मनोज ज्वाला

तेलंगाना में दुष्कर्म के आरोपित अपराधियों को पुलिसकर्मियों द्वारा मुठभेड़ में मार देने के मामले पर देशभर में बहस-विमर्श छिड़ा हुआ है। आम जनता के बीच में भी तरह-तरह की प्रतिक्रियायें हो रही हैं। इनके कई अर्थ हैं। एक तो यह कि जिस प्रकार बहुत वर्षों से ठहरा हुआ पानी जहरीला हो जाता है, उसी प्रकार अच्छा से अच्छा कानून भी अगर क्रियान्वित न हो तो उसकी उपयोगिता व्यर्थ हो जाती है। फिर तो उस ठहराव-बंध को काटकर ठहरे हुए पानी को प्रवाहित कर देना और वैसे ठहराव की पुनरावृति न होने देना जरूरी हो जाता है।तेलंगाना मुठभेड़ मामले के समर्थन में जनता की बातें उसी ठहरे हुए पानी और ठिठके हुए कानून की त्रासदी से निर्मित प्रतीत होती हैं। कहने को तो दुष्कर्मियों के लिए फांसी की सजा का कानून है। किन्तु, वह अदालत की चौखट के भीतर ही शोभायमान है। दिसम्बर 2012 में हुए निर्भया कांड के गुनहगारों को अदालत ने फांसी की सजा मुकर्रर तो कर दी है, किन्तु उसका क्रियान्वयन आज तक नहीं हो सका है। कारण बताया जा रहा है कि दोषियों में से एक ने सजा माफ करने के लिए राष्ट्रपति के पास दया-याचिका भेज रखी है। हमारे देश के कानून में ऐसा प्रावधान है कि एक ही मामले के अनेक अभियुक्तों में से किसी एक अभियुक्त की भी दया-याचिका लम्बित रहने पर शेष अभियुक्तों को भी तब तक फांसी नहीं दी जा सकती जब तक उस याचिका का निबटारा न हो जाए। ऐसे में सवाल यह है कि जिन शेष अभियुक्तों को किसी तरह की ‘दया’ चाहिए ही नहीं अर्थात जिन्हें फांसी की सजा स्वीकार है, उनकी सजा को टाले रखने का कानूनी प्रावधान आखिर क्यों है? इस पर महामहिम राष्ट्रपति महोदय ने भी चिंता जताते हुए कहा है कि नाबालिग के दुष्कर्मियों को दया मांगने और उन्हें दया प्रदान करने का विकल्प ही नहीं रहना चाहिए। उन्होंने संसद से इस बाबत कानून बनाने की मांग भी की है। मालूम हो कि निर्भया कांड के बाद 3 फरवरी 2013 को केन्द्र सरकार ने आपराधिक कानून संशोधन अध्यादेश जारी किया था। उसके तहत भारतीय दण्ड विधान संहिता की धारा 181 और 182 में बदलाव कर बलात्कार से जुड़े कानूनों को कड़ा किया गया था। बलात्कारियों को फांसी की सजा का भी प्रावधान किया गया था। फिर 22 दिसम्बर 2015 को राज्यसभा में ‘किशोर न्याय विधेयक’ पारित कर ऐसा प्रावधान किया गया कि 16 साल या उससे अधिक उम्र के किशोर को जघन्य अपराध करने पर वयस्क मानकर मुकदमा चलाया जाएगा। बलात्कार एवं बलात्कार से हुई मृत्यु तथा सामूहिक बलात्कार और एसिड हमला जैसे महिलाओं के साथ होने वाले अपराध ‘जघन्य अपराध’ की श्रेणी में लाए गए थे।पूरे देश को झकझोर देने वाले निर्भया कांड के बाद केंद्र सरकार ने दुष्कर्म मामलों के शीघ्र निष्पादन हेतु लगभग 400 करोड़ की लागत से देशभर में 1700 से अधिक त्वरित अदालतों का गठन किया था। देश के लगभग हर जिले में औसतन पांच ऐसी अदालतों का गठन किया जा चुका है। तब भी नेशनल क्राइम रिसर्च ब्यूरो (एनसीआरबी) की रिपोर्ट के अनुसार देशभर के उच्च न्यायालयों में दुष्कर्म के 31 हजार से ज्यादा मामले लम्बित पड़े हुए हैं। जबकि देश की निचली अदालतों में 95 हजार से ज्यादा महिलाओं को न्याय का इंतजार है।त्वरित अदालतों में ऐसे मुकदमे का निष्पादन छह महीने से एक साल के भीतर कर देने का प्रावधान है। लेकिन यह प्रावधान क्रियान्वित नहीं हो पा रहा है। इसका बड़ा करण यह है कि इन अदालतों में ऐसे मामलों के निष्पादन हेतु अलग से न्यायाधीश नियुक्त नहीं किये जा सके हैं। सामान्य अदालतों के न्यायाधीशों को ही त्वरित अदालत का अतिरिक्त प्रभार दे दिया गया है।
