प्राचीन काल से गाय तथा गाँव इन्हीं दो शब्दों के इर्द-गिर्द भारतीय दर्शन भ्रमण करता रहा है। जिसके बिना भारतीय सभ्यता की परिकल्पना भी नहीं की जा सकती थी। जिनकी सुरक्षा करना प्रत्येक प्राणी का कर्तव्य होता था। गाँव तथा गाय में ईश्वर के दर्शन की व्यवस्था हमारे पूर्वजों ने इस लिए की थी कि इनका दुर्पयोग न हो तथा उसे पवित्र दृष्टि से देखा जाये। गाय को मात्र एक दूध देने वाला पशु तथा गाँव को मनुष्य का समूह न समझा जाय। अत: मनुष्य पाप-पुण्य के भेद के चलते उपरोक्त दोनों आधारभूत व्यवस्थाओं के साथ खिलवाड़ नहीं करता था। गाय में माता तथा ग्राम को देवता के रूप में देखा जाता था। समाज में प्रत्येक धार्मिक अनुष्ठानों में ग्राम के प्रत्येक वर्ग की भागीदारी सुनिश्चित थी। उक्त कार्य में गाँव के तालाब की गीली मिट्टी से लेकर खेत की सूखी मिट्टी का उपयोग अवश्य किया जाता था। उसके बिना उपरोक्त अनुष्ठान अपूर्ण माना जाता था। गाय के पंचगव्यों का प्रयोग उक्त पूजन में आवश्यक रूप से होता था। व्यक्ति गाय के पंचगव्यों का प्रयोग कर स्वयं तथा परिवार को धन्य मानता था। अत: गाँव तथा गाय का अस्तित्व पूर्ण रूप से सुरक्षित था। कालान्तर में धीरे-धीरे मनुष्य ने प्रगति की मानवीय संवेदनाओं का स्थान व्यापारिक सम्बन्धों ने ले लिया। धार्मिक अनुष्ठान तथा पारिवारिक सम्बन्ध दकियानूसी समझे जाने लगे। किसी समय गाँव को परिवार समझने वाला समाज हम दो हमारे दो को ही परिवार समझने लगा। प्रकृति आधारित समाज न जाने कब झूठे बनावटी आधुनिक समाज के रूप में परिवर्तित हो गया, पता ही नहीं चला। शहर की आधुनिकता की बयार गाँव पहुँचते देर न लगी। दूर से दिखनेवाले चमकदार समाज के प्रलोभन के चलते गाँव बिखरने लगा। शहरों में स्थापित शीतल पेय एवं अन्य बड़ी कम्पनियों की दृष्टि देश के ग्रामीण क्षेत्रों पर पड़ी। अपने झूठे एवं प्रभावी प्रचार के माध्यम से उन्होंने वहाँ भी अपना स्थान सुरक्षित कर लिया। अत: देशी पेय दूध, दही, मट्ठा आदि का स्थान विदेशी कम्पनियों के पेयों ने प्राप्त कर लिया, देशी हल का स्थान ट्रैक्टर ने ले लिया। अत: गायों एवं बैलों की उपेक्षा होने लगी। उनके अस्तित्व पर संकट के बादल मड़राने लगे। जो गाय कल तक देश में पूजी जाती थी, उनका स्थान भारतवर्ष के लगभग 30,000 कत्लगाह हो गये। उक्त गौ हत्याओं के चलते देश की अनेक सामाजिक संस्थाओं ने गौशालाओं के माध्यम से गायों एवं बैलों का संरक्षण कर उन्हें कत्ल होने से बचाने का प्रयास किया। कानपुर में भौंती स्थित गौशाला में सराहनीय कार्य किया। जहाँ गाय के पंचगव्यों से विभिन्न प्रकार की औषधियों के अतिरिक्त मच्छर क्वॉयल, सादा तथा आयल बाण्ड डिस्टेम्पर, साबुन, फेस पाउडर, मुक्ता पाउडर, मूर्तियाँ, गमले, दंत मंजन, कागज, खपरैल, फर्नीचर, कम खर्चे में स्थानान्तिरित किये जाने वाले मकान, नालीदार चादरें, जमीन पर बिछाने की चटाई, फिनाइल, नील, ग्लास क्लीनर, विभिन्न कीटनाशक, आफटर शेव लोशन, बाम, पेय पदार्थ, आग तथा ध्वनि रोधक रेडियेशन मुक्त वस्तुएँ बनाई जा रही हैं। जिसमें अनेक वस्तुएँ बाजार में भी आ गयीं हैं। जो सम्पूर्ण समाज के लिए हानि रहित एवं उपयोगी हैं। उक्त गौशाला में बैल की शक्ति का उपयोग आटा चक्की, कुट्टी मशीन, धान मोमफली, तेलघानी, छोटा थ्रेशर, पंपिंग सेट, बिजली पैदा करने का जेनरेटर में कर नये युग का सूत्रपात किया है। देश में विभिन्न गौशालाओं में दूध न