बिरथ आडवाणी की बेबसी !

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यात्री के हौसलों को सलाम कीजिए

 संजय द्विवेदी

जिस आयु में लोग डाक्टरों की सलाहों और अस्पताल की निगरानी में ज्यादा वक्त काटना चाहते हैं, उस दौर में लालकृष्ण आडवानी ही हिंदुस्तान की सड़कों पर सातवीं बार देश को मथने-झकझोरने-ललकारने के लिए निकल सकते हैं। वे इस बार भी निकले और पूरे युवकोचित उत्साह के साथ निकले। परिवार और पार्टी की सलाहों, मीडिया की फुसफुसाहटों को छोड़िए, उस हौसले को सलाम कीजिए, जो इन विमर्शों को काफी पीछे छोड़ आया है।

प्रधानमंत्री पद के दावेदारों के बीच उनका नाम वैसे भी सर्वोच्च है, यह यात्रा एक राजनीतिक प्रसंग है, जिसे ऐसी बातों से हल्का न कीजिए। बस यह देखिए कि अन्ना हजारे, रामदेव और श्रीश्री रविशंकर के अराजनीतिक हस्तक्षेपों के बीच भ्रष्टाचार के खिलाफ के यह अकेली सबसे प्रखर राजनीतिक आवाज है। यह उस पार्टी के लिए भी एक पाठ है जो भावनात्मक सवालों के इर्द-गिर्द ही अपना जनाधार खोजती है। आडवानी की यह सातवीं यात्रा थी, जिसमें वे देश के सबसे ज्वलंत प्रश्न पर बात कर रहे थे। यह इसलिए भी क्योंकि इस सवाल पर उनकी खुद की पार्टी भी बहुत सहज नहीं है। उनकी इस यात्रा को प्रारंभ से झटके लगने शुरू हो गए, क्योंकि एक राजनीतिक वर्ग और मीडिया का एक बड़ा हिस्सा उनके इस प्रयास को 7- रेसकोर्स की तैयारी के रूप में देख रहा था। इससे यात्रा के प्रभाव को कम करने और आडवाणी के कद के नापने की कोशिशें हुयीं। जो निश्चय ही इस यात्रा के आभामंडल को कम करने वाले साबित हुए। आडवाणी जी अब जबकि 40 दिनों में 22 राज्यों की यात्रा कर लौट आए हैं तब सवाल यह उठता है कि आखिर इस यात्रा से इतनी घबराहटें क्यों थीं? क्या यात्रा के लिए जो समय, स्थान और विषय चुने गए वह ठीक नहीं थे? क्या अराजनीतिक क्षेत्र को भ्रष्टाचार के खिलाफ पूरी पहल सौंप देना और मुख्य विपक्षी दल के नाते भाजपा का कोई हस्तक्षेप न करना उचित होता ?

एक राजनीतिक दल के सर्वोच्च नेता होने के नाते आडवाणी ने जो किया, वह वास्तव में साहसिक और सुनियोजित यत्न था। किंतु अनेक तरीके से उनकी यात्रा से उपजे सवालों के बजाए, वही सवाल उठाए गए, जिसमें मीडिया रस ले सकता था, या भाजपा की अंतर्कलह को स्थापित की जा सकती थी। भाजपा में लालकृष्ण आडवानी का जो कद और प्रतिष्ठा है उसके मुकाबले वास्तव में कोई नेता नहीं हैं, क्योंकि आडवानी ही इस नई भाजपा के शिल्पकार हैं। उनके प्रयत्नों ने ही देश की एक सामान्य सी पार्टी को सर्वाधिक जनाधारवाली पार्टी में तब्दील कर दिया। भाजपा का भौगोलिक और वैचारिक विस्तार भी उनके ही प्रयत्नों की देन है। अटलबिहारी वाजपेयी के रूप में जहां भाजपा के पास एक ऐसा नेता मौजूद था, जिसने संसद के अंदर-बाहर पार्टी को व्यापकता और स्वीकृति दिलाई, वहीं आडवाणी ने इस जनाधार में काडर खोजने व खड़ा करने का काम किया। अटल जी की व्यापक लोकस्वीकृति और आडवाणी का संगठन कौशल मिलकर जहां भाजपा को शिखर तक ले जानेवाले साबित हुए वहीं केंद्र में उसकी सरकार बनने से वह सत्ता का दल भी बन सकी। भाजपा का केंद्रीय सत्ता में आना एक ऐसा सपना था जिसका इंतजार उसका काडर सालों से कर रहा था। 1984 के चुनाव में मात्र दो लोकसभा सदस्यों के साथ संसद में प्रवेश करनी वाली भाजपा अगर आज देश का मुख्य विपक्षी दल है तो इसकी कल्पना आप आडवाणी को माइनस करके नहीं कर सकते।

