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हिन्दू वल्गैरिटी पर अज्ञेय

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शंकर शरण

सार्वजनिक आयोजनों में यह दृश्य सब देखते हैं। दीप प्रज्जवलन, महापुरुषों की तस्वीरों पर माल्यार्पण अथवा मुख्य अतिथि का औपचारिक स्वागत – प्रत्येक कार्य को फोटो उतरवाने की दृष्टि से रोका या दुहराया जाता है। यह दृश्य देखने वाले किसी भी संवेदनशील व्यक्ति को महसूस होता है कि उस प्रक्रिया में दीप-प्रज्जवलन, माल्यार्पण या स्वागत की भावना गौण या लुप्त है। अपने या कार्यक्रम के प्रचार की चाह सर्वोपरि है। उस में एक चलताऊ या क्षुद्र भाव ही व्यक्त होता है। कवि अज्ञेय (सच्चिदानन्द वात्स्यायन) ने इसी को ‘हिन्दू वल्गैरिटी’ की संज्ञा दी थी। चूँकि अज्ञेय शब्द प्रयोग के प्रति अत्यधिक सावधान कवि-चिंतक थे, और अनावश्यक अंग्रेजी शब्द के प्रयोग के प्रति भी उतनी ही वितृष्णा रखते थे, इसलिए ‘वल्गैरिटी’ को यथावत् रहने देकर विचार करना ही ठीक है।

अज्ञेय ने हिन्दू ब्याह आयोजनों में दिखने वाले ऐसे अशोभन दृश्य का उदाहरण देते हुए कहा थाः “जगमग सजावट जिस में सारा ध्यान संस्कार और रीतियों पर नहीं, उन के फोटो पर है। सारा विवाह केवल एक सामाजिक थिएटर का ड्रेस रिहर्सल है जिस में सप्तपदी को भी फोटो लेने के लिए रोका जा सकता है, जिस में वरमाला की विधि की आवृत्ति भी करायी जा सकती है क्योंकि फोटो ठीक नहीं आया!” कुछ सोच कर ही अज्ञेय ने हिन्दू ब्याह को ‘हिन्दू वल्गैरिटी का सबसे खतरनाक रूप’ कहा था। किन्तु उस के कई अन्य रूप भी हैं जो अशोभनीय होने के साथ-साथ खतरनाक भी हैं। हमारे सांस्कृतिक-शैक्षिक जगत में भी उसके नित्य उदाहरण मिलते हैं।

विगत वर्ष एक किंचित-एसियाई साहित्य सम्मेलन हुआ। यह एक हिन्दूवादी कहे जाने वाले संगठन का आयोजन था। जिस नगर में सम्मेलन आयोजित था, वहाँ हिन्दी साहित्य के कई अच्छे लेखक और विद्वान रहते हैं। उन में अनन्य साहित्यसेवी, वयोवृद्ध पर सक्रिय, तथा अनेक राष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित लेखक भी हैं। वे कोई हिन्दू-विरोधी या कट्टर वामपंथी भी नहीं हैं। उल्टे वामपंथी ही उन्हें ‘भगवा समर्थक’ कहकर लांछित करते रहे हैं। किंतु साहित्य के उस सम्मेलन में हिन्दूवादी आयोजकों ने उन्हें भागीदार बनाना जरूरी नहीं समझा – पहले से ध्यान दिलाने पर भी नहीं। इस के बदले ‘अपने’ समझे जाने वाले कई मामूली टिप्पणीकारों, प्रचारकों, कार्यकर्ताओं तक को उस में सादर मंच दिया। यह वही अशोभन मानसिकता है जो वास्तविक कार्य के बदले उस की ‘फोटो’ या अपने कार्य के अपने ही लिखे प्रशंसनीय विवरण, समाचार को ही लक्ष्य मानती है। यह मानसिकता मूर्खतापूर्ण भी है, हानिकारक तो है ही, क्योंकि काम के बदले काम की भंगिमा को ही पर्याप्त मान लेती है। ऐसे साहित्यिक-सांस्कृतिक कार्य का दम भरने वालों को अपने अज्ञान और दुर्बलता की चेतना तक नहीं है!

हिन्दू संगठन के साहित्यिक-सांस्कृतिक अफसरों ने उसी नगर में रहने वाले साहित्यसेवियों को उपेक्षित तब किया जबकि उन के अपने संगठन में सच्चे साहित्यकारों का पहले से भारी अकाल है! पर अपने गंभीर अभाव की पूर्ति करने का यत्न करने के बजाए, उन्होंने उसे बढ़ाने का सगर्व प्रबंध किया। यह प्रवृत्ति न केवल गंभीर साहित्यिक विमर्श के लिए, बल्कि वृहत राष्ट्रवादी लक्ष्यों के लिए भी हानिकारक होने के सिवा कुछ नहीं। यह बहिष्कारवादी आचरण एक स्व-हस्ताक्षरित प्रमाण-पत्र है कि ऐसा करने वाले न साहित्य, न समाज सेवा, न राजनीति, न संगठन विस्तार की कोई समझ रखते हैं। सफल राजनीतिकर्मी अपने मित्रों, सहयोगियों का दायरा बढ़ाने का यत्न करते हैं। अपने शुभचिंतकों को ही खुले-आम उपेक्षित करना स्वयं को संकुचित करना ही है।

