भाजपा की केंद्रीय चुनाव समिति की बैठक से पहले दिल्ली में भाजपा संसदीय बोर्ड की बैठक में यूं तो पार्टी के भीष्म पितामह कहने वाले वयोवृद्ध नेता लालकृष्ण आडवाणी हाल के तमाम मदभेदों को भुलाकर पार्टी के ही फायर ब्रांड नेता नरेन्द्र मोदी के साथ में बैठे और २०१४ के आम चुनाव की रूपरेखा पर चर्चा भी की किन्तु मोदी के सुझावों को उन्होंने जिस निर्दयता से नकार दिया उसे देखते हुए कहा जा सकता है कि आडवाणी अब भी खुद को नेपथ्य में ढकेले जाने की पीड़ा को भुला नहीं पाए हैं। दोनों भले ही एक मंच पर साथ में बैठे हों किन्तु मनभेदों की खाई इतनी गहरी है कि आडवाणी ने बैठक में मोदी द्वारा सुझाए सभी सुझावों को नकारते हुए अपनी उपेक्षा पर मुहर लगा दी। वैसे दिल्ली में यह दूसरा मौका था जब कोप भवन से बाहर आने के बाद आडवाणी पार्टी की किसी बैठक में शामिल हुए। वरिष्ठों को यह उम्मीद थी कि आडवाणी का कोप भवन में ही स्वाहा हो गया होगा किन्तु उनके बगावती तेवरों से पार्टी स्तब्ध है। सबसे मुश्किल में तो मोदी हैं जो चाहकर भी पार्टी के एजेंडे को आगे नहीं बढ़ा पा रहे हैं। दरअसल आडवाणी को नकारना संघ और पार्टी के बूते की बात है। चूंकि आडवाणी की स्वीकार्यता भाजपा से इतर अन्य सहयोगी दलों से लेकर विपक्ष तक में है लिहाजा उनका कोप पार्टी के लिए कदापि हितकर नहीं है। दूसरी ओर संघ जिस हिंदुत्व के एजेंडे को आगे बढाकर सत्ता प्राप्ति का सुख भोगना चाहता है उसके लिए मोदी जैसे नेता को आगे करना भी संघ की मजबूरी है। चूंकि मोदी की लोकप्रियता अब सीमाओं से परे जाकर वृहद्तर क्षेत्रों में फ़ैल चुकी है अतः उन्हें भी नकार पाना संभव नहीं है। हाल ही में ट्विटर जैसी सोशल नेटवर्किंग साईट पर मोदी के समर्थकों की संख्या पूर्व केंद्रीय मंत्री शशि थरूर से भी ज्यादा हो गयी है। यह दर्शाता है कि मोदी को लेकर जनमानस में उत्साह है किन्तु यह उत्साह वोट बैंक में तभी तब्दील हो सकता है जब मोदी खुलकर खुद को और पार्टी की विचारधारा को लोगों के समक्ष लायें और यह तभी संभव है जब उन्हें पार्टी में कोई चुनौती न दे तथा वे अपना कार्य पूरी आक्रामकता से करें। ऐसे में आडवाणी की भूमिका और उनका कोप मोदी सहित पूरी पार्टी पर भारी पड़ रहा है। संसदीय दल की इस बैठक में आडवाणी ने मोदी के जिन सुझावों को सिरे से नकार दिया है उनमें से एक सुझाव यह भी था कि भाजपा को अपने सहयोगियों की अपेक्षा पार्टी के ही जिताऊ प्रत्याशियों पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए ताकि पार्टी को ही इस मुकाम तक पहुंचाया जा सके कि उसे चुनाव बाद सरकार गठन की संभावनाओं के मध्य सहयोगियों की कम से कम ज़रूरत पड़े। मोदी के इस सुझाव के दो निहितार्थ थे। अव्वल तो पार्टी के ही जिताऊ प्रत्याशियों पर ध्यान केन्द्रित करने से पार्टी की सीटों में इजाफा होता दूसरा पार्टी बेवजह के मुद्दों में उलझने की बजाए खुद पर ध्यान दे पाती। किन्तु आडवाणी ने मोदी के एक अच्छे सुझाव को नकार कर एक तरह से सियासी डर का ही प्रदर्शन किया है। शायद आडवाणी को अभी भी यह लगता है कि भाजपा अपने दम पर सरकार गठित नहीं कर सकती। यह आंकड़ों की कलाबाजी के लिहाज से सत्य भी है किन्तु केंद्र की ढुलमुल सरकार और उसके प्रति बढ़ते आम आदमी के गुस्से को देखते हुए वर्तमान में कुछ कहा नहीं जा सकता। वैसे भी राजनीति में अनिश्चितताओं का बोलबाला है और इन्हीं अनिश्चितताओं के मद्देनज़र यदि मोदी एक मौका चाहते हैं तो उन्हें वह मिलना ही चाहिए। २ सीटों से सफ़र शुरू करने वाली पार्टी पर हो सकता है इसका नकारात्मक प्रभाव पड़े पर आगे भविष्य की राह निश्चित रूप से उज्जवल होगी।
