
मनोज ज्वाला
भाजपा पर विभाजनकारी राजनीति का आरोप लगाते रहने वाली कांग्रेस पर
वास्तव में ‘उल्टा चोर कोतवाल को डांटे’ कहावत चरितार्थ होती रही है ।
देश-विभाजन के प्रत्यक्षदर्शी स्वतंत्रता-सेनानी व इतिहासकार-
सी०एच०शीतलवाड ने अपनी पुस्तक ‘इण्डिया डिवाइडेड’ में विभाजन के लिए
कांग्रेस को ही दोषी प्रमाणित करते हुए साफ-साफ लिखा है- “नंगी सच्चाई को
यह कह कर छिपाना व्यर्थ है कि परिस्थितिजन्य मजबुरियों ने भारत का विभाजन
स्वीकार करने के लिए कांग्रेस को विवश कर दिया था और उसे अपरिहार्य
कारणों के समक्ष समर्पण करना पडा था । वास्तव में विभाजन की वे
परिस्थितियां तो कांग्रेस के द्वारा ही निर्मित की गई थीं । जिस मांग
(विभाजन) को एक बार स्थगित किया जा चुका था, उसे उसके (कांग्रेस के)
कारनामों ने ही अपरिहार्य बना दिया था । संयुक्त भारत , अर्थात अखण्ड
भारत का वरदान कांग्रेस की गोद में आ पडा था, किन्तु उसकी राजनीतिक
दुर्नीतियों और उसके नेताओं की महत्वाकांक्षाओं के कारण कांग्रेस ने उसे
दूर फेंक कर उससे मुंह फेर लिया । जिन्ना की मुस्लिम लीग ने तो कैबिनेट
मिशन योजना को स्वीकार कर पाकिस्तान की मांग ही वापस ले ली थी, किन्त
कांग्रेस ने वह अवसर खो दिया । जिन्ना तो सन १९४७ में भी पाकिस्तान बनने
के प्रति तनिक भी आश्वस्त नहीं था और उसे तनिक भी यह विश्वास नहीं था कि
कांग्रेस उसे महज सत्ता से दूर रखने के लिए एकबारगी देश-विभाजन के लिए भी
तैयार हो जाएगी” । किन्तु, ब्रिटिश हुक्मरानों से सत्ता का सौदा करने
वाली हाय री कांग्रेस ! तू ने लाखों देशवासियों को मुस्लिम लीग के
‘डायरेक्ट ऐक्शन’ का खुनी शिकार बना कर बिना किसी अवरोध के ही इत्मीनान
से गढ दिया पाकिस्तान का आकार । ऐतिहासिक तथ्य बताते हैं कि जिन्ना
अन्त-अन्त तक विभाजन के लिए तैयार नहीं था, क्योंकि उसे कांग्रेस की ऐसी
बुजदिली व बदनियती पर एतबार ही नहीं हो रहा था कि कांग्रेस एकबारगी
महात्मा गांधी की शपथ को भी नजरंदाज कर देश की अखण्डता का भी शिकार कर
लेगी । बावजूद इसके, उसने आजाद भारत के शासन में अपनी राजनीतिक अहमियत व
हैसियत कायम रखने के लिए पाकिस्तान की मांग को महज तुरुप के पत्ते की तरह
इस्तेमाल भर किया । अपनी इस मंशा की पूर्ति होते देख मौका मिलते ही
महत्वाकांक्षी जिन्ना ने पाकिस्तान की मांग से पीछे हटने में रुचि दिखाई
, जबकि सत्ता-लिप्सु नेहरु की गिरफ्त में फंसी कांग्रेस उस मौके पर भी
उसे पाकिस्तान दे देने में ही तत्परता दिखाई । ब्रिटिश संसद से सन १९४५
में आया कैबिनेट मिशन एक ऐसा ही मौका था, जब जिन्ना ने सत्ता-संधारण
सम्बन्धी कैबिनेट मिशन की सिफारिसों को मुस्लिम लीग की एक बैठक में
स्वीकार करते हुए पाकिस्तान की मांग वापस लेने का प्रस्ताव पारित कर यह
घोषणा कर दी थी कि “हमने सम्प्रभुता-सम्पन्न राज्य- पाकिस्तान के गठन की
अपनी मांग का बलिदान कर दिया है” । किन्तु , भारत की समस्त जनता का
