के नाम पर भी केवल ये जिद करना की केवल केवल अल्लाह नाम है ओर उसका कोई रूप नहीं भी सत्या नहीं है उस परमेशवर को किसी भी रूप मे जाना जा सकता है उसके सभी रूप सत्या है जबकि कुरान कहती है की जो कुरान को नहीं मनाने वाले है उन्हे नष्ट कर दो वो अपनी भाषा मे इसे काफिर कहते है ओर इस युद्ध को जेहाद कहते है और मारने वाले गाजी कहलाते है अल्लाह के लिए इस जंग मे मरने वाले शहीद कहलाते है उनको जन्नत मे 72 कुवांरी हुरे मिलती है जहा शराब के चश्मे बहते ही रहते है ………………………ये लालच कोई ओर मजहब नहीं देता है हिन्दुओ की समस्या ये है की वो गीता को भी नहीं पढ़ते वरना एसी मूर्खता पूर्ण टिप्पणिया नहीं करते |शंकर शरण जी ने ये नहीं कहा की इस्लाम या इसायत ईश्वर को प्राप्त करने के मार्ग नहीं है उनहों केवल ये कहा है की सब धर्म एक समान नहीं है ओर ये बात सत्या है गीता भी पढ़ी है व कुरान भी पढ़ता हूँ व कह सकता हूँ की दोनों मे समानता भी है तो असमानता भी है लेकिन गीता केवल कृष्ण को भगवान गीता को किताब व हिन्दू को ही धर्म मनाने को न कहती है जबकि कुरान कहती है ये ही अंतर है जिसे सबको सम्झना पड़ेगा जब तक न समझेंगे भुगतेंगे ……………

  11. सिंह साहब-
    आप बिन्दुवार चर्चा करें, तो कम समय में कुछ निष्कर्ष निकल सकता है।
    मेरी दोनो टिप्पणियां पढने से बहुत कुछ स्पष्ट हो जाएगा।
    आप द्वारा जो अर्थ लगाया जा रहा है, वह अर्थ
    अभिप्रेत नहीं है।

  12. डाक्टर मधुसुदन जी ऐसे मैं आपके विचारों का आदर करता हूँ.,पर क्षमा कीजिएगा, मुझे लगता है इतर धर्मों के शादी को भ्रूण ह्त्या से तुलना करके आप कुतर्क पर उतर आयें हैं.मुझे एक बाकया याद आ रहा है.१९५९ में मैं इंटरमेदिएत का छात्र था.उस समय हमारे बिहार विश्वविद्यालय के कुलपति प्रसिद्ध नेत्र विशेषज्ञ डाक्टर दुखन राम थे.छात्रों के समक्ष भाषण के दौरान उन्होंने कहाथा की लोग अंतरजातिय विवाह करते हैं,उसको तो वही कहा जाता है,पर दो धर्मो के विवाह को क्रास वेडिंग कहा जाता है.सुनने में ऐसा लगता है ,जैसे किसी मनुष्य ने किसी जानवर से विवाह कर लिया.मनुष्य जब मनुष्य से विवाह करता है तो यह क्रास वेडिंग कैसे हुआ?
    उसी वक्तव्य को आगे बढाते हुए मैं कहना चाहता हूँ की कोई भी ऐसी बात जो प्राकृतिक न्याय के विरुद्ध नहीं जाता,उसकोमें गलत नहीं मानता.सामाजिक मान्यताएं हमारी बनाई हुई हैं,जो परिस्थितिओं के अनुसार परिवर्तन शील हैं.हमारे धर्म ग्रंथों का जब निर्माण हुआ था,तब न ईसाई थे और न मुस्लिम,पर उस समय की परिस्थितिओं में विभिन्न जातियोंके बीच विवाह सम्बन्ध में कोई रूकावट नहीं थी.भ्रूण ह्त्या को भी मान्यता है,अगर वैसा न करने से माँ या होने वाले बच्चे के लिए खतरा हो,पर लिंग के आधार पर भ्रूण हत्या न केवल प्राकृतिक बल्कि सामाजिक न्याय के भी विरुद्ध है.
    जहां तक खान पान रहन सहन इत्यादि का प्रश्न है,इन सबका प्रभाव सामाजिक संबंधों पर पड़ता है,पर अंतरजातीय या दो धर्मावलाम्वियों के बीच वैवाहिक सम्बन्ध तभी बनते हैं जब या तो परिवार में यह अंतर मिट जाता है या जब युवक और युवती वहाँ पहुँच जाते हैं ,जहां ये बाधा नहीं रहती और एक तीसरे वातावरण में रहने लगते हैं.विदेशों में शिक्षा ग्रहण के लिए आये हुए विभिन्न धर्म या राष्ट्र के युवक युवतियों काविवाह सम्बन्ध इसी श्रेणी में आता है.