रामरथ यात्रा के माध्यम से पहली बार देश की जनता के बीच गए लालकृष्ण आडवाणी की, देश को झकझोरने की यह कोशिशें तब से जारी हैं। 1990 की राम रथ यात्रा का यह यात्री लगातार देश को मथ रहा है। उसके बाद जनादेश यात्रा, सुराज यात्रा, स्वर्णजयंती यात्रा, भारत उदय यात्रा, भारत सुरक्षा यात्रा, जनचेतना यात्रा की पहल बताती है कि आडवाणी अपने दल के विचार को जनता के बीच ले जाने के लिए किस तरह की वैचारिक छटपटाहट के शिकार हैं। वे जनप्रबोधन का कोई अवसर नहीं छोड़ते। राममंदिर के बहाने छद्मधर्मनिरपेक्षता पर उनके द्वारा किए जाने वाले वाचिक हमलों को याद कीजिए और यह भी सोचिए कि वे किस तरह देश को अपनी बात से सहमत करते हुए सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का पाठ पढ़ाते हैं। वे जनता के साथ सीधे संवाद में अटलबिहारी वाजपेयी की तरह शब्दों के जादूगर भले न हों किंतु उनकी बात नीचे तक पहुंची और स्वीकारी गयी। क्योंकि वाणी और कर्म का साम्य उनमें बेतरह झलकता है। इसलिए जब वे कुछ कहते हैं, तो सामान्य प्रबोधन की शैली के बावजूद उनको ध्यान से सुना जाता है। वे लापरवाही से सुने जा सकने वाले नेता नहीं हैं। वे प्रबोधन के कलाकार हैं। वे विचार का पाठ पढ़ाते हैं और देश को अपने साथ लेना चाहते हैं। उनके पाठ इसलिए मन में उतरते हैं और जगह बनाते हैं।