अतएव, अज्ञेय ने भारत की कम्युनिस्ट पार्टियों और हिन्दू राष्ट्रवादी संगठनों, दोनों को ठीक ही संकीर्णता से ग्रस्त बताया था। उनके शब्दों में, दोनों ही “एक तरह का छुआछूत मानते हैं, शुद्धतावादी हैं और हमेशा जिसे वे ‘अपना’ नहीं समझते उसे दूर रखने पर जोर देते हैं – बहिष्कारवादी हैं।” अज्ञेय के अनुसार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ “क्रांति की बात नहीं करता, पर यह बहिष्कारवादी संकीर्णता उसे और कट्टर मार्क्सवादी को बराबर ला खड़ा करती है।” एक अन्य प्रसंग में और भी कठोर आलोचना करते हुए अज्ञेय कहते हैं, “राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ… स्वयं अपने दावे के अनुसार एक सांस्कृतिक संगठन है (किन्तु)…उसने धर्म संस्कार की रक्षा के मामले में एक आक्रामक नहीं तो संघर्षशील प्रवृत्ति को तो उकसाया, लेकिन संस्कृति के प्रति गौरव का भाव उस ने भी नहीं जगाया। संस्कृति के लिए हम लड़ें तो, मगर वह संस्कृति अभिमान के योग्य भी हो, यह आवश्यक नहीं है! ऐसी मानसिकता की कार्यक्षमता कितनी होगी यह सहज ही सोचा जा सकता है।” राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की इससे अधिक कठोर और मूलभत आलोचना नहीं हो सकती। संघ से जुड़े देशभक्तों को इस पर विचार करना चाहिए, अन्यथा पहले ही समय बहुत बीत चुका है।

एक अर्थ में, हिन्दू बहिष्कारवादी मार्क्सवादी बहिष्कारवादियों से बहुत कम बुद्धिमान हैं। मार्क्सवादी और दूसरे वामपंथी तो जैसे-तैसे, छल से या नकली आदर देकर निराला, प्रेमचंद से लेकर विनोद कुमार शुक्ल तक बाहरी कवि-लेखकों को भी किसी न किसी तरह अपने सम्मेलन में बुलाकर, फिर उन्हें ‘प्रगतिशील’ प्रचारित कर भोले-भाले नए लेखकों, अध्यापकों और छात्रों को अपने जाल में फाँसने का काम करते रहे हैं। जबकि हिन्दू बहिष्कारवादी वास्तव में गहरी राष्ट्रीय, धर्म चेतना से संपन्न विद्वानों को भी इसलिए उपेक्षित करते रहे हैं क्योंकि वे उन के संगठन सदस्य नहीं थे / हैं। अथवा उन की हर सही-गलत का समर्थन नहीं करेंगे। इसीलिए उन्होंने प्रसाद, निराला, सुब्रह्मण्यम भारती, मैथिलीशरण गुप्त, अज्ञेय से लेकर रामस्वरूप, सीताराम गोयल तक को अपना नहीं माना, या कम माना। क्योंकि अपने संगठन के अग्रजों को ही वे अधिक मह्त्व देते रहे।

यह हिन्दू राष्ट्रवादी सांस्कृतिक संगठनों की कितनी बड़ी भूल रही, इस का विवेचन यहाँ विषयांतर होगा। केवल इतना कहना पर्याप्त है कि इस बहिष्कारवादी, भोली या अहमन्यतावादी मानसिकता से स्वयं उनको भी बड़ी हानि हुई। दयानन्द, श्रीअरविन्द, निराला, अज्ञेय या सीताराम जी जैसे महान देशभक्त चितंकों की पूजा करके राष्ट्रीय सांस्कृतिक परिदृश्य में प्रमुख स्थान प्राप्त करने में उन्हें सरलता होती। केवल अपने संगठन-संबंधित अग्रजों की भक्ति पर केंद्रित रहकर उन्होंने अपने को राष्ट्रीय के बदले राष्ट्र के एक संप्रदाय में बदल लिया। देश के सांस्कृतिक मंच पर सोने के बदले अल्युमीनियम की कुर्सी, वृहत को छोड़ लघु भूमिका, स्वयं चुन ली।

यह सब केवल उदाहरण हैं कि हिन्दू समाज और उस में सक्रिय सामाजिक, शैक्षिक, राजनीतिक एवं अर्ध-राजनीतिक संगठन किस दुर्बल अवस्था में हैं। सांस्कृतिक क्रिया-कलाप में तो वे पिछड़े हैं ही, जब वे साहित्यिक-सांस्कृतिक कामों को भी ‘राजनीति’ की दृष्टि से संचालित करते हैं। वह भी अपने संकीर्ण घेरे को और छोटा बनाने वाली राजनीति।