हाल ही में एक सर्वे सामने आया है, जो नरेंद्र मोदी और भाजपा, दोनों की बाछें खिला सकता है। इस सर्वे के हिसाब से मोदी का एकला चलो सिद्धांत भी पुष्ट होता है। द वीक के इस सर्वे में कहा गया है कि आगामी लोकसभा चुनावों में एनडीए १९७ सीट जीतेगा, जबकि यूपीए के हिस्से में मात्र १८४ सीटें आएंगी। वहीं दूसरे राजनीतिक दलों को मात्र १६२ सीटों से ही संतोष करना पड़ेगा। यहां एनडीए से नीतीश कुमार को अलग रखा गया है। इसका मतलब यह हुआ कि एनडीए के खाते में आने वाली सीटों में भाजपा की सीटों का प्रतिशत कहीं अधिक होगा। सर्वे के मुताबिक गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को ३२ फीसद लोगों ने बढ़िया प्रधानमंत्री करार दिया है जबकि १५ फीसद मतों के साथ दूसरी पसंद मनमोहन सिंह हैं। वहीं कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी को मात्र १३ फीसद लोग ही इस पद के लिए मुफीद मानते हैं। मायावती और लालकृष्ण आडवाणी को ५-५ फीसद, मुलायम सिंह यादव को ४ फीसद, नीतीश कुमार और ममता बनर्जी को ३-३ फीसद लोगों ने शीर्ष पद के योग्य माना है। इस सर्वेक्षण में यह दावा भी किया गया है कि यूपीए का वोट शेयर ३७.२ फीसद से घटकर ३१.७ फीसद आ जाएगा और एनडीए २३.३ फीसद से २६.७ फीसद पर पहुंच जाएगा। जहां तक भाजपा में प्रधानमंत्री पद के मजबूत दावेदार की बात है तो ५६ फीसद लोगों ने नरेंद्र मोदी को अपनी पसंद बताया है, जबकि लालकृष्ण आडवाणी को १५ फीसद, सुषमा स्वराज को १० फीसद, राजनाथ सिंह को ४ फीसद और नितिन गडकरी को ३ फीसद लोगों ने इस पद के लिए सही माना है। यानी सर्वों से लेकर कमोबेश सभी आंकडें भी मोदी को आडवाणी से श्रेष्ठ साबित कर रहे हैं। आडवाणी खुद की हार न पचा पाने का बदला पूरी पार्टी से ले रहे हैं। यह वही पार्टी है जिसे उन्होंने शैशव अवस्था से निकालकर युवा अवस्था में प्रवेश कराया था पर अब वही इसकी अंतिम पटकथा लिखने की तैयारी में हैं। आडवाणी को समय के साथ चलना चाहिए न कि समय को अपने हिसाब से ढालने की कोशिश करनी चाहिए। हो सकता है कि संसदीय बोर्ड की बैठक में उभरे मतभेदों को संघ द्वारा सुलझा लिया जाए पर मनभेदों की खाई पाटना अब संघ के भी बस के बाहर है। आडवाणी का बड़प्पन और मोदी की सौम्यता ही दोनों को करीब ला सकती है जिससे पार्टी को ही फायदा होगा। अब आगामी विधानसभा चुनावों और लोकसभा चुनाव की रणनीति तैयार करने के लिए भाजपा की केंद्रीय चुनाव अभियान समिति की बैठक होगी। चुनाव अभियान को लेकर होने जा रही इस संभावित बैठक में भाजपा संसदीय बोर्ड के सदस्यों के साथ ही सभी महासचिव और चुनाव प्रबंधन समिति के चेयरमैन नकवी भी शामिल होंगे। आडवाणी और मोदी; दोनों के पास एक मौका है कि वे स्वहितों को तिलांजलि देते हुए पार्टी को सत्ता वापसी का मार्ग प्रशस्त करें। यही संघ की मंशा है।
घर की फूट ही घर का विनाश करती है,खुद का अहम् केवल दूजो को ही नहीं,खुद को भी आत्मदाह के लिए मजबूर कर देता है,कहीं सब कुछ यहाँ भी तो नहीं हो रहा.?
अडवाणी जी की स्थिति की तुलना सुनील गावस्कर से की जा सकती है.अगर गावस्कर कहें की क्रिकेट टीम के केप्टन वाही हो सकते हैं और अन्य किसी भी परिवर्तन में अडंगा लगायें तो क्या देश स्वीकार कर सकेगा? और क्या ऐसे कदम से उनकी प्रतिष्ठा प्रभावित नहीं होगी?यही स्थिति अडवाणी जी की है.आज वो जो कुछ भी ऐसा कर रहे हैं जिससे मोदी जी के प्रयासों को अडंगा लगाये जाने के रूप में देखा जा रहा है उनसे अडवाणी जी के प्रति लोगों का सम्मान प्रभावित हो रहा है.वो न भूलें की उनसे पहले पार्टी में श्री बलराज मधोक एक बड़े नेता थे लेकिन पार्टी की भावनाओं के विपरीत आम करने से उनकी स्थित ऐसी हो गयी की जनसंघ का अध्यक्ष बनने के बाद १९७३ के कानपूर अधिवेशन में स्वयं श्री अडवाणी जी को श्री मधोक के पार्टी से निष्काशन का आदेश देना पड़ा था.आज कहाँ हैं श्री मधोक?श्री मधोक की विचारधारा भी पूरी तरह से राष्ट्रवादी थी.और हिंदुत्व के मुद्दे पर भी उनकी निष्ठां असंदिग्ध थी.
बनाया जिस आशियां को मैंने अपने खूं से,
मेरे सिवा कोई और तोड़े, ये मुझे मंजूर नहीं।
बहुत गुल खिलेंगे इस उजड़ते दयार में,
खुशबू भी ना मिलेगी, किसी भी बयार में।