सभी मिट्टी के घरौंदे टूट गये
हाथों से हाथ जब छुट गये
तैरने लगे सपने बिखर के
नैनों से जो सावन फ़ूट गये
तरस गये शब नींद को
तश्न्गी से लब तरश गये
नाखुदा ने पुकार भी की
कई अब्र फ़िर भी बरस गये
सरगोशी से कुछ बात चली
हम गिरते-गिरते संभल गये
मुझे था पता उस आज़ाब का
हम जान बुझ कर फिसल गये
“आलोक धन्वा” जी ने इस कविता की सराहना खुले दिल से की थी।