  13. श्री शंकर रमण जी का आलेख ‘‘सभी धर्मों में एक ही बात नहीं’’ पढा और आलेख पर विद्वान पाठकों की टिप्पणियॉं भी पढी! सदैव की भॉंति श्री आर. सिंह जी यहॉं पर भी तर्क पर आधारित और वैज्ञानिक नजरिये से अपनी बात कहते प्रतीत होते हैं| यह अलग बात है कि कुछ बन्धु उनसे असहमत हैं, उन्हें असहमत होने का हक है, लेकिन असहमति प्रकट करने का तरीका अपना-अपना होता है| खैर…..संस्कार अपने-अपने!
    मेरा विनम्र मत है कि जैसे ही कोई व्यक्ति अपनी नस्ल, जाति, धर्म, संस्कृति या अपने क्षेत्र या अन्य किसी बात को श्रेृष्ठ सिद्ध करने का प्रयास करता है, वैसे ही वह चाहे कुछ कहे या नहीं कहे दूसरों की नस्ल, जाति, धर्म, संस्कृति या क्षेत्र को कमतर या घटिया सिद्ध कर रहा होता है| जो लोग ऐसे विचारों का समर्थन करते हैं, वे भी रुग्ण मानसिकता और कट्टरपन को बढावा देते हैं| जिससे समाज में अशान्ति पैदा होती है| लोगों में एक दूसरे के प्रति प्रेम के स्थान पर नफरत पनपती है|
    ऐसे में कौन धर्म अच्छा या श्रेष्ठ है, कितना अच्छा हो कि हम दूसरों के धर्मों के बारे में कुछ भी कहने के बजाय अपने परिवेश और अपने धर्म को ही समझें| इससे प्रेम उत्पन्न हो या न हो लेकिन नफरत फैलाने का षड़यन्त्र जरूर असफल होगा|
    लेखक का यह कहना कि सभी धर्मों में एक समानता नहीं है| इसे तकनीकी रूप में किसी को भी स्वीकार करने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिये, लेकिन लेखक का यह सब लिखने का मकसद पवित्र नहीं है| यदि आलेख सकारात्मक लक्ष्य से भी लिखा जा सकता था! ऐसे में इस प्रकार के आलेख समाज में क्या सन्देश देते हैं, इस बात पर भी गम्भीरता से विचार करना चाहिये?
    मेरा व्यक्तिगत मत है कि-कुछ बातें किसी भी व्यक्ति के वश में नहीं होती हैं! जैसे-
    व्यक्ति का जन्म किस धर्म, जाति परिवार, नस्ल, क्षेत्र या माता-पिता के यहॉं हो? व्यक्ति का रंग कैसा हो? और भी अनेक बातें हैं…!
    लेकिन यदि परिस्थितियॉं अनुकूल हों और कट्टरपथी बीच में अड़ंगा नहीं डालें तो कुछ बातें ऐसी हैं, जो हर व्यक्ति के वश में होती हैं! जैसे-
    व्यक्ति क्या खाये, क्या पीये, किससे विवाह करें या नहीं करे, किस प्रकार के दोस्तों में रहे, क्या पढे या क्या नहीं पढें, किस धर्म या मजहब को अपनाये या नहीं अपनाये….आदि आदि!
    ऐसे में मेरा विनम्र मत है कि जब तक अन्य लोगों के जीवन या स्वतन्त्रता में सीधे तौर पर बाधक नहीं हो हर व्यक्ति को अपने जीवन को अपने तरह से जीने का हक होना चाहिये|
    यहॉं पर यह लिखना भी जरूरी है कि सिद्धान्त और व्यवहार में भी अन्तर होता है और डॉ. मधुसूदन जी की यह बात भी केवल आदर्श नहीं है कि ‘समानता और पूरकता’ विवाह के लिये महत्वपूर्ण आधार हैं, लेकिन ये तब तक ही, जबकि इन आदर्शों या अवधारणाओं में विवाह करने वालों को आस्था हो! क्योंकि मैं हिन्दू होकर जानता हूँ कि भारत में ९० फीसदी से अधिक हिन्दू अपने विवाहित जीवन में घुट-घुट कर मर रहे हैं| दूसरे धर्मों में भी हालात बहुत अच्छे नहीं हैं! इसलिये समानता और पूरकता को भी विवाह के लिये सम्पूर्ण आधार नहीं माना जा सकता| फिर भी चूँकि हमारी मानसिकता ऐसी रही है कि अपने समाज या मजहब में ही रिश्ते नाते उचित रहते हैं| हम इन बातों को हजारों सालों से अपनाते रहे हैं और आज भी हम इन सब बातों या आदर्शों का हर कीमत पर पालन करना या कराना चाहते हैं| जिसके लिये हमारे धर्म या संस्कृति की अच्छाई को कारण या वजह मानने के बजाय हमारी मनोवृत्ति (मानसिकता) को कारण/वजह मानना अधिक उचित होगा! यदि कोई जोड़ा इस मनोवृत्ति में आस्था ही नहीं रखता हो तो उसे अपने हिसाब से निर्णय लेने का हर देश और हर मजहब में पूर्ण अधिकार होना चाहिये| जिसका समर्थन करना सेक्यूलरिज्म नहीं, बल्कि मानव अधिकारों का संरक्षण और सम्मान है| मानव अधिकार न तो धर्म या संस्कृति में बाधें जा सकते हैं और न हीं राष्ट्रों की सीमाओं में| आशा है पाठकगण मेरे विचारों को अन्यथा नहीं लेंगे| फिर भी सभी के विद्वजनों के मार्गदर्शन की अपेक्षा रहेगी|
    डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’
    सम्पादक-प्रेसपालिका (पाक्षिक), जयपुर
    ०१४१-२२२२२२५, ९८२८५-०२६६६