इस आरोप का सब से बड़ा आधार यह है कि स्वयं को सांस्कृतिक संगठन कहने वाले हिन्दू संगठन भी सांस्कृतिक, कला संबंधी क्रिया-कलापों में कम ही नजर आते हैं। उन सब की सर्वाधिक रुचि या सक्रियता राजनीतिक क्षेत्रों में ही दिखती है। वह भी कैसी, कि देश-व्यापी जनसमर्थन होते हुए भी, उन्हें अन्य राजनीतिक दल और मीडिया अछूत की तरह रखते हैं और विशाल जन-सहानुभूति पाए हुए भी हिन्दू संगठन इस की रणनीतिक काट आज तक नहीं खोज पाए हैं! इस विफलता के और जो कारण हों, वह बहिष्कारवादी, संकीर्ण मानसिकता एक बड़ा कारण है जिस पर अज्ञेय ने तीन-चार दशक पहले ही ऊँगली रखी थी।

बहिष्कारवादी मानसिकता में मार्क्सवादियों से हिन्दूवादियों की समानता का एक सांगठनिक पक्ष भी है। अपने संगठन से बाहर के सुयोग्य, प्रतिष्ठित व्यक्तियों को उपेक्षित करने के साथ-साथ संगठन से जुड़े मामूली, नौसिखिए, यहाँ तक कि निरे अयोग्य व्यक्तियों को भी किसी विषय का अधिकारी मानना। अर्थात्, किसी क्षेत्र के वास्तविक जानकारों, सत्यनिष्ठ कर्मयोगियों से लाभ उठाने के बदले अपने संगठन के व्यक्ति को ही अधिक विश्वसनीय पथप्रदर्शक समझना।

सन् 1970 में सोवियत लेखक ज्यॉर्जी मारकोव का उपन्यास ग्रियादुश्चेमू वेकू (‘आने वाली शती के लिए’) प्रकाशित हुआ था। उस में कम्युनिस्ट पार्टी और उस के संचालित संगठनों की इस प्रवृत्ति की झलक है। जो व्यक्ति ऊपरी पार्टी कमिटी का सदस्य है, वह कहीं भी, किसी भी पद या कार्य के लिए उपयुक्त माना जाता था। उस उपन्यास में इसे आलोचनात्मक रूप में नहीं, बल्कि सहज और उचित मानकर प्रस्तुत किया गया है। एक व्यक्ति किसी दूर देश में सोवियत दूतावास का वाणिज्य काउंसलर है। उसे बुलाकर किसी क्षेत्र की जिला पार्टी कमिटी का सचिव मनोनीत किया जाता है। कमिटी के सदस्य उसे ‘निर्वाचित’ कर लेते हैं। क्योंकि यही ऊपर का निर्देश है। चाहे उस व्यक्ति को उस जिले का कुछ अता-पता नहीं, बरसों से उस ने उस क्षेत्र को देखा तक नहीं, न वहाँ के किसी पार्टी सदस्य को ही वह जानता है। पर उसे वहाँ का सचिव, यानी सर्वोच्च कर्ता-धर्ता बना दिया गया। तात्कालीन सोवियत मार्क्सवादी दृष्टि में यह बिलकुल सही माना जाता था।

कुछ यही प्रवृत्ति यहाँ कई हिन्दूवादी संगठनों में भी झलकती है। तरह-तरह के उद्देश्यों से बने विशिष्ट सामाजिक, सांस्कृतिक संगठन, उन के विभाग और प्रकोष्ठ, प्रकल्प संचालक किसी वास्तविक योग्यता के बदले प्रायः संगठन में अपनी वरिष्ठता या अन्य कारणों से नियुक्त प्रतीत होते हैं। उन के क्रिया-कलाप और विचार एकदम स्पष्ट दिखाते हैं कि वे दी गई जिम्मेदारियों के योग्य नहीं। कई तो इतने वृद्ध, अशक्त हो चुके हैं कि बस बैठे-बैठे मीडिया को रोज-रोज बयान भिजवाने और पत्रकारों से किसी तरह उसे छाप देने का अनुरोध करना ही उनका ‘सक्रिय’ काम रह गया है! किंतु हिन्दू संगठन ऐसी नियुक्तियों को नितांत उपयुक्त मानकर लंबे समय तक उन्हें विभिन्न पदों पर रखते हैं। यहाँ तक कि समय के साथ उनकी पदोन्नति भी होती जाती है, चाहे उपलब्धि नगण्य या नकारात्मक ही क्यों न हो। दूसरी ओर, संगठन के बाहर के सुयोग्य व्यक्तियों को भी अस्तित्वहीन मानकर चला जाता है।

तर्क किया जा सकता है कि कोई संगठन तो ऐसे ही चल सकता है। वह स्वभाविक रूप से अपने सदस्यों के भरोसे चलेगा, चाहे उन की योग्यता कुछ कमतर क्यों न हो। अपने संगठन से बाहर के व्यक्तियों को वह अपना मार्ग-दर्शक, या प्रेरणा-पुरुष क्यों समझे? तब संगठन के विधान व अनुशासन का क्या होगा? यह तर्क ठीक है, पर केवल उन संगठनों के लिए जो पूरे देश की समग्र चिंता नहीं, बल्कि कोई निश्चित, सीमित कार्य करने का उद्देश्य रखते हैं। किंतु जो संगठन संपूर्ण सामाजिक, शैक्षिक, सांस्कृतिक चेतना के विकास या नेतृत्व का घोषित लक्ष्य रखते हैं उन के लिए वह तर्क नहीं चलेगा। कई हिन्दूवादी संगठन पूरे समाज की चिंता करते रहते हैं। कुछ तो पूरे देश की शैक्षिक अथवा राजनीतिक दिशा तक का निर्धारण करने की महत्वाकांक्षा रखते हैं। उन के लिए हर विंदु पर अपने ही सदस्यों, अग्रजों या अनुगामियों को सर्वाधिक योग्य मानने का तर्क दोषपूर्ण है। यह प्रकारांतर अपने संगठन को ही समाज और देश का पर्याय मानने की भूल है। यह वही भूल है जो लेनिनवादी कम्युनिस्ट पार्टियाँ हर कहीं करती रही। यही भूल लंबे समय से हिन्दूवादी संगठन भी कर रहे हैं। अज्ञेय ने संभवतः इसी को लक्ष्य किया था।

