संदर्भः उत्तराखंड में बादल फटने से हुई ताबाही
प्रमोद भार्गव
भारतीय दर्शन के अनुसार मानव सभ्यता का विकास हिमालय और उसकी नदी-घाटियों से माना जाता है। ऋषि -कश्यप और उनकी दिति-अदिति नाम की पत्नियों से मनुष्य की उत्पत्ति हुई और सभ्यता के क्रम की शुरूआत हुई। एक बड़ी आबादी को शुद्ध और पौश्टिक पानी देने के लिए भागीरथी गंगा को नीचे उतार लाए। यह विकास धीमा था और विकास को आगे बढ़ाने के लिए हिमालय में कोई हलचल नहीं की गई थी। लेकिन आज विकास के बहाने भोग की जल्दबाजी में समूचे हिमालय को दरकाने का सिलसिला अत्यंत तेज गति से चल रहा है। उत्तराखंड के उत्तरकाशी में धराली समेत तीन स्थानों पर आई प्राकृतिक आपदाओं ने सत्ताधारियों को चेतावनी दी है कि प्रकृति से खिलवाड़ कतई उचित नहीं है। यदि खिलवाड़ जारी रहा तो इसके गंभीर परिणाम भुगतने होंगे। धराली और हर्षिल में फूटे प्रलय के प्रकोप ने जो दृश्य दिखाए हैं, वे भयावह हैं। एक बार फिर सबसे पवित्र चार धाम यात्रा से जुड़े इस मार्ग पर केदारनाथ आपदा की कहानी प्रकृति ने दोहराई है। केदारनाथ की तरह यहां भी देशभर से यात्रा में आए अनेक श्रद्धालुओं को इस त्रासदी ने लील लिया है।
दरअसल वर्तमान में समूचा हिमालयी क्षेत्र आधुनिक विकास और जलवायु परिवर्तन के खतरों से दो-चार हो रहा है। मौसम और प्राकृतिक आपदाओं की जानकारी देने वाले उपग्रह चाहे जितने आधुनिक तकनीक से जुड़े हों, वे अनियमित हो चुके मौसम के चलते बादलों के फटने, हिमखंडो के टूटने और भारी बारिश होने की क्षेत्रवार जानकारी देने में आसमर्थ ही रहे हैं। इसीलिए 2013 में केदारनाथ प्रलय, 2014 में दुनिया का स्वर्ग माने जाने वाले जम्मू-कश्मीर राज्य की नदियों की बाढ़ से नरक में बदल जाने के संकेत नहीं मिल पाए थे। वर्षा की तीव्रता ऐसी मुसीबत बनी थी कि देखते-देखते स्वर्ग की धरती पर इठलाती-बलखाती नदियां झेलम, चिनाब और तवी ने अपनी प्रकृति बदलकर रौद्र रूप धारण कर लिया था। राज्य का जर्रा-जर्रा विनाश की कुरूपता में तब्दील हो गया था। अलगाववाद का प्रपंच अलापने में लगी राज्य सरकार का तंत्र पंगु हो गया था। तब सेना की मदद से इस भीषण त्रासदी से पार पाना संभव हो पाया था। इसी तरह 2021 में नंदा देवी राष्ट्रीय उद्यान के निकट हिमखंड के टूटने से तबाही मची थी। इससे धौलीगंगा नदी में अचानक बाढ़ आई और तपोवन विश्णुगाड पनबिजली परियोजना में काम कर रहे अनेक मजदूर काल के गाल में समा गए थे। हिमाचल प्रदेश में भी भू-स्खलन, बादल फटने और भारी बारिश से तबाही देखने में आ रही है। लेकिन मौसम तकनीक सटीक जानकारी नहीं दे पा रही है।