  14. मुकेश मिश्र जी मैं आपके कथन का बुरा नहीं मानता जन्म हिन्दू कुल में अवश्य हुआ है,पर विचारोमें नास्तिकता यदि हिन्दू धर्म के अनुकूल नहीं है तो आस्तिक हिन्दुओं की दृष्टि मैं शायद हिन्दू भी नहीं हूँ,पर हिन्दू धर्म यदि जीवन के लिए एक राह है यानि अगर यह एक वे आफ लाईफ हैं तो यह आस्तिकता और नास्तिकता से ऊपर उठ जाता है.मैंने भगवद गीता या महात्मा बुद्ध के उपदेशों से यही सीखा है की निज आचरण सर्वोपरी है.मैं तो यहाँ तक कहता हूँ की अगर हम दर्पण को सतुष्ट कर सकते हैं तो और किसी को संतुष्ट करने की आवश्यकता नहीं.आप जैसे हिन्दुओं से मेरा अनुरोध है की आपलोग भगवद गीता को पढ़िए और समझिये. सर्व धर्म को सम्मान देने की शिक्षा मुझे भगवद गीता,महात्मा बुद्ध या या उन शिक्षकों से मिली है,जिनको मैं आज भी पूज्य मानता हूँ.हिन्दू धर्मावलम्बियों का यह सौभाग्य है की उनको भगवद गीता जैसा धर्म ग्रन्थ मिला है,पर अफ़सोस यही है की हिदू उसमें प्रतिपादित निष्काम कर्म योग .को एक दम भूल गए..

  15. मुकेश मिश्र जी मैं आपकी बात का बुरा नहीं मानता.आप जैसे लोगों को मैं केवल एक सलाह दूंगा की आप पहले हिंदुत्व को समझिये तब दूसरे पर कीचड़ उछालिये.हिन्दू धर्म का निचोड़ श्रीमद भगवद गीता में है.यह हिन्दुधर्माव्लाम्बियों कासौभाग्य है की उनको गीता जैसा ग्रन्थ मिला है.ऐसे मैं विचारों में एक तरह से नास्तिक हूँ ,पर भगवद गीता ने मुझे सर्व धर्मों का सम्मान करना सिखाया है.भगवद गीता को समझना मेरे जैसे अल्पज्ञों के लिए बहुत कठिन है,फिर भी मै विभिन्न विद्वानों द्वारा लिखित भाष्य केसहारे उसको समझने काप्रयत्न करता हूँ. .