यदि लक्ष्य राष्ट्रीय हित है, तब देश के हर क्षेत्र, हर विषय में सुयोग्य व्यक्तियों का सहयोग अथवा वास्तविक मार्गदर्शन लेना अपरिहार्य हो जाता है। चाहे वह दिवंगत महापुरुष हों या जीवित मनीषी। देश और समाज का हित तभी होगा जब साहित्य, कला, संस्कृति, अथवा सैनिक, विदेश नीति, आर्थिक नीति, शिक्षा नीति, आदि प्रत्येक क्षेत्र में सब से योग्य व्यक्तियों को उत्तरदायित्व सौंपा जाए, अथवा उन का वास्तविक सहयोग लिया जाए (केवल उसका दिखावा नहीं, जो कुछ हिन्दूवादी कार्यकर्ता अपनी चतुराई समझते हैं)। सरकार भी इसीलिए अपने बने-बनाए ढाँचे के बावजूद तरह-तरह के विशेषज्ञों, विद्वानों और जानकारों की सेवा लेती है। तब उन स्वयंसेवी संगठनों के लिए तो यह नितांत स्वभाविक होना चाहिए, जो पूरे देश की चिंता करते हैं। उन्हें किसी बने-बनाए ढाँचे या नियमों की बाधा भी नहीं है, जो सरकार या सरकारी संगठनों की होती है।

इसीलिए यदि कोई हिन्दूवादी संगठन देश की संस्कृति, शिक्षा या राजनीति की चिंता करते हुए केवल अपने सदस्यों या संगठन के अग्रजों को ही मार्गदर्शक मानता है, तो भारी भूल करता है। यदि अपने संगठन से बाहर के विद्वानों, लेखकों, संस्कृतिकर्मियों की उपेक्षा करता है तो और भी बड़ी भूल करता है। क्योंकि यह स्वयं उस के घोषित उद्देश्यों के लिए हानिकारक है। एक छोटे से संप्रदाय के रूप में सीमित क्रिया-कलाप तथा राष्ट्रीय लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए किए जाने वाले कार्यों में मूलभूत अंतर है। अधिकांश हिन्दूवादी संगठन चूँकि पूरे देश के लिए काम करने का लक्ष्य रखते हैं, अतः उन के निर्णयों में हर संकीर्णता वास्तविक कार्य को संकीर्ण बनाएगी। कथनी में देश, करनी में मात्र अपना संगठन – यह अंतर्विरोध ही उस बहिष्कारवादी मानसिकता का लक्षण है जिस की अज्ञेय ने आलोचना की थी। यह लज्जाजनक होता ही है कि जिससे आप सहानुभूति रखें, वह समाज में समुचित व्यवहार करना न जानता हो। ऊपर से अपनी पीठ स्वयं ठोकता हो। यह भी हिन्दू वल्गैरिटी ही है।

10 COMMENTS

  1. सुशांत जी से में पूर्णत सहमत हूँ , स्वामी विवेकानन्द जी ने पश्चिम को पूर्व से जोडने का दुष्कर कार्य किया पूरे संसार को एक नई दिशा दी ,संघ उन्ही से प्रेरणा प्राप्त करता हैं कोई भी कार्य हो अगर वह धरातल पर न हो, लोगो के जीवन का स्तर न सुधारे उसका कोई मतलब नहीं हैं. हम ये नहीं कहते कि विचार करना गलत हैं लेकिन विचारों के जंजाल में खो जाना सही नहीं हैं, आलोचना तो किसी कि भी हो सकती हैं हमारा देश हमारी संस्कृति सभी को अपने में विलीन करने कि क्षमता रखती हैं , और वह हैं हिंदुत्व , भारत में तर्क बहुत पहले से हैं चार्वाक ऋषि कहते थे कि ऋण लो और घी पियों …..वो इश्वर के अस्तित्व को ही नकारते थे और गुरूजी ने कहा हैं कि संघ को व्यवहार से ही जाना जा सकता हैं मेरा सभी विद्वानों से निवेदन हैं कि संघ कि शाखा में जाना प्रारंभ करें व समाज के उत्थान के हल के नजरिये से सोचे तो पाएंगे कि संघ सर्वोपरि हैं कौशलेन्द्र जी व विजय जी से मेरा अनुरोध हैं कि थोड़ा संघ का जमीनी स्तर पर अध्ययन करें ……जब आपातकाल लगा तो विद्यार्थी परिषद ही जय प्रकाश जी के आन्दोलन का मुख्य आधार थे जिसे हम लोग जे पी आन्दोलन के नाम से जानते हैं, अमरनाथ यात्रा विवाद संघ कि वजह से खत्म हुआ , राम सेतु कि रक्षा संघ ने की ,अन्ना के आन्दोलन में मूल रूप से संघ के ही कार्यकर्ता ही थे ……….बाद में जब अन्ना ने संघ के समर्थन से मना किया तो मुंबई का आन्दोलन फ्लॉप हो गया सांप्रदायिक एवं लक्षित हिंसा अधिनियम विधेयक संघ की वजह से रुका हुआ हैं और भी अनेकों …………..संघ के कार्य का आधार क्या हैं एक उद्धरण देता हूँ जब गाँधी जी की हत्या के आरोप में गुरूजी को कारावास में रखा गया तो कार्यकर्ताओ में आक्रोश था तो गुरूजी ने कहा कि अगर दांत जीभ को काट देता हैं तो दांत को तोडकर फेक थोड़े ही देते हैं .मित्रों बौद्धिक जुगालियाँ करना बहुत आसान हैं लेकिन लोगो को जोड़कर रखना बहुत दुष्कर हैं.