अपनी वैचारिक दृढ़ता के नाते वे भाजपा के सबसे कद्दावर नेता ही नहीं, आरएसएस के भी लंबे समय तक चहेते बने रहे। क्योंकि वे स्वयं भाजपा का सबसे प्रामाणिक और वैचारिक पाठ थे। वे दल की विचारधारा और संगठन की मूल वृत्ति के प्रतिनिधि थे। अटलबिहारी वाजपेयी जहां अपनी व्यापक लोकछवि के चलते पार्टी का सबसे जनाधार वाला चेहरा बने वहीं, आडवानी विचार के प्रति निष्ठा के नाते दल का संगठनात्मक चेहरा बन गए, विचार पुरूष बन गए। पाकिस्तान में जिन्ना की मजार पर जो कुछ उन्होंने लिखा और कहा, कल्पना कीजिए यह काम अटलबिहारी वाजपेयी ने किया होता तो क्या इसकी इस तरह चर्चा होती। शायद नहीं, क्योंकि उनकी छवि एक ऐसे भावुक-संवेदनशील नेता की थी जिसके लिए अपनी भावनाओं के उद्वेग को रोक पाना संभव नहीं होता था। किंतु आडवानी में संघ परिवार एक सावधान स्वयंसेवक, नपा-तुला बोलने वाला,पार्टी की वैचारिक लाईन को आगे बढ़ाने वाला, उस पर डटकर खड़ा होने वाले व्यक्ति की छवि देखता था। किंतु पाकिस्तान यात्रा ने कई भ्रम खड़े कर दिए। आडवानी का पारंपरिक आभामंडल दरक चुका था। वे आंखों के तारे नहीं रहे। यह क्यों हुआ, यह एक लंबी कहानी है। किंतु समय ने साबित किया कि किस तरह एक विचारपुरूष और संगठन पुरूष स्वयं अपने बनाए मानकों का ही शिकार हो जाता है। विचार के प्रति दृढ़ता और विचारधारा के प्रति आग्रह आडवानी ने ही अपने दल को सिखाया था, पाकिस्तान से लौटे तो यह फार्मूला उन पर ही आजमाया गया, उन्हें पद छोड़ना पड़ा। किंतु आडवानी की जिजीविषा और दल के लिए उनका समर्पण बार-बार उन्हें मुख्यधारा में ले आता है। वे पार्टी की तरफ से 2009 में प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार बनाए गए। पार्टी चुनाव हारी। चुनाव में हार-जीत बड़ी बात नहीं किंतु यह दूसरी हार(2004 और 2009) भाजपा पचा नहीं पायी। इसने पूरे दल के आत्मविश्वास को हिलाकर रख दिया। दिल्ली के स्तर पर परिवर्तन हुए, एक नई युवा भाजपा बनाने की कोशिशें भी हुयीं। किंतु आडवाणी की लंबी छाया से पार्टी का मुक्त होना संभव कहां था। सो उनकी छाया से मुक्त होने के प्रयासों ने विग्रहों को और बल दिया। आडवाणी मुख्यधारा में रहे हैं, नेपथ्य में रहना उन्हें नहीं आता। बस संकट यह है कि अटलबिहारी वाजपेयी के पास लालकृष्ण आडवानी थे किंतु जब आडवानी मैदान में थे तो उनके पास और पीछे कोई नहीं था। यह आडवानी की बेबसी भी है और पार्टी की भी। इसी बेबसी ने भाजपा और उसके रथयात्री को सत्ता के रथ से विरथ किया। किंतु आडवानी इस राजनीतिक बियाबान में भी अपनी कहने और सुनाने के लिए निकल पड़ते हैं,पार्टी पीछे से आती है, परिवार भी पीछे से आता है। किंतु कल्पना कीजिए इस यात्रा में अगर आडवाणी सरीखा उत्साह पूरा दल और संघ परिवार दिखा पाता तो क्या यह अकेली यात्रा पूरी सरकार पर भारी नहीं पड़ती। अन्ना और रामदेव के आंदोलनों को परोक्ष मदद देने के आरोपों से घिरा परिवार अगर आडवाणी की इस यात्रा में प्रत्यक्ष आकर वातावरण बनाता तो जाहिर तौर पर मीडिया को इस यात्रा से उपजे सवालों को नजरंदाज करने का अवकाश नहीं मिलता। किंतु विग्रह की खबरों के बीच इस यात्रा में उठाए जा रहे बड़े सवाल हवा हो गए। आडवाणी रथ पर थे, जनता भी साथ थी किंतु उनके द्वारा उठाए गए मुद्दों के बजाए मोदी-आडवानी की दूरियां सुर्खियां बनीं। एक बेहद महत्वाकांक्षी राजनीतिक अभियान की यह बेबसी वास्तव में त्रासद है, किंतु लालकृष्ण आडवानी की इस बात के लिए तारीफ की जानी चाहिए वे अपनी बात कहने-सुनाने के लिए इस गगनविहारी और फाइवस्टारी राजनीति के दौर में भी सड़क के रास्ते जनता के पास जाने का हौसला रखते हैं। किसी गांव में जाने पर राहुल गांधी पर बलिहारी हो जाने वाले मीडिया को इस अनथक यात्री को हौसलों पर कुछ रौशनी जरूर डालनी चाहिए। यह भी सवाल उठाना चाहिए कि क्या आने वाले समय में हमारे राजनेता ऐसी कठिन यात्राओं के लिए हिम्मत जुटा पाएंगे।

17 COMMENTS

  1. आडवाणी को पहले कट्टर और वाजपेयी को उदार माना जाता था। अब आडवाणी भाजपा के सबसे उदार और मोदी सबसे कट्टर चेहरा हैं। इसी तथ्य के आलोक में मोदी गठबंधन सरकार में टॉप-४ के मंत्रालय पाने से भी वंचित हो सकते हैं। जबकि अधिकतम दलों के गठबंधन चलाने का बूता अकेले रखने के कारण आडवाणी भाजपा गठबंधन में पीएम हो सकते हैं। संघ की गठबंधन सरकार में कुछ चलेगी नहीं। पूर्ण बहुमत बहुत दूर है।

  2. संजय जी आप, सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के पुजारी श्री लाल कृष्ण आडवाणी जी को बहुत सरल और सहज तरीके से आम जन के बीच प्रस्तुत किया
    आप बहधाई के पात्र है

  3. इतने कम समय में, इतनी सारी प्रशंसात्मक टिप्पणियां आपके लेख पर आना, अपने आप में एक विक्रम है। और अडवानी जी के पक्ष में, पुरस्कार का प्रमाण भी है।

  4. आज आडवानी उन दुर्लभ राष्ट्रीय नेताओं में से एक हैं जिन पर कोइ दाग नहीं है. ना भ्रष्टाचार का ना भाई-भतीजावाद का. उनके कद का देश में कोइ नेता नहीं है. ना भाजपा में ना कोंग्रेस या अन्य दल में. लेकिन वाम और वंश की अराधना में लिप्त मीडिया हमेशा कोंग्रेस और कम्यूनिस्टो के इशारे पर आडवानी की छवि खराब करने का प्रयास करता रहता है.