  16. विजय जी, मैं सोचता हूँ कि आपकी इस आधे श्लोक द्वारा अपनी बात मनवाने के सम्बन्ध में भी यहाँ थोड़ी चर्चा हो जाए तो कोई हर्ज नहीं .हमारे धर्म ग्रंथों में सत्य को भी घुमा फिरा कर कहने को पाप कहा गया है.महाभारत में युधिष्ठिर का यह कथन आपको लोगों को अवश्य याद होगा,जहां उन्होंने कहा था,हत्तो अश्वथामा नरो व कुंजरो.इसके लिए उनके जैसे सत्यनिष्ठ को भी नर्क के दर्शन करने पड़े थे,फिर उनका क्या होगा ,जो अपने कुतर्क में भगवद गीता जैसे सर्वमान पवित्र ग्रन्थ के आधे श्लोक को अपनी कुष्ठित विचार धारा के समर्थन में प्रस्तुत करतेहैं.
    पूर्ण श्लोक ,जिसका उतरार्ध यहाँ प्रस्तुत किया गया वह इस तरह है.
    श्रेयान्स्वधर्मों विगुण: परधर्मात्स्वनुष्ठितात I
    स्वधर्मे निधनं श्रेय: परधर्मों भयावह :II (गीता ३.३५)
    मुझे तो नहीं लगता कि इसमे कोई ऐसी बात कही गयी है,जिसे विजय जी अपने विचारों के प्रमाण स्वरूप उपस्थित करना चाह रहे हैं.फिर भी इसका हिंदी अर्थ देखते हैं जो लोकमान्य बाक गंगाधर तिलक लिखित गीता रहस्य से ली गयी है.
    हिंदी अर्थ–पराये धर्म का आचरण सुख से करते बने,तो भी उसकी अपेक्षा अपना धर्म अर्थात चातुर्वर्ण्य विहित कर्म ही अधिक श्रेयस्कर है.;(फिर चाहे) वह विगुण अर्थात सदोष भले ही हो.स्वधर्म के अनुसार(बर्तने में) मृत्यु हो जावे, तो भी उसमे कल्याण है,(परन्तु)परधर्म भयंकर होता है..
    आगे अपनी टिप्पणी में वे लिखते है की स्वधर्म का अर्थ,वह व्यवहार , कि जो स्मृतिकारों की चातुर्वर्ण्य व्यवस्था के अनुसार प्रत्येक मनुष्य को शास्त्र द्वारा नियत कर दिया गया है;
    स्वधर्म का अर्थ मोक्ष धर्म नहीं है.सब लोगों के कल्याण के लिए ही गुण कर्म केविभाग से चातुर्वर्ण्य -व्यवस्था को (गीता १८.४१)शास्त्रकारों ने प्रवृत कर दिया है.अतएव भगवान् कहते हैं कि ब्राह्मण – क्षत्रिय आदि,ज्ञानी हो जाने पर भी,अपना अपना व्यवसाय करते रहें,इसीमे उनका और समाज का कल्याण है.और इस व्यवस्था में बार बार गड़बड़ करना योग्य नहीं है.(गीतारहस्य पृष्ठ ११,३३६,१५,४९६).”तेली का काम तम्बोली करे,दैव न मारे आप भरे”.इस प्रचलित लोकोक्ति का भावार्थ भी यही है.जहां चातुर्वर्ण्य व्यवस्था का चलन नही है ,वहां भी सबको यही श्रेस्कर जँचेगा,कि जिसने सारी जिन्दगी फ़ौजी मुकदमे में बिताई हो ,यदि फिर काम पड़े, तो उसको सिपाही का ही पेशा सुभीते का होगा; न की दर्जी का रोजगार; और यही न्याय चातुर्वर्ण्य- व्यवस्था केलिए भी उपयोगी है.यह प्रश्न भिन्न है कि चातुर्वर्ण्य- व्यवस्था भली है या बुरी;और यहाँ उपस्थित भी नहीं होता.यह बात भी निर्विवाद है कि समाज का समुचित भरण पोषण होने के लिए खेती के जैसे निरुपद्रवी और सौम्य व्यवसाय की ही भाँति अन्यान्य कर्म भी आवश्यक है. अतएव ,जहाँ एक बार किसी भी उद्योग को अंगीकार किया–फिर चाहे उसे चातुर्वर्ण्य व्यवस्था के कारण स्वीकार करो या अपनी मर्जी से,-कि वह धर्म हो गया.फिर किसी विशेष अवसर पर उसमे मीन मेख निकाल कर अपना कर्तव्य-कर्म छोड़ बैठना अच्छा नहीं है.आवश्यकता होने पर उस व्यवसाय में ही मर जाना चाहिए.बस ,यही इस श्लोक का भावार्थ है.कोई भी व्यापार या रोजगार हो, उसमे कुछ न कुछ दोष सहज ही निकाला जा सकता है.(गीता १८.४८),परन्तु इस नुक्ताचीनी के मारे अपना नियत कर्त्तव्य ही छोड़ देना ,कुछ धर्म नही है.महाभारत के ब्राह्मण व्याघ्र संवाद में और तुलाधार जाजली संवाद में भी यही तत्व बतलाया गया है.,एवं वहां के ३५ वें श्लोक का पूर्वार्द्ध मनुस्मृति में (मनु.१०.९७) और गीता में भी (गीता १८.४७) आया है.