  2. आम तौर पर मैं शंकर शरण जी के लेखों को बहुत रुचि पूर्वक पढ़ता हूं और स्वयं को अधिकांशतः उनसे सहमत होता हुआ पाता हूं। पर इस आलेख में बहुत कुछ ऐसा है जिससे पूर्णतः सहमति नहीं हो पा रही है। संघ ने एक अद्‌भुत परिकल्पना दी है जिसका शायद शंकर शरण जी को पता नहीं है। स्वयंसेवकों से बात करते हुए संघ के सरसंघचालक स्व. श्री गुरुजी ने स्पष्ट किया था कि हम समाज का संगठन करने के लिये निकले हैं ऐसे में किसी भी व्यक्ति के प्रति द्वेषभाव लेकर चले तो सफल नहीं हो पायेंगे । श्री गुरुजी ने अपनी बात को आगे स्पष्ट करते हुए कहा था – “जो लोग हमारी विचारधारा से पूर्ण सहमति रखते हुए हमारा सहयोग कर रहे हैं – वे केन्द्रस्थ हैं। जो हमारे विचारों से सहानुभूति रखते हैं किन्तु अभी उनसे सिर्फ भावनात्मक सहयोग मिल रहा है, वे निकटस्थ हैं। कुछ ऐसे हैं जो न सहयोगी हैं व विरोधी हैं, उदासीन भाव ओढ़े हुए हैं – ऐसे लोग तटस्थ कहे जा सकते हैं । इस परिधि को भी पार कर जायें तो ऐसे लोग मिलेंगे जो हमारा विरोध करते हैं – इनको हमें दूरस्थ मानना चाहिये। एक संगठनकर्त्ता के रूप में हमारी दृष्टि यह होनी चाहिये कि दूरस्थ को क्रमशः तटस्थ, निकटस्थ से आगे लाते लाते केन्द्रस्थ की भूमिका में लाना है।

    मैं समझता हूं कि संघ के जो अधिकारी एवं स्वयंसेवक श्रीगुरुजी के द्वारा दी गई उक्त अवधारणा को ठीक प्रकार समझ नहीं पाये हैं या उसको अपने व्यवहार में नहीं उतार पाये हैं – उनको अज्ञानी कहा जा सकता है, किन्तु संगठन के रूप में यह संघ का दोष नहीं है। संघ की अवधारणा तो वही है जो श्री गुरुजी ने उक्त शब्दों में व्यक्त की थी।

    बहुत सारे लोग खाकी निकर पहन कर रोज शाखा जाते हैं किन्तु जीवन भर शाखा में जाकर भी संघ का तत्वबोध उनको ठीक से नहीं हो पाता। क्या ऐसे लोगों को संघ अपने संगठन से बाहर निकाल दे ? मेरे विचार से ऐसा करना उचित नहीं होगा। ऐसे लोगों के कारण हम संघ को दोष देने लगें तो क्या यह उचित होगा? मेरे विचार से तो नहीं !

    अन्त में, श्री गुरुजी ने एक बात जो और बार – बार कही वह ये कि समाज को महान बनाने का काम सिर्फ लेखों और भाषणों से नहीं हो सकता क्योंकि लेख पढ़ने से हमारे संस्कार नहीं बदलते। बच्चों को अनुशासन, सहयोग, सामंजस्य, आपस में भ्रातृभाव के संस्कार देने हैं तो उनके साथ नित्य खेल-कूद करना, कबड्डी खेलना, राष्ट्र की वन्दना करना आवश्यक है। संस्कार उसी दिनचर्या से पनपते हैं भाषण देने मात्र से नहीं !