मौसम विज्ञानी जता रहे हैं कि मानसून में लंबी बाधा के चलते देश के कई हिस्सों में सूखे के हालात निर्मित हो गए है और हिमाचल व उत्तराखंड में भीषण बारिश ने तबाही का तांडव रच दिया है। मानसून में रुकावट आ जाने से बादल पहाड़ों पर इकट्ठे हो जाते है और यही मूसलाधार बारिश के कारण बनते हैं। यह तबाही इसी का परिणाम है। तबाही के कारण मानसून पर डालकर जवाबदेही से नहीं बच सकते। केदारनाथ में बिना मानसून के रुकावट के ही तबाही आ गई थी। अतएव यह कहना बेमानी है कि मानसून की रुकावट तबाही में बदली ? हकीकत में तबाही के असली कारण समूचे हिमालय क्षेत्र में बीते एक दशक से पर्यटकों के लिए सुविधाएं जुटाने के परिप्रेक्ष्य में जल विद्युत संयंत्र और रेल परियोजनाओं की जो बाढ़ आई हुई है, वह है। इन योजनाओं के लिए हिमालय क्षेत्र में रेल गुजारने और कई हिमालयी छोटी नदियों को बड़ी नदियों में डालने के लिए सुरंगें निर्मित की जा रही हैं। बिजली परियोजनाओं के लिए भी जो संयंत्र लग रहे हैं, उनके लिए हिमालय को खोखला किया जा रहा है। इस आधुनिक औद्योगिक और प्रौद्योगिकी विकास का ही परिणाम है कि आज हिमालय ही नहीं, हिमालय के शिखरों पर स्थित पहाड़ दरकने लगे हैं, जिन पर हजारों साल से मानव बसाहटें अपनी ज्ञान-परंपरा के बूते जीवन-यापन करने के साथ हिमालय और वहां रहने वाले अन्य जीव-जगत की भी रक्षा करते चले आ रहे हैं। हिमालय और पृथ्वी सुरक्षित बने रहें, इस दृष्टि से कृतज्ञ मनुष्य ने अथर्ववेद में लिखे पृथ्वी-सूक्त में अनेक प्रार्थनाएं की हैं। इस सूक्त में राष्ट्रीय अवधारणा एवं वसुधैव कुटुम्बकम की भावना को विकसित, पोषित एवं फलित करने के लिए मनुष्य को नीति और धर्म से बांधने की कोशिश की हैं। लेकिन हमने कथित भौतिक सुविधाओं के लिए अपने आधार को ही नष्ट करने का काम आधुनिक विकास के बहाने कर दिया।
आपदा प्रभावित धराली और हर्षिल क्षेत्र में बहने वाली भागीरथी नदी पर बनी 1300 मीटर लंबी और 80 मी. चौड़ी झील से पानी का रिसाव हो रहा है, इसे पोकलैंड मशीनों से तोड़ने की तैयारी है। जिसे रिसाव की थोड़ा प्रवाह बढ़ जाए और झील का जलस्तर घट जाए। यदि इस झील के बीच कोई बड़ा बोल्डर है, तो इसे नियंत्रित विस्फोटक से तोड़ा जाएगा। पहाड़ों में अतिवृष्टि के चलते इस नदि पर यह झील अस्तित्व में आ गई है। हिमालय में झील, तालाब और हिमनदों का बनना एक आश्चर्यजनक किंतु स्वाभाविक प्रक्रिया है। चूंकि यह झील हर्षिल और धराली के लिए संकट बन गई है, इसे तोड़ा जाना जरूरी हो गया है। यदि यह प्राकृतिक प्रकोप के चलते टूटती है तो धराली एवं हर्षिल को ओर खतरा बढ़ जाएगा। देहरादून सिंचाई विभाग के प्रमुख इंजीनियर सुभाष पांडे के नेतृत्व में अभियंताओं का एक 12 सदस्यीय दल हेलिकॉप्टर से झील के निरीक्षण में लगा है। झील के प्रवाह में यदि कोई चट्टान बाधा है तो उसे रिमोट से नियंत्रित विस्फोटक से तोड़ा जाएगा। इस विधि से वही हिस्सा टूटता है, जितना तोड़ना जरूरी होता है।