दुष्कर्म जैसे जघन्य मामलों के लंबित होने का एक अहम कारण अधीनस्थ अदालतों में न्यायाधीशों की कमी है। एक रिपोर्ट के अनुसार, उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों के पांच हजार से भी अधिक पद रिक्त हैं। झारखण्ड, बिहार, उत्तर प्रदेश व गुजरात की जिला अदालतों में न्यायाधीशों की भारी कमी वर्षों से दर्ज की जाती रही है। सर्वोच्च न्यायालय में हाल तक बाल दुष्कर्म के 150332 मामले लंबित थे। इस प्रकार के मामलों के निपटान की वार्षिक दर महज नौ फीसदी ही रही है। पोक्सो कानून (प्रोटेक्शन ऑफ चिल्ड्रेन फ्रॉम सेक्सुअल ऑफेंस एक्ट) को लागू हुए सात साल बीत जाने के बावजूद अभी देश में डाटा प्रबंधन प्रणाली या एमआईएस (प्रबंधन सूचना प्रणाली) दुरुस्त करना बाकी है। समस्या की गंभीरता के बावजूद केंद्र और राज्यों सरकारों ने बाल दुष्कर्म सम्बन्धी मामलों के सुनियोजित निष्पादन की व्यवस्था नहीं बनाई है। जबकि, न्यायाधीशों के पास अन्य मामलों का भी बोझ बरकरार है। ऐसी स्थिति में पृथक ‘पोक्सो अदालत’ और तत्सम्बन्धी अतिरिक्त न्यायाधीशों की आवश्यकता है। यह तथ्य तो सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई भी स्वीकार कर चुके हैं कि ‘देश में आपराधिक मामले न्यायाधीशों की क्षमता से बहुत अधिक हैं।’रांची उच्च न्यायालय के एक अधिवक्ता बताते हैं कि फास्ट ट्रैक कोर्ट में बलात्कार के मामलों का कितने समय में निपटारा हो, इसका निर्धारण अदालतों से ज्यादा आरोपितों व गवाहों की संख्या पर निर्भर करता है। अगर, आरोपित एक से अधिक हैं तो उनके वकील भी अधिक होंगे और कानून हर वकील को अलग से बचाव की दलीलें प्रस्तुत करने का अधिकार देता है। फिर किसी निर्दोष को सजा न मिल जाए इस कारण गवाहों और सबूतों को जुटाने में काफी समय व्यतीत हो जाता है। यहां तक तो बात समझ में आती है। लेकिन दुष्कर्मियों को भीड़ के हवाले कर देने अथवा उन्हें बिना किसी वकील-दलील के ही सीधे-सीधे गोली मार देने अथवा पुलिसिया-मुठभेड़ का समर्थन कर देने वाले सामान्य नागरिकों को यह बात समझ में नहीं आती कि ऐसे जिन मामलों में अपराधियों द्वारा ही अपने अपराध स्वीकार कर लिए जाते हैं, उनके अपराध को प्रमाणित करने अथवा उन्हें दोषी-अपराधी मान लेने और तदनुसार सजा देने में न्यायालय द्वारा आखिर अप्रत्याशित विलम्ब क्यों किया जाता है? अपराधी ने जब अपना अपराध स्वीकार कर लिया तब सक्षम न्यायाधीश के समक्ष उसका स्वीकारोक्ति-बयान दर्ज करा लेने के उपरांत तत्क्षण उसकी सजा क्यों नहीं मुकर्रर कर दी जाती है? अपराधी ने जब अपराध स्वीकार कर लिया तब उसे उसकी न्यायोचित सजा से बच निकलने का अवसर देना और सुविधायें प्रदान करना व्यवस्था के प्रति असंतोष का बड़ा कारण है।
दरअसल, हमारे देश की वर्तमान दण्ड संहिता (आईपीसी) ही दोषियों-अपराधियों को दण्डित करने की बजाय उन्हें निर्दोष प्रमाणित करने अथवा सजा से बचने की सुविधायें प्रदान करने के अवांचित आदर्शवाद पर कायम है। यह बड़ी त्रासदी है। इसी कारण दुष्कर्मियों को मिलने वाली वांछित सजा टलते रहती है और इसी कारण न्यायिक व्यवस्था के प्रति आम जन का विश्वास नकारात्मक होता जा रहा है। जघन्य अपराधों की कठोर सजा का कानून तो है किन्तु वह क्रियान्वित होने की बजाय अदालतों की देहरी के भीतर ठिठका हुआ है। फलतः समाज में जहर फैलता जा रहा है। देश के नीति-नियन्ताओं को दुष्कर्मियों-अपराधियों को सजा दिलाने के लिए ठिठके हुए कानून को क्रियान्वित करने की व्यवस्था कायम करनी होंगी। अन्यथा, ऐसे कानून को हाथ में लेकर उसे दौड़ाने के लिए एक न एक दिन जनता ही दौड़ पड़ेगी।