    सुशान्त सिंहल

    • सुशान्त जी, इस लेख में ‘किसी भी व्यक्ति के प्रति द्वेषभाव लेकर’ चलने की कहाँ सलाह दी गई है? बात को सांस्कृतिक संगठन होने के दावे के साथ संस्कृति की दुर्बल चेतना की है। रा.स्व.संघ के सदस्य और मित्र इससे असहमत भी हो सकते हैं। किन्तु लेख तो मित्र-भाव से ही लिखा हुआ है। नहीं तो सुधार का सुझाव न होता।

      और ‘समाज को महान बनाने का काम सिर्फ केवल लेखों और भाषणों से नहीं हो सकता’ वाला कटाक्ष तो अनर्गल है। एक तो लेख में कहीं ऐसा दावा नहीं है। दूसरे, कलम के सिपाही को यह ताना देना अनुचित है वह संगठन क्यों नहीं बनाता। तीसरे, जिन संगठनकर्तांओं के बचाव में ऐसे ताने दिए जाते हैं, वह स्वयं क्या कर रहे हैं? अधिकांशतः तो उनकी ओर से केवल बयान ही आते हैं, सरकारी की आलोचना या इस या उस घटना की या प्रवृत्ति की निंदा या सामूहिक रूप से रोना-धोना। यह कौन सा महान कार्य है! कश्मीर से हिन्दू मार भगाए गए, जम्मू और लद्दाख वाले भारत से पूर्ण ऐक्य चाहते हैं, बंगाल की पूर्वी सीमा की जमीन किलोमीटर-दर-किलोमीटर बाहरी अतिक्रमणकारी छीनते जा रहे हैं, उत्तरी केरल में भारत से स्वतंत्र होने की सामाजिक-राजनीतिक भंगिमा बढ़ रही है …. ऐसी अनगिन चिन्ताओं पर पिछले कई दशकों से महान संगठनकर्ता क्या करते रहे हैं? केवल बयानबाजी ही न? भाषणबाजी तो वह है, न कि किसी लेखक का लिखना।

  3. अमिताभ के नाम से नवरत्न तेल भी बिक जाता है और अज्ञेय के नाम से अपनी पीड़ा भी सम्प्रेषित हो जाती है। शीर्षक आकर्षक है

  4. सचमुच बहुत अच्छा और आंखे खोल देने वाला लेख. धन्यवाद् शरण जी

  5. मैं राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का नाम लेकर स्पष्ट शब्दों में कह रहा हूँ कि इस हिंदूवादी संगठन के लिए आज से लगभग २५ वर्ष पूर्व मैंने यह कहा था कि यदि संघ के लोगों ने सतत आत्म निरीक्षण के द्वारा अपनी दृष्टि को विस्तृत नहीं किया तो एक दिन यह संगठन शून्य हो जाएगा.
    मैं इस लेख से पूरी तरह सहमत हूँ, हमारा विश्वास काम की अपेक्षा काम के पाखण्ड में अधिक है परिणामतः हमारे आदर्शों की शुचिता समाप्त हो गयी है. राष्ट्रवादी-हिंदूवादी संगठन के इतने वर्षों के दीर्घ कार्यकाल के बाद भी आज समाज में राष्ट्रवाद और हिन्दू अस्मिता की सुरक्षा का भाव कहीं दिखाई नहीं देता. हिन्दू आदर्शों के बखान के बाद भी बढ़ता भ्रष्टाचार एक अलग ही कहानी बयान करता है. महापुरुषों के नाम पर राजनीति या अखाड़ेबाजी का बाज़ार खूब बढ़ा है पर उनके आदर्शों का जीवन में अनुकरण और भी दूर होता चला गया है. निश्चित ही इस पाखण्ड को हिन्दू वल्गेरिटी कहा जा सकता है. यह विरोध नहीं खीज है.

  6. श्री शंकर शरण जी का यह लेख एक खास चश्मे को पहन कर लिखा गया है अज्ञेय तो पर्दा के रूप में प्रयोग में लाये गए है तमाम पार्टिया और संगठन सदैव अपने संगठन को ध्यान में रख कर देश और समाज के बारे में सोचते है और यह स्वाभाविक भी है क्यों कि राष्ट्र या देश और समाज एक अमूर्त अवधारणा है जब कि संगठन एक मूर्तरूप रूप अभिव्यक्ति है इसलिए सब से पहले नजर उधर ही जाएगी .अज्ञेय अभिजात्य मानसिकता से प्रेरित थे और ऐसा होना गलत भी नहीं है उनके उपन्यास शेखर एक जीवनी या फिर नदी के द्वीप से पता चलता है कि वे परम्परा को तोड़ने में भी नहीं हिचकते थे उनकी कविताये अधिकतर अमूर्त चित्रण को व्यक्त करती है मुझे बहुत अछे लगते है उन्होंने अपनी अभिजात्यता को सायास बनाये रखा
    जहाँ तक आप संपूर्ण रास्ट्रीय और सांस्कृतिक नजरिये कि बात करते है तो इसमें सभी संगठन चाहे वह वाम विचार धारा या कोई अन्य राष्ट्रवादी या मध्यमार्गी संगठन सर्व प्रथम अपनी ऑर ही पहले देखता है क्यों कि वहीँ से उसे उर्जा मिलती है मार्क्सवाद के नाम पर आप सोवियत रूस कि बहुत चर्चा करते है .द्वितीय विश्वयुद्ध में वहा कि साम्यवादी सरकार ने रुसी रास्त्रवाद को आधार बनाया था जो पहले भी नेपोलियन के आक्रमण समय हुआ जिसे लिओ तालस्ताय ने वार एंड पीस का विषय वस्तु बनाया तो कहने का अर्थ है कि सांगठनिक चेतना के समानांतर रास्ट्रीय चेतना भी रहती है वह सुप्त नहीं हो जाती है वह एक जातीय स्मृति के रूप में मौजूद रहती है मेरे ख्याल से सोवियत रूस का उदहारण सही होगा .साम्यवादी शाशन के पूर्व रूस एक अर्धविकसित सामंती व्यवस्था वाला कृषि प्रधान देश था पोलिटिकल सिस्टम बदल जाने से सामूहिक जातीय चेतना में कोई परिवर्तन नहीं हुआ जार कि जगह नये जार आ गए पार्टी लीडर के रूप में सामूहिक जातीय चेतना इतनी गहरी होती है कि उसे मिटा पाना आसान नहीं होता क्यों कि उसका सम्बन्ध अवचेतन मष्तिष्क से होता है उसे मिटा पाना असंभव है
    अज्ञेय जी वल्गेरिटी शब्द का प्रयोग मूल रूप में करते है तो सिर्फ इसलिए कि हिंदी में उसे व्यक्त उस सम्पूर्णता से नहीं किया जा सकता हो जैसा वह चाहते थे वर्तमान समय में तो यह ही सर्वत्र हमारे जीवन में फ़ैल गयी है सहजता छोड़ कर असहज पथ पर हमारा देश और समाज चल पड़ा है.
    बिपिन कुमार सिन्हा