प्रतिनिधि होने की अंग्रेजी मान्यता प्राप्त कर अंग्रेजों से सत्ता का
सौदा कर रही कांग्रेस ने भारत की अखण्डता को बनाये रखने के उस मौके पर
कैबिनेट मिशन को सिरे से ठुकरा दिया और उसे “पाकिस्तान से भी खराब बताते
हुए जिन्ना को पाकिस्तान के आकार में भारत का एक भू-भाग दे देना ही अच्छा
समझा । “पार्टिशन ऑफ इण्डिया – लिजेण्ड एण्ड रियलिटी” नामक पुस्तक में
इसके लेखन व इतिहासकार एच०एम० सिरचई ने लिखा है- “यह तथ्य प्रामाणिक रुप
से स्पष्ट है कि वह कांग्रेस ही थी, जो देश-विभाजन चाहती थी ; जबकि
जिन्ना तो वास्तव में विभाजन के खिलाफ था, उसने द्वितीय वरीयता के रुप
में पाकिस्तान को स्वीकार किया था” । महात्मा गांधी के प्रपौत्र- राजमोहन
गांधी ने तो अपनी पुस्तक-‘ऐट लाइव्स’ में इस तथ्य को और भी स्पष्ट शब्दों
में सत्य प्रमाणित करते हुए लिखा है- “पाकिस्तान जिन्ना का अपरिवर्तनीय
लक्ष्य नहीं था और कांग्रेस यदि कैबिनेट मिशन योजना के प्रति राजनीतिक
दूरदर्शिता का रुख अपनाती तो पाकिस्तान अस्तित्व में ही नहीं आता और इसकी
जरुरत भी नहीं पडती ”।
ऐतिहासिक सत्य यह भी है कि मुस्लिम-आरक्षण के सर्वाधिक मुखर
विरोधी रहे जिन्ना को साम्प्रदायिक अलगाववादी बनाने का काम कांग्रेस ने
ही किया था । पेंड्रेरल मून नामक एक अंग्रेजी लेखक ने अपनी पुस्तक
‘डिवाइड एण्ड क्विट’ में इस तथ्य का खुलासा करते हुए लिखा है- “एक बार
जिन्ना ने लाहौर में अपने एक मित्र को बताया था कि कांग्रेस द्वारा किये
गए अपमान का बदला लेने के लिए तथा जिस कांग्रेस ने पूर्व में उसकी
राजनीतिक हैसियत मिटा देने की कोशिश की थी, उसे नीचा दिखाने के लिए
सौदेबाजी का एक उपक्रम एवं एक राजनीतिक कदम है पाकिस्तान का उसका
प्रस्ताव । दरअसल कांग्रेस से अपनी शर्तें स्वीकार कराने के लिए
‘पकिस्तान-प्रस्ताव’ जिन्ना के हाथ में ‘तुरुप के पत्ते’ जैसा था ”। इस
सत्य का समर्थन तो स्वतंत्रता सेनानी कांजी द्वारका दास ने भी अपनी
पुस्तक- ‘टेन इयर्स टू फ्रीडम’ में किया है । उन्होंने लिखा है- “जिन्ना
सन १९४६ में भी पाकिस्तान के लिए नहीं सोच रहा था , बल्कि सच तो यह है कि
जिन्ना ने कल्पना भी नहीं की थी कि पाकिस्तान कभी अस्तित्व में आएगा भी ।
जिन्ना यदि पाकिस्तान चाह रहा होता, तो वह उन दिनों बम्बई-स्थित अपने
मकान के रंग-रोगन पर लाखों रुपये खर्च नहीं कर रहा होता । वह पाकिस्तान
के प्रति कभी गम्भीर था ही नहीं ”। उन्हीं दिनों कराची में आयोजित एक
प्रेस-कांफ्रेंस में प्रस्तावित पाकिस्तान के स्वरुप की व्याख्या करने
हेतु मुस्लिम लीग से सम्बद्ध एक पत्रकार द्वारा बार-बार निवेदन किये जाने
जवाब देते हुए जिन्ना ने कहा था- “पाकिस्तान के स्वरुप की व्याख्या करने
और उसका विस्तत आशय बताने से पहले मुझे इसका अध्ययन करने का वक्त चाहिए
”। अर्थात, पाकिस्तान के प्रति मानसिक रुप से भी जिन्ना स्वयं तैयार नहीं
था ।