  17. आदरणीय र. सिंह साहब –सादर प्रस्तुत.
    (१)
    एक सामान्य पारिवारिक विषय पर,
    विचार व्यक्त किए जा रहे हैं|
    वैसे हम में से किसे भी, इस परिवारका पता नहीं है|
    (२)
    आपकी राय में यह निजी विषय है| इस लिए इस विषय पर क्या विचार भी व्यक्त ना किए जाए?
    (३)
    पर विचार व्यक्त करना, और टांग अड़ाना इसमें निश्चित अंतर है| इसे आप स्वीकार करते है, या नहीं?
    (४)
    मैं ने तो विषय का सामान्यीकरण ही किया है|
    विचार व्यक्त करने क़ि छूट तो होनी ही चाहिए| क्या आप ऐसा नहीं मानते?
    यह सही बहस के पुरस्कर्ता प्रवक्ता का मंच है|
    (५)
    मैं मानता हूँ, क़ि,विचार व्यक्त करना हमारा स्वातंत्र्य है|
    मैं इसे टांग अड़ाना नहीं मानता|
    (६)
    आपके विचारानुसार कोई युगुल भ्रूण हत्या भी करे, तो फिर आप टांग अड़ाएंगे, या नहीं? तो कैसे आप दोनों विषयों में सैद्धांतिक दृष्टिसे अंतर स्पष्ट करेंगे?
    (७)
    या यह कहते रहेंगे, क़ि ये उनका निजी विषय है, और आप दूर रहेंगे ?
    बिन्दुवार चर्चा करें, सुविधा के लिए|
    (८)
    आपका तर्क सही प्रतीत होने पर स्वीकृति भी की जा सकती है|
    सुविधा के लिए, कृपया बिन्दुवार चर्चा करें|
    आदर सहित|

  18. र. सिंह जी आपके प्रयास सराहनीये हैं लेकिन पूर्वाग्रह का इलाज किसी के पास नहीं है. शरण जी को बिना तर्क के अपनी बात कहनी है तो कोइ क्या कर सकता है?

  19. ऐसे उत्तर तो मेरी टिप्पणी में निहित है,फिर भी स्पष्ट रूप से मैं यही कह सकता हूँ की बालिग़ बेटी को अपना जीवन साथी चुनने का पूर्ण अधिकार है. माता पिता का संस्कार अगर आड़े आता है तो इस पर विचार बेटे या बेटी को करना है ,मैं नहीं समझता की इसमे दूसरों को टांग अडाने की आवश्यकता है.

  20. विवाह को मैं –( Graft ) की उपमा देता हूं।
    (१)एक पौधे की डाली को काटकर, दूसरे पौधे पर (सफलता से) कलम कर ने के समान उसे देखता हूं।
    (२) समान रीति, समान भाषा, समान रूढियां,समान खान पान, …..इत्यादि करीब १८ -२० ऐसे बिन्दू हैं। और कुछ बिन्दू पूरक भी हैं।
    यह “समानता और पूरकता” ही विवाह को सफल करते हैं।
    (३) “सभी धर्मों का आदर” करते हुए भी आपको अपनी सन्तान का कल्याण ही यदि(?) करना है; तो विवाह की सफलता के लिए ” किसी बबुल के पेडपर आम की डाली कलम नहीं करनी चाहिए।
    {बबुल और आम केवल उपमाएं है}
    (४) सभी धर्मॊंका आदर करें; पर ऐसा करने में अपनी सन्तान का कल्याण भी अनदेखा नहीं करना चाहिए।
    विवाह की सफलता कॉम्पॅटीबीलीटी ( समरूपता ) और पूरकता के ३६ (या ३२?) गुणॊं पर निर्भर है।

    हिन्दुत्व अद्वैत को और अन्य ६ (३ और =९) दर्शन भी स्वीकार करता है।पर, इस्लाम ऐसा नहीं कर सकता।
    यहां असमानता है। यह बात भी जान लीजिए।

  21. भगवदगीता में लिखा है, स्वधर्मे निधनं श्रेयः, परधर्मों भयावहः। तो इस से इस लेख पर क्या मूल्यांकन जोड़ा जाए?