  7. {{{{विगत वर्ष एक किंचित-एसियाई साहित्य सम्मेलन हुआ। यह एक हिन्दूवादी कहे जाने वाले संगठन का आयोजन था। जिस नगर में सम्मेलन आयोजित था, वहाँ हिन्दी साहित्य के कई अच्छे लेखक और विद्वान रहते हैं। उन में अनन्य साहित्यसेवी, वयोवृद्ध पर सक्रिय, तथा अनेक राष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित लेखक भी हैं। वे कोई हिन्दू-विरोधी या कट्टर वामपंथी भी नहीं हैं। उल्टे वामपंथी ही उन्हें ‘भगवा समर्थक’ कहकर लांछित करते रहे हैं। किंतु साहित्य के उस सम्मेलन में हिन्दूवादी आयोजकों ने उन्हें भागीदार बनाना जरूरी नहीं समझा – पहले से ध्यान दिलाने पर भी नहीं। इस के बदले ‘अपने’ समझे जाने वाले कई मामूली टिप्पणीकारों, प्रचारकों, कार्यकर्ताओं तक को उस में सादर मंच दिया। यह वही अशोभन मानसिकता है जो वास्तविक कार्य के बदले उस की ‘फोटो’ या अपने कार्य के अपने ही लिखे प्रशंसनीय विवरण, समाचार को ही लक्ष्य मानती है। }}}
    मैं इससे पूर्णत: सहमत हूँ की कार्यकर्ता को अपनी फोटु या प्रसशा के बारे मे ज्यादा चिंतित ना होना चाहिए ना इच्छा भी करनी चाहिए लेकिन किसे बुलाना है किसे नहीं बुलाना ये संघठन अपने पराए के भाव से नहीं तय करता है बहुधा व्यक्तिगत परिचय के ऊपर ही निर्भर करता है जैसे की कोई कार्यक्रम तय हुवा उसकी रूप रेखा तय हुयी है स्वरूप तय हुवा अब अम्नत्रित महानुभावों की सूची बनाते समय कार्यकर्ता सबसे पहले उस कार्यक्रम से संघठन काम को होने वाले अप्रत्यक्ष लाभ को देखता है ये उसे आप उसका स्वार्थ कह दो पर मात्र खाना पूर्ति करने के लिए ही कोई कार्यक्र्म ना है आने वाला व्यक्ति संघ से जुड़ेगा या हिन्दू विचार से भी जुड़ेगा ये ही तो देखना है न पहले???या आप कहना चाहते है की नहीं सबको बुलाओ????अरे भाई सहाब कार्यक्रम की आवश्यकता अनुसार ही लोगो का चयन किया जाएगा ,हा मान लीजिये किसी को ना बुलाया व वह खुद आकार उलाहना देगा की आपने हमे भी क्यो नहीं बुलाया तो ये उस समय के आयोजना करता की गलती अवश्य है पर संघ के लिए बहुत शुभ संकेत है या जैसा आप कह रहे है की एसे बुद्धिजीवी आ सकते थे पर उनको बुलाया ही नहीं गया क्योकि वो संघठन के नहीं थे पर संघठन से सहानुभूति रखने वाले या विरोधी नहीं थे तो ये आयोजको की थोड़ी सी गलती ही है लेकिन संघठन की योजना नहीं ,प्रत्येक सज्जन्न को अपने से जोड़ना ही तो संघठन का काम है मुझे एसा लगता है उक्त घटना क्रम मे कोई उपयुक्त व्यक्ति नहीं मिला होगा जो सीधा जा कर आम्न्तृत कर सके ,बाकी बहिष्कार वाली कोई बात नहीं है