  5. वाकई आडवाणी होने का अर्थ राजनीती करने वालों को तलाशना होगा, तमाम विरोधाभासो के बाद भी राजनीत में अपना अलग स्थान बनाए रखना एक अनोखा और विश्लेषण करने का विषय है. यही औरों से जुदा करता है. कितने नेताओं में हिम्मत है कि वे भ्रष्टाचार जैसे जघन्य मुद्दे पर जनता से सीधे संवाद स्थापित कर सकें….
    एक व्यक्तित्व को विश्लेषित करने के साथ नए पहलुओं को छूता बेहतरीन आलेख..बधाई

  6. आपके लेख से सोच को नई दिशा मिली. राहुल गाँधी के पूर्वनियोजित नाटक को जहाँ मीडिया लगातार कवरेज़ दे रही है वही ना जाने क्यों देश के सबसे ज्वलंत मुद्दे पर निकाली गयी उक्त यात्रा वांछित सफलता प्राप्त नहीं कर सकी.

  7. bhut sahi tippadi kari hai aap ne, waise ab waqt aa gaya hai ki is desh ke nagrik jaage aur desh ek nayi sarkar de jo atleast corruption se dur ho. waise main aapki lakhni ka phele se hi kayal tha, par ye mera badluck hai ki kanpur mein hone ki wajah se aapko अब जायदा पद नही पता hu

  8. वास्तव में आप के लेख ने अडवाणी जी की यात्रा के विषय में सोचने की एक अलग दिशा दी है…. अडवाणी की यात्रा उन सभी नेताओं को करार जवाब है जो सिर्फ पहले से तैयार नाटक का अभिनय करते है… जैसा की आप जानते है इस समय भी एक बड़ी पार्टी का नेता बाराबंकी से अभिनय से आरंभ कार चूका है…!!

  9. सब को देखा बार-बार हुम्कोदेखो एक बार का नारा देकर सत्ता पाने पर ये बी. जे. पि. भी कुटिलता में किसी से कम न निकली जनता सब को खूब देख चुकी है पर बेबस है व्यवस्था से जिसमे अछे लोगों के राजनीती में आने की कोई व्यावार्रिक गुंजाईश है ही नहीं …भारतियों के भाग्य में न जाने इस नै गुलामी को कब तक झेलना होगा व् ब्रष्ठ और गुंडों के आधीन कब तक पिसते रहना पड़ेगा ….क्या हम आजाद हैं.????

  10. आडवानी जी व्यक्तिगत रूप से बेशक निष्कलंक और इमानदार है | लेकिन भ्रष्टाचार के खिलाफ इस यात्रा की कमान कर्णाटक भाजपा के सबसे भ्रष्ट नेता को देकर भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई की बात समझ नहीं आती है !
    भाजपा के अन्दर आदवनी जी को जाते-जाते कूड़ा -कचड़ा साफ़ करने पर अधिक ध्यान देना चाहिए | ये सब इसलिए क्योंकि मैं भाजपा से उम्मीद करता हूँ |

  11. बड़ी ही विद्वता के साथ आपने यह लेख पोस्ट किया है. मै कहूँगा की यह लेख बहुत ही सकारात्मक सोंच के साथ है , साथ ही आडवानी जी के प्रति मीडिया की जो राय सामने आ रही है उससे अलग यह लेख सकारात्मक है.

  12. यह सही कह रहे हैं कि इस उम्र में भी वे एक युवा की तरह लम्बी यात्रा पर निकले। वे भाजपा के भीष्म हैं। समस्या है कि वे इससे ज्यादा कुछ बिना यात्रा निकाल सकते थे। वे अपने चहेते मुख्यमंत्रियों व भाजपा सरकार के मंत्रियों को शुचिता का पाठ पढ़ा सकते हैं और अपनी विश्वसनीयता गहरी बना सकते हैं। अफसोस यह नहीं कर रहे। आपने अपने लेख में इन कुछ बिंदुओं को उभारा है, आपकी अधिकतर बातें सहमत होने योग्य है। आपका लिखा पढ़ने से सोचने की कुछ नई दिशाएं ही मिलती है, सदैव।

  13. आप के लेख ने वास्तव में, मेरा अडवानी जी के प्रति झुकाव बढाया | यह ८४ वर्ष का युवा है|
    इश्वर उन्हें भारत माता की सेवामें दीर्घायु प्रदान करें|
    धन्यवाद द्विवेदी जी |

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