स्पष्ट है कि सन १९४६ में मुस्लिम लिगी गुण्डों द्वारा ततकालीन
बंगाल-सरकार की मिलीभगत से सारे बंगाल भर में किये गए हिंसक डायरेक्ट
ऐक्शन से पहले जिन्ना पाकिस्तान की मांग का राजनीतिक व रणनीतिक इस्तेमाल
किया करता था , उसके प्रति वह कभी गम्भीर था ही नहीं । किन्तु उसके
नेतृत्व में मुस्लिम लीग ने पाकिस्तान की मांग को उछाल दिया तो फिर
कांग्रेस-नेतृत्व ही देश-विभाजन के प्रति गम्भीर हो गया । कांग्रेस
कार्यसमिति के सदस्य और उन दिनों की कांग्रेस के नीति-निर्धारक चक्रवर्ती
राजगोपालाचारी ने पाकिस्तान की रुपरेखा तैयार कर उसे मद्रास-विधानसभा से
पारित भी करवा दिया । ब्रेन लापिंग ने अपनी पुस्तक ‘एण्ड ऑफ एम्पायर’ में
लिखा है- कि “जिन्ना ने मुस्लिम लीग की ओर से पाकिस्तान का प्रस्ताव पेश
जरूर किया था, किन्तु वह खुद पाकिस्तान के लिए न इच्छुक था , न आशान्वित
। जब अंग्रेज भारत छोड जाने का फैसला कर चुके थे, तब जिन्ना ने अपनी कठोर
सौदेबाजी की मुद्रा त्याग दिया, ताकि मुस्लिम-बहुल क्षेत्रों में लीग के
लिए सत्ता और केन्द्रीय शासन में स्वयं के लिए महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त
कर सके” । लॉपिंग के अनुसार , “जिन्ना द्वारा कैबिनेट मिशन की स्वीकति यह
बताती है कि वो जिस चीज को प्राप्त करने का प्रयास कर रहा था, वह थी
भारत-सरकार में अपने लिए महत्वपूर्ण भूमिका, न कि एक अलग राज्य-
पाकिस्तान की स्थापना । इसीलिए जिन्ना व लियाकत अलि खान तथा उनकी
मुस्लिम लीग ने पाकिस्तान की मांग वापस ले लिया था और कम से कम जिन्ना ने
तो यह कभी चाहा ही नहीं था । निर्णायक कदम , जिसने उस मुकाम पर पाकिस्तान
की स्थापना को सम्भव बना दिया, उसका श्रेय जिन्ना की लीग को नहीं , बल्कि
कांग्रेस के नेहरु को जाता है । नेहरु ने बडी तेजी से इस बात को महसूस
किया कि जिन्ना कैबिनेट मिशन से प्रस्तावित सत्ता के बंटवारे में
आनुपातिक रुप से एक बडा हिस्सा प्राप्त कर सकता है, जिसके कारण उनकी
स्थिति कमजोर हो सकती है” । मालूम हो कि उस दौर में कांग्रेस को पूरी तरह
से अपनी गिरफ्त में ले चुके नेहरु अपने राजनीतिक मुकाम को निष्कण्टक
बनाने के लिए पाकिस्तान का निर्माण कर देने के लिए स्वयं ही ज्यादा
उत्सुक थे । इसकी पुष्टि उन्हीं की लिखी उस डायरी से होती है , जिसे
उन्होंने अहमदनगर किला करावास के दौरान लिखा था । अपनी उस डायरी में
उन्होंने स्वयं ही लिखा है- “मैं सहज वृति से ऐसा महसूस करता हूं कि
जिन्ना को भारतीय राजनीति से दूर रखने के लिए हमें पाकिस्तान अथवा ऐसी
किसी भी चीज को स्वीकार कर लेना ही बेहतर होगा” । इन तमाम तथ्यों से यह
स्पष्ट है कि संघ व भाजपा को देश की एकता-अखण्डता के लिए खतरा बताते रहने
वाली कांग्रेस ही वास्तव भारत की अखण्डता को खतरनाक तरीके से तार-तार
करती रही है और देश-विभाजन व विभाजन-जनित भीषण कत्लेआम को कांग्रेस ने ही
अंजाम दे रखा है ।
• मनोज ज्वाला ;