रामस्वरूप रावतसरे
अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (एएमयू) के अल्पसंख्यक दर्जे से संबंधित मामले में सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार (8 नवंबर) को 1967 में दिए अज़ीज़ बाशा बनाम भारत संघ के अपने फैसले को पलट दिया। इसमें कहा गया था कि क़ानून द्वारा बना कोई संस्थान अल्पसंख्यक संस्थान होने का दावा नहीं कर सकता। एएमयू अल्पसंख्यक संस्थान है या नहीं, इसका फैसला अब सुप्रीम कोर्ट की नियमित पीठ करेगी।
सुप्रीम कोर्ट के सात सदस्यीय संविधान पीठ ने यह फैसला 4-3 के बहुमत से सुनाया। इस पीठ की अध्यक्षता भारत के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ ने की। पीठ में सीजेआई चंद्रचूड़ के अलावा जस्टिस संजीव खन्ना, सूर्यकांत, जेबी पारदीवाला, दीपांकर दत्ता, मनोज मिश्रा और एससी शर्मा थे। जस्टिस सूर्यकांत, जस्टिस दीपांकर दत्ता और जस्टिस शर्मा की राय बहुमत से अलग थी। अज़ीज़ बाशा मामले को खारिज करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि कोई संस्थान सिर्फ़ इसलिए अपना अल्पसंख्यक दर्जा नहीं खो देगा क्योंकि उसे क़ानून द्वारा बनाया गया था। बहुमत ने कहा कि कोर्ट को यह जाँच करनी चाहिए कि विश्वविद्यालय की स्थापना किसने की और इसके पीछे ‘दिमाग’ किसका था।
सीजेआई के नेतृत्व वाली बहुमत ने कहा कि अगर वह जाँच अल्पसंख्यक समुदाय की ओर इशारा करती है तो संस्थान संविधान के अनुच्छेद 30 के अनुसार अल्पसंख्यक दर्जे का दावा कर सकता है। इस तथ्यात्मक निर्धारण के लिए संविधान पीठ ने मामले को एक नियमित पीठ को सौंप दिया। इस मामले में अब आगे की सुनवाई नियमित पीठ में होगी। सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ इलाहाबाद हाई कोर्ट के साल 2006 के फैसले से उत्पन्न संदर्भ पर सुनवाई कर रही थी। उसमें कहा गया था कि अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय अल्पसंख्यक संस्थान नहीं है। सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने 1 फरवरी 2024 को इस मामले में अपना फैसला सुरक्षित रख लिया था। इससे पहले पीठ ने 8 दिनों तक इस मामले की सुनवाई की थी।
सीजेआई की अध्यक्षता वाली सुप्रीम कोर्ट की पीठ के बहुमत का फैसला सीजेआई ने पढ़कर सुनाया। उन्होंने कहा कि यदि इसे केवल उन संस्थानों पर लागू किया जाए जो संविधान लागू होने के बाद स्थापित किए गए थे तो इससे संविधान का अनुच्छेद 30 कमजोर हो जाएगा। ‘निगमन’ और ‘स्थापना’ शब्दों का परस्पर उपयोग नहीं किया जा सकता। उन्होंने कहा कि केवल इसलिए कि एएमयू को शाही कानून द्वारा शामिल किया गया था, इसका मतलब यह नहीं है कि इसे अल्पसंख्यक द्वारा ‘स्थापित’ नहीं किया गया था। यह तर्क नहीं दिया जा सकता है कि विश्वविद्यालय की स्थापना संसद द्वारा की गई थी क्योंकि क़ानून कहता है कि इसे विश्वविद्यालय की स्थापना के लिए पारित किया गया था। इस तरह की औपचारिकता अनुच्छेद 30 के उद्देश्यों को विफल कर देगी। बहुमत ने कहा कि औपचारिकता को वास्तविकता का रास्ता देना चाहिए। यह निर्धारित करने के लिए कि संस्थान की स्थापना किसने की, न्यायालय को संस्थान की उत्पत्ति का पता लगाना चाहिए और यह पहचानना चाहिए कि इसके पीछे ‘दिमाग’ किसका था। यह देखना होगा कि भूमि के लिए धन किसे मिला और क्या अल्पसंख्यक समुदाय ने मदद की।