  22. श्री आर सिंह की टिपण्णी से यह स्पष्ट नहीं हो पाया की वे इस विवाह को कैसा मानते हैं ठीक या गलत | एक बेटी के बाप को ही क्यों इस मानसिक उत्पीडन से गुज़रना पड़ता है – किसी बेटे के बाप को क्यों नहीं | इस में बेटी का नाम भी बदल जाता है और उस की मान्यता भी |

  23. श्री शंकर शरण जी आप श्रीमदभगवद गीता को पढिये और समझिये,आप दूसरे धर्मों में के बारे में ऐसा विचार रखना छोड़ देंगे.मौलवी या मुल्ला क्या कहते हैं और पंडित क्या कहते हैं इस पर धर्म या मजहब का मूल्यांकन नहीं किया जा सकता.मैंने अभी एक वर्ष पहले एक पुस्तक पढी थी इस्लाम, चैलेन्ज टू रिलीजन..लेखक ने उसमे तर्क द्वारा सिद्ध किया था की इस्लाम मजहब नहीं है यह तो वे आफ लाइफ है .उसके दिए हुए तर्कों मेंमुझे कोई असंगति नहीं दिखी थी.मेरे विचारानुसार हजरत मुहम्मद या कुरआन अरब देशों में फैले हुए अंध विश्वास की उपज हैऔर इसी कारण इस्लाम धर्म तर्क की कसौटी पर खरा उतरेगा,ऐसा मेरा विश्वास है.आवश्यकता है,दृष्टि कोण बदलने की.इस्लाम धर्म में एक ईश्वर पर विश्वास क्या हिन्दू धर्म के अद्वैतवाद से अलग है ?हिन्दू धर्म में पूजा पाठ में सत्यनारायण कथा बहुत प्रचलित है.कभी आपलोगों ने इसको अध्ययन करने का प्रयत्न किया है.?मैं नहीं समझता की सत्यनारायण कथा में कोई तर्क संगत विवरण है. मै अभी तो विश्वास पूर्वक नहीं कह सकता,पर जहां तक मुझे याद आता है,उसमे भगवद गीता के निष्काम कर्म योग की भी खिल्ली उडाई गयी है. वर्षों पहले पटना विश्वविद्यालय में दर्शन शास्त्र के एक प्राध्यापक थे.उनका नाम था डाक्टर हरिमोहन झा..उनकी मैथिली में लिखी हास्य व्यंग्य की एक पुस्तक है,खट्टर कका क तरंग.उसको पढ़िए,आपको हिन्दू धर्म की बहुत कुरीतियाँ समझ में आ जायेंगी.
    किसी भी धर्म या मजहब के बारे में मुंह खोलने से पहले उसको समझिये .उस धर्म या मजहब के उद्भव की परिस्थितियों का अध्ययन कीजिये.अधकचरा ज्ञान ऐसे भी अच्छा नहीं होता.धर्म या मजहब के बारे में तो यह खतरनाक सिद्ध होता है

    • एक बार मुसलामानों और ईसाईयों के किसी कुरीति का वर्णन करिये और अपने घर का पता भी लिख दीजिये. सिंह जी सब कुछ समझ जायेंगे.
      तस्लीमा नसरीन का नाम सुना है ??? वो बंगला देश छोड़ कर कोल्कता में क्यों रह रही हैं ???
      हिंदुओं के अच्छी और बुरी सभी रीति रिवाजों पर आप अपनी कलम चला सकते हैं. खूब बुराई कीजिये. हो सके तो अंग्रेज़ी में लिखिए. विदेशी पुरस्कार भी मिलेंगे….
      अपना नाम भी राम गोपाल से पॉल गोमरा रख लीजिये. आप पैदल ही चाँद पर पहुँच जायेंगे. इतनी उचाई से आप जब हिन्दू धर्म पर थूकेंगे तो आप की शोहरत और बढ़ जायेगी.

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