तेजेंद्र शर्मा
हिंदी साहित्य की त्रासदी है कि लंबे अरसे तक इस पर साम्यवादियों का कब्जा रहा। उनका मानना है कि उनकी विचारधारा के बाहर जो कुछ लिखा जा रहा है, साहित्य ही नहीं है। जबकि मेरा मानना है कि साहित्य के लिए विचार आवश्यक है, जो लेखक के भीतर से जन्म लेता है। विचारधारा ऊपर से थोपी जाती है, इसलिए पैंफलेट छपाने के बेहतर काम आती है।
ज्ञानरंजन ने सारी उम्र लेखक को देखा, रचना को नहीं। वे एक खास सोच के लेखकों को ‘पहल’ में छापते रहे, इसमें मंगलेश डबराल भी शामिल थे। उदय प्रकाश तब तक महान रहे, जब तक उनकी गोद में बैठे रहे। वहां से निकलते ही वे लेखक नहीं रहे। ज्ञान जी तो अपनी पत्रिका में विज्ञप्ति तक छापते रहे कि कृपया हमें रचना न भेजें। हमें जिन लेखकों से रचना मंगवानी होगी, उनसे खुद संपर्क कर लेंगे! विचारधारा का ऐसा हौआ शायद ही किसी अन्य पत्रिका पर हावी रहा होगा।
हमारे मित्र जगदंबा प्रसाद दीक्षित (‘मुर्दाघर’ के लेखक) की स्थिति एकदम अलग है। उन्हें मार्क्सवादी अपना नहीं मानते और वे दूसरों को अपना मानने में हिचकते हैं। मेरा और उनका रिश्ता खासा पुराना और निपट घरेलू है। हम हिंदी साहित्य के तथाकथित मार्क्सवाद पर बहस भी कर चुके हैं। वे मानते हैं कि मेरी कहानियां आम आदमी का दर्द प्रस्तुत करती हैं, मगर वे मुझे साहित्यकार मानने से इनकार करते हैं, क्योंकि मैं वर्तमान व्यवस्था के भीतर रह कर हल खोजने का प्रयास करता हूं, उसके विरुद्ध क्रांति का आह्वान नहीं करता। वे साफ कहते हैं- जब तक आप अपने भीतर एक राजनीतिक दृष्टि पैदा नहीं करेंगे, आप लेखक नहीं बन सकते।
मेरा सवाल होता कि अगर मैं भारतीय जनता पार्टी या कांग्रेस के सोच से सहमत हो जाऊं तो क्या आप मान लेंगे कि मेरे पास एक राजनीतिक दृष्टि हो गई? उनका कहना था कि राजनीतिक दृष्टि का एक ही अर्थ है- वामपंथी दृष्टि।
मैंने दीक्षित जी से कहा कि देखिए, हम आपकी कहानी ‘गंदगी और जिंदगी’ शिवसेना के अखबार में बिना किसी काटछांट के छपवाते हैं। वे मान गए और वह कहानी ‘सामना’ में प्रकाशित हो गई। उन्हें दिल्ली से बहुत गालियां मिलीं। मैंने कहा कि अब आप नरेंद्र कोहली की कोई रचना किसी भी वामपंथी पत्रिका में प्रकाशित करा कर दिखाइए। स्थिति यह है कि कोहली को छोड़िए, ‘पहल’ या ‘वसुधा’ की फाइलें देख जाइए, विद्यानिवास मिश्र, रमेशचंद्र शाह, नंदकिशोर आचार्य जैसे अनेक लेखकों के नाम नदारद मिलेंगे। हिंदी साहित्य में उनका स्थान है, पर वामपंथी पत्रिकाओं में उनके लिए जगह नहीं। आचार्य तो समाजवादी होने के नाते वामपंथ की तरफ खड़े मिलेंगे, पर वामपंथ में मार्क्सवादी होना ज्यादा जरूरी है। प्रगतिशील खेमे की पत्रिका है तो भाकपा की विचारधारा का अनुयायी होना होगा, जनवादी है तो माकपा का! मजे की बात है कि दीक्षित जी की कहानी प्रकाशित करने में ‘सामना’ को कोई खतरा महसूस नहीं हुआ। मगर किसी विजातीय की रचना छापने से जैसे साम्यवाद और उसकी पत्रिकाओं का अस्तित्व खतरे में आ जाता है।