  8. “राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ… स्वयं अपने दावे के अनुसार एक सांस्कृतिक संगठन है (किन्तु)…उसने धर्म संस्कार की रक्षा के मामले में एक आक्रामक नहीं तो संघर्षशील प्रवृत्ति को तो उकसाया, लेकिन संस्कृति के प्रति गौरव का भाव उस ने भी नहीं जगाया। संस्कृति के लिए हम लड़ें तो, मगर वह संस्कृति अभिमान के योग्य भी हो, यह आवश्यक नहीं है! ऐसी मानसिकता की कार्यक्षमता कितनी होगी यह सहज ही सोचा जा सकता है।”

    शब्दो की बाजीगरी बहुत होती है व वास्तविक काम कम,आप को एक बात बताता हूँ मेने कुछ समय पहले ही सुना था की ये महान कवि अज्ञेय जी हमारे जोधपुर मे भी रहे थे पर मुझे नहीं पता ,चलो मैं तो ठहरा विज्ञान का विध्यार्थी हिन्दी वाले से पूछा …………..पता नहीं उसे भी क्यो????????ओर संघ को ????उत्तर आपको भी पता होगा |क्या कारण है की बहुत विद्धत्ता होते हौवे भी भारत का भट्टा बैठ गया???संघ ओर विद्धत्ता अलग है दोनों को मिक्स मत करिए संघ मे सब है जहा अतिविद्धन है तो एकदम गुरुघंटाल भी बहुत पढे लिखे है तो बहुत अनपढ़ भी मूल बात ये है की वो कितने प्रामाणिक है अपने कार्य मे???
    ये अज्ञेय जी महाराज खुद क्यो नहीं खड़ा कर दिये एक संघ से भी अच्छा संघथन???आपके विचार ठीक ही है आपके स्तर पर एक बार संघ दृष्टि से सोचिए |
    उन बड़े नामो बड़े लोगो से क्या करना जो अपने अंहकार मे ही डुबे रहे व समाज कार्य के लिए समय भी ना दे व बदले मे समाज से ये अपेकषा भी करे की समाज उन्हे अपने सर पर बिठयेगा ????क्या ये बड़े बड़े नाम या बड़े बड़े साहित्य कार एक छोटे से अनपढ़ गंवार किस्म के आदमी को भी साथ लेकर चलेंगे???क्या साहित्य सम्मेलनों के दम पर बुद्धिजीवी का ठेका लेने वाले समाज को कितना रक्षण करते है बताएँगे आप??आप बताएँगे की कितने लोग आज अज्ञेय को पढ़ते है व कितने लोग दंतोपंत जी को पढ़ते है???अज्ञेय जी को पढ़ने वाले पाठक व ठेगड़ी जो को पढ़ने वाले कार्यकर्ता ,दोनों ही पाठक है पर मेने जान बुझ कर शब्द अलग लिखा कार्यकर्ता का सीधा जुड़ाव समाज से है पर पाठक समाज के एक बड़े वर्ग को समझने न आ सकने वाले लेखको को पढ़ कर बुद्धि जीवी का खिताब लेकर अधिकांश लोगो के माथे बैठने का काम ही करेगा संघथन का काम नहीं ,उसे सममान्न चाहिए उसे मंच चाहिए उसे माला चाहिए उसे चमचे चाहिए संघठन थोड़ी चाहिए एसो बोझो को न बुला कर संघ ने बहुत बड़ा अहसान ही किया है उन पर |
    संघ गंगा है जो एक उज्जड़ ठोस पत्थर को शिव लिंग बना देता है प्रत्येक स्वयंसेवक के मन मे अपनी संस्कृति के प्रति निष्ठा व पालन करने की आग लगा देता है जिसको करने मे लाखो अज्ञेय कम पड़ जाते है अज्ञेय विचार कर सकता है नया संदेश भी दे सकता है पर संघ ही है जो पूरे समाज को उस विचार के प्रति आगे ले जा सकता है अज्ञेय सिर्फ थ्योरी है संघ थ्योरी प्रैक्टिकल व नया अनुसंधान भी है
    अज्ञेय निराला आदि महान पुरुष है पर एसे महान लोग तो पहले भी थे उनके होते हौवे भी देश का सत्यानाश ही हौवा क्योकि ये महान लोग अपनी महानता के जड़ मे सर्व साधारण को अपने से जोड़ना भूल गए या यो कहे की समाज तो इनकी नजरो मे कुछ था ही नहीं जो थे वो ये ही नतीजा????जबकि संघ कहता है की प्रत्येक को जोड़ेंगे छोटे से बड़े से गरीब से अमीर से साहित्य कार से निरे मजदूर से सबसे प्रेम से मिल कर सबको अपने से जोड़ कर इस महान राष्ट्र को खड़ा करना है मुझे क्षमा करे बुद्धिजीवी ईसा नहीं सोचते है ना ही करते है वो अपनी जकड़न मे कैद है संघ उपदेश झाड़ते है ईएसए होना चाहिए वैसा होना चाहिए ये किया वो किया पर जब हम निवेदन करते है की आइए आप करिए तो किसी के पास समय नहीं है तो किसी को अपनी साधना की चिंता है तो किसी को संघ का ठप्पा लगने का ड़र, क्यो भाई साहब???
    हवन कराते हौवे साधक नहीं बनना चाहते है हा हवन का लाभ मिलता रहे बराबर ,क्या साहित्यकार एसा नहीं सोचते आज कल???

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