हालांकि अभी तक यह निश्चित अनुमान नहीं लगाया जा सका है कि इस जल प्रलय का वास्तविक कारण क्या है ? भू-विज्ञानी असमंजस में हैं। सच्चाई जानने के लिए वे अब रिमोट सेंसिग डाटा एवं सेटेलाइट डाटा की प्रतीक्षा में है। इससे स्थिति स्पष्ट होगी की खीर गंगा नदी में आया सैलाब बादल फटने, हिमनद टूटने, भू-स्खलन से आया या फिर किसी अन्य कारण से आया। इस सिलसिले में सीबीआरआई रुढ़की के मुख्य भू-विज्ञानी डॉ डीपी कानूनगो का कहना है कि नदी में अचानक इतना सैलाब किस कारण से आया यह कहना फिलहाल संभव नहीं है। भू-विज्ञानी प्राध्यापक एसपी प्रधान इस आपदा को प्राकृतिक और मानव निर्मित दोनों ही कारण मान रहे हैं। इन विरोधाभासी अनुमानों से साफ है कि आई आपदा के बारे में कारण संबंधी दृष्टिकोण स्पष्ट नहीं है। दरअसल पर्वतीय क्षेत्रों में प्रकृति के साथ संतुलन बनाकर विकास करना आवश्यक होना चाहिए। लेकिन कथित विकास की चकाचौंध में राज्य सरकारें कोई संतुलित नीति बना भी लेती हैं तो उसके क्रियान्वयन में ईमानदारी नहीं बरतती हैं। यही वजह है पूरे हिमालय क्षेत्र में अंधाधुंध विकास की परियोजनाएं हिमालय की आंतरिक सुगठित संरचना को नश्ट कर रही हैं।
इस आपदा ने यह जरूर जता दिया है कि उत्तराखंड के उच्च हिमालयी क्षेत्र में ग्लेशियर झीलों के खतरे बढ़ रहे है। राज्य में करीब 1266 ऐसी झीलें हैं। नेशलन डिजास्टर मैनेजमेंट अथॉरिटी (एनडीएमए) ने उत्तराखंड में 13 हिमनदों को खतरनाक श्रेणी के रूप में चिन्हित किया है। इनमें से पांच को उच्च संकट की श्रेणी में रखा है। हालांकि यह मुद्दा कोई नया नहीं है। 2013 में केदारनाथ जल प्रलय के बाद यह मुद्दा महत्वपूर्ण हो गया था। क्योंकि चौड़ाबाड़ी ग्लेशियर झील के फटने से केदारनाथ में भीषण तबाही आई थी। इसके बाद से ही उच्च हिमालयी क्षेत्रों में स्थित हिमनदों की निगरानी और इनसे बचाव के लिए अध्ययन करने की दिशा में पहल की गई थी। लेकिन अध्ययन के क्या निष्कर्ष निकलें और उनके अनुरूप समस्या से निपटने के क्या उपाय किए गए इस दिशा में कोई पारदर्शी जानकारी नहीं है। चामौली में वसुधारा ताल और पिथौरागढ़ की झीलों के अध्ययन की भी तैयारी की जा रही है। लेकिन इन अध्ययनों के कोई कारगार परिणाम निकलेंगे यह कहना मुश्किल है।
उत्तराखंड भूकंप के सबसे खतरनाक जोन-5 में आता है। कम तीव्रता के भूकंप यहां निरंतर आते रहते हैं। मानसून में हिमाचल और उत्तराखंड के पहाड़ी जिलों में भू-स्खलन बादल फटने और बिजली गिरने की घटनाएं निरंतर सामने आ रही हैं। पहाड़ों के दरकने के साथ छोटे-छोटे भूकंप भी देखने में आ रहे हैं। उत्तराखंड और हिमाचल में बीते सात साल में 130 बार से ज्यादा छोटे भूकंप आए हैं। हिमाचल और उत्तराखंड में जल विद्युत और रेल परियोजनाओं ने बड़ा नुकसान पहुंचाया है। टिहरी पर बंधे बांध को रोकने के लिए तो लंबा अभियान चला था। पर्यावरणविद और भू-वैज्ञानिक भी हिदायतें देते रहे हैं कि गंगा और उसकी सहायक नदियों की अविरल धारा बाधित हुई तो गंगा तो अस्तित्व खोएगी ही, हिमालय की अन्य नदियां और झीलें भी अस्तित्व के संकट से जूझेंगी।
प्रमोद भार्गव