सीजेआई ने कहा कि यह जरूरी नहीं है कि संस्थान की स्थापना केवल अल्पसंख्यक समुदाय के लाभ के लिए की गई हो। यह साबित करना आवश्यक नहीं है कि प्रशासन अल्पसंख्यक के पास ही होना चाहिए। अल्पसंख्यक संस्थाएँ धर्मनिरपेक्ष शिक्षा पर जोर देना चाहती हैं और इसके लिए प्रशासन में अल्पसंख्यक सदस्यों की आवश्यकता नहीं है।इस फैसले पर असहमति रखने वाले जजों का तर्क पीठ में बहुमत के फैसले से तीन जजों ने अलग राय रखी। जस्टिस सूर्यकांत ने कहा कि अल्पसंख्यक अनुच्छेद 30 के तहत कोई संस्थान स्थापित कर सकते हैं लेकिन इसके लिए उन्हें किसी क़ानून के साथ-साथ यूजीसी द्वारा भी मान्यता प्राप्त होनी चाहिए। अज़ीज़ बाशा और टीएमए पाई में 11 न्यायाधीशों की पीठ के फ़ैसले के बीच कोई टकराव नहीं है। उन्होंने कहा कि संविधान के अनुच्छेद 30(1) के तहत शैक्षणिक संस्थानों में विश्वविद्यालय भी शामिल हैं। अनुच्छेद 30 के तहत सुरक्षा पाने के लिए अल्पसंख्यक संस्थानों को अल्पसंख्यक द्वारा ‘स्थापित’ और ‘प्रशासित’ के संयुक्त अर्हता को पूरा करना होगा। किसी विश्वविद्यालय या संस्थान को शामिल करने वाले क़ानून के पीछे विधायी मंशा उसकी अल्पसंख्यक स्थिति तय करने के लिए आवश्यक होगी।
न्यायमूर्ति सूर्यकांत ने साल 1981 में अंजुमन में पारित संदर्भ आदेश पर आपत्ति जताई जिसमें मामले को सीधे 7 न्यायाधीशों की पीठ को भेजा गया था। हालाँकि उन्होंने यह भी कहा कि तत्कालीन सीजेआई की अगुवाई वाली पीठ द्वारा साल 2019 में दिया गया संदर्भ विचारणीय है। वहीं, न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता ने स्पष्ट रूप से कहा कि अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय अल्पसंख्यक संस्थान नहीं है और यह अनुच्छेद 30 के अंतर्गत नहीं आता। उन्होंने यह भी कहा कि साल 1981 और साल 2019 में दिए गए संदर्भ अनावश्यक थे। वहीं, जस्टिस शर्मा ने भी कहा कि अल्पसंख्यक संस्थान को धर्मनिरपेक्ष शिक्षा का विकल्प भी देना चाहिए। उन्होंने कहा कि अनुच्छेद 30 का सार अल्पसंख्यकों के लिए किसी भी तरह के तरजीही व्यवहार को रोकना और इस तरह सभी के लिए समान व्यवहार करना है। यह मान लेना कि देश के अल्पसंख्यकों को शिक्षा प्राप्त करने के लिए सुरक्षित आश्रय की आवश्यकता है, गलत है। अल्पसंख्यक अब मुख्यधारा का हिस्सा हैं और समान अवसरों में भाग ले रहे हैं।
इस मामले में 7 सदस्यीय बेंच का गठन तत्कालीन सीजेआई रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली 3 जजों की बेंच द्वारा 2019 में पारित संदर्भ आदेश के परिणामस्वरूप किया गया था। यह संदर्भ 2006 के इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले के खिलाफ अपील की सुनवाई के दौरान हुआ। इसका मुख्य मुद्दा यह था कि ‘किसी शैक्षणिक संस्थान को अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थान मानने के क्या संकेत हैं? क्या किसी संस्थान को अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थान इसलिए माना जाएगा, क्योंकि वह किसी धार्मिक या भाषाई अल्पसंख्यक वर्ग के व्यक्ति द्वारा स्थापित किया गया है या उसका प्रशासन किसी धार्मिक या भाषाई अल्पसंख्यक वर्ग के व्यक्ति द्वारा किया जा रहा है?’
अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के अल्पसंख्यक दर्जे का विवाद लगभग 50 साल पुराना है। सन 1967 में सुप्रीम कोर्ट ने विश्वविद्यालय के संस्थापक अधिनियम में दो संशोधनों को चुनौती देने पर फ़ैसला सुनाया था। इसमें तर्क दिया गया था कि वे एएमयू की स्थापना करने वाले मुस्लिम समुदाय को अनुच्छेद 30 के तहत इसे प्रशासित करने के अधिकार से वंचित करते हैं। इनमें से पहला संशोधन 1951 में किया गया जिसके तहत यूनिवर्सिटी के सर्वाच्च शासी निकाय यूनिवर्सिटी कोर्ट में गैर-मुस्लिमों के सदस्य होने की अनुमति देता था। इसके साथ ही विश्वविद्यालय के लॉर्ड रेक्टर की जगह विजिटर को नियुक्त किया गया था जो भारत के राष्ट्रपति थे। दूसरा संशोधन 1965 में करके एएमयू की कार्यकारी परिषद की शक्तियों का विस्तार किया गया था यानी यूनिवर्सिटी कोर्ट अब सर्वाच्च शासी निकाय नहीं था। एस अज़ीज़ बाशा बनाम भारत संघ 1967 मामले में सुप्रीम कोर्ट ने माना था कि एएमयू की ना ही स्थापना और ना ही प्रशासन मुस्लिम अल्पसंख्यक द्वारा किया गया था। इसके बजाय यह यह केंद्रीय विधानमंडल (अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय अधिनियम 1920) के एक अधिनियम के माध्यम से अस्तित्व में आया था। इस फैसले का मुस्लिम समुदाय ने कड़ा विरोध किया।
तत्कालीन सरकार ने साल 1981 में एएमयू अधिनियम में संशोधन किया और कहा कि इसकी स्थापना मुस्लिम समुदाय द्वारा भारत में मुस्लिमों की सांस्कृतिक और शैक्षणिक उन्नति को बढ़ावा देने के लिए की गई थी। इसके बाद साल 2005 में एएमयू ने पहली बार स्नातकोत्तर चिकित्सा कार्यक्रमों में मुस्लिमों को 50 प्रतिशन आरक्षण दिया। इसके अगले साल एएमयू के फैसले को इलाहाबाद हाई कोर्ट में चुनौती दी गई। इलाहाबाद हाई कोर्ट ने विश्वविद्यालय के आदेश और 1981 के संशोधन, दोनों को रद्द कर दिया। हाई कोर्ट ने तर्क दिया कि अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी अज़ीज़ बाशा फैसले के अनुसार अल्पसंख्यक संस्थान नहीं है। हाईकोर्ट के इस आदेश को तुरंत सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई। यह चुनौती केंद्र की यूपीए सरकार ने दी थी। हालाँकि, साल 2016 में केंद्र की मोदी सरकार ने यूपीए सरकार वाली इस अपील को वापस ले लिया। इसके बाद साल 2019 में सुप्रीम कोर्ट की तीन सदस्यीय पीठ ने इसे सात जजों की बेंच को सौंप दिया। अब 7 जजों की बेंच ने बहुमत के आधार पर इस अजीज बाशा मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलट दिया।
संविधान में साल 2006 में शामिल अनुच्छेद 15(5) के तहत अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थानों को अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए सीटें आरक्षित करने से छूट दी गई है। एएमयू का अल्पसंख्यक दर्जा न्यायालय में विचाराधीन है और साल 2006 में सुप्रीम कोर्ट ने यथास्थिति बनाए रखने का निर्देश दिया था, इसलिए विश्वविद्यालय में एससी/एसटी कोटा लागू नहीं है। केंद्र सरकार ने इस साल सुप्रीम कोर्ट के समक्ष तर्क दिया था कि अगर अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय को अल्पसंख्यक संस्थान घोषित किया जाता है तो यह नौकरियों और सीटों में एससी/एसटी/ओबीसी/ईडब्ल्यूएस के लिए आरक्षण प्रदान नहीं करेगा। इसके विपरीत यह मुस्लिमों को आरक्षण देगा जो 50 प्रतिशत या उससे भी अधिक हो सकता है। इसके साथ ही केंद्र सरकार ने यह भी तर्क दिया था कि अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय का ‘प्रशासनिक ढाँचा’ वर्तमान व्यवस्था से बदल जाएगा। वर्तमान व्यवस्था के तहत विभिन्न क्षेत्रों के लोगों से मिलकर बनी कार्यकारी परिषद की सर्वाच्चता प्रदान है। साथ ही राष्ट्रीय महत्व का संस्थान होने के बावजूद एएमयू में अन्य ऐसे संस्थानों से अलग प्रवेश प्रक्रिया होगी।