कमल किशोर गोयनका दिल्ली कॉलेज में हमारे प्राध्यापक थे। प्रेमचंद पर उनका काम जगजाहिर है। मगर किसी भी साम्यवादी साहित्यिक पत्रिका में उन्हें स्थान नहीं दिया जाता। अगर गोयनका घोषित मार्क्सवादी होते तो उन्हें प्रेमचंद पर काम करने के लिए जरूर किसी विश्वविद्यालय का चांसलर बना दिया जाता।
भारतीय मार्क्सवाद और इस्लाम दोनों में बहुत-सी समानताएं हैं। जैसे कि दोनों में सवाल पूछने की इजाजत नहीं है। आपको दोनों में अंधा विश्वास करना होगा। और दोनों ही बहुत जल्दी खतरे में आ जाते हैं। इसलिए आप मुसलमान होकर मार्क्सवादी हो सकते हैं, मगर हिंदू होकर नहीं। हिंदू से पहली मांग होती है कि आप सेक्युलर हो जाइए। जबकि मुसलमान पार्टी की मीटिंग से उठ कर नमाज पढ़ कर वापस मीटिंग में शामिल हो सकता है।
कभी किसी मार्क्सवादी लेखक या पत्रिका ने इस बात पर सवाल नहीं उठाया कि मक्का और मदीना में गैर-मुसलमानों के लिए प्रवेश वर्जित है। यह जान कर उनका सेक्युलरिज्म आहत नहीं होता कि सऊदी अरब में इकामा (वर्क परमिट) दो रंगों का होता है- हरा मुसलमानों के लिए और भूरा गैर-मुसलमानों के लिए। जेद्दाह में जब नमाज के लिए अजान होती है तो मुसलमान हों या गैर-मुसलमान, किसी को भी सड़क पर चलने की इजाजत नहीं होती।
फेसबुक और ब्लॉगों को भला कोई गंभीरता से क्यों नहीं लेता। इसलिए कि उन पर गंभीर टिप्पणियां वैसे ही खोजनी पड़ती हैं जैसे समुद्र से मोती। यहां तो मृत्यु की खबरों पर भी लोग ‘लाइक’ कर देते हैं। हिंदी के महत्त्वपूर्ण साहित्यकारों को फेसबुकियों या ब्लॉगरों से किसी प्रकार का प्रमाणपत्र नहीं चाहिए। यह केवल शगल मेला है। सामाजिक मिलन, जहां लोग एक दूसरे का हाल पूछ लेते हैं। यहां की टैगिंग और सेल्फ-प्रोमोशन की बीमारी लाइलाज है।
हम, जो विदेशों में हिंदी की लड़ाई लड़ रहे हैं, जानते हैं कि मार्क्सवाद के ढकोसलों से हमारा काम नहीं चल सकता। हमारे यहां मंदिर सामुदायिक-केंद्र का काम करते हैं। संस्कृत और हिंदी की कक्षाएं मंदिरों में लगती हैं। वहां शास्त्रीय संगीत और योग की कक्षाएं लगाई जाती हैं। जब कवि भारत से लंदन आते हैं (मैं मंचीय कवियों की बात नहीं कर रहा), तो मंदिर ही आगे बढ़ कर मुफ्त में हॉल और सौ-सौ लोगों को मुफ्त भोजन कराते हैं। मंदिर यहां धार्मिक के साथ-साथ सामाजिक कर्तव्य भी पूरे कर रहे हैं। मुसलमान और सिख हिंदी प्रेमी इन मंदिरों में हमारे साथ खड़े होते हैं। उनका मजहब मंदिर में आकर खतरे में नहीं पड़ता। मार्क्सवाद तो यहां से बहुत दूर भारत में ही निवास करता है।
विष्णु खरे के वक्तव्य से मुझे किसी प्रकार की असुविधा नहीं हुई। मैं जन्म से हिंदू हूं, सहनशील हूं और मुझमें अपने हिंदू होने का कोई अपराधबोध नहीं है। साहित्यिक अत्याचारों की वजह से मैं अपने आप को क्यों बदलूं। मेरे लिए आम आदमी का दर्द ही सबसे महत्त्वपूर्ण है। यह आम आदमी केवल भारत में नहीं रहता। इसका निवास ब्रिटेन और अमेरिका में भी होता है। मुझे धर्म, विचारधारा जैसी बेकार बातों में कोई रुचि नहीं है। (जनसत्ता से साभार 6 मई, 2012)
आपने शानदार लिखा है। मुझे आप से मिलकर खुशी होगी।