केंद्र ने यह भी तर्क दिया कि एएमयू जैसे बड़े राष्ट्रीय संस्थान को अपने धर्मनिरपेक्ष मूल को बनाए रखना चाहिए और राष्ट्र के व्यापक हित को सर्वप्रथम पूरा करना चाहिए। वहीं, एएमयू की ओर से कहा गया कि केंद्र का यह मानना भ्रामक है कि एएमयू का अल्पसंख्यक दर्जा सार्वजनिक हित के विपरीत होगा क्योंकि इससे उन्हें अन्य वंचित समूहों के लिए सीटें आरक्षित करने से छूट मिल जाएगी।
संविधान का अनुच्छेद 30 अल्पसंख्यक समुदाय के शिक्षण संस्थानों की स्थापना और उनके प्रबंधन के अधिकार से संबंधित है। यह अनुच्छेद अल्पसंख्यक समुदाय को अपनी भाषा, संस्कृति और धर्म की रक्षा एवं प्रसार के लिए शिक्षण संस्थान स्थापित करने और उसे चलाने का अधिकार प्रदान करता है। उन्हें अपने शिक्षण संस्थान में अपने धर्म एवं संस्कृति का शिक्षा देने का अधिकार होता है। इस तरह अल्पसंख्यक समुदाय अपने संस्थान में प्रवेश, शिक्षा और परीक्षा को संचालित कर सकते हैं। इस तरह वे अपने संस्थान के नियम और कानून स्वयं तय कर सकते हैं। इसका प्रशासन भी उन्हीं के हाथ में होगा। अल्पसंख्यक समुदाय के शिक्षण संस्थानों को सरकार द्वरा मान्यता प्राप्त होना जरूरी है। अगर सरकार चाहे तो इन शिक्षण संस्थानों को वित्तीय सहायता भी प्रदान कर सकती है।
अनुच्छेद 30(1) में कहा गया है कि सभी अल्पसंख्यकों को, चाहे वे धर्म या भाषा के आधार पर हों, अपनी पसंद के शैक्षणिक संस्थान स्थापित करने और उनका प्रशासन करने का अधिकार होगा। वहीं, अनुच्छेद 30(1।) अल्पसंख्यक समूहों द्वारा स्थापित किसी भी शैक्षणिक संस्थान की संपत्ति के अधिग्रहण के लिए राशि के निर्धारण से संबंधित है।
अनुच्छेद 30(2) में कहा गया है कि सरकार को सहायता देते समय किसी भी शैक्षणिक संस्थान के साथ इस आधार पर भेदभाव नहीं करना चाहिए कि वह किसी अल्पसंख्यक के प्रबंधन के अधीन है, चाहे वह धर्म या भाषा के आधार पर हो। अनुच्छेद 29 भी अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा करता है और यह प्रावधान करता है कि कोई भी नागरिक/नागरिकों का वर्ग जिसकी अपनी अलग भाषा, लिपि या संस्कृति है, उसे उसे बनाए रखने का अधिकार है।
जानकारी के अनुसार 8 दिसंबर 1948 को संविधान सभा ने अपनी मातृभाषा में प्राथमिक शिक्षा देने की आवश्यकता पर बहस की। सभा के एक सदस्य ने इस अनुच्छेद के दायरे को भाषाई अल्पसंख्यकों तक सीमित करने के लिए एक संशोधन पेश किया। उन्होंने तर्क दिया कि एक धर्मनिरपेक्ष राज्य को धर्म के आधार पर अल्पसंख्यकों को मान्यता नहीं देनी चाहिए। वहीं, सभा के एक अन्य सदस्य ने भाषाई अल्पसंख्यकों को उनकी भाषा और लिपि में प्राथमिक शिक्षा प्राप्त करने के मौलिक अधिकार की गारंटी देने का प्रस्ताव रखा। वह अल्पसंख्यक भाषाओं की स्थिति के बारे में चिंतित थे, यहाँ तक कि उन क्षेत्रों में भी जहाँ अल्पसंख्यकों की आबादी काफी अधिक थी। संविधान सभा ने प्रस्तावों को अस्वीकार कर दिया था।
रामस्वरूप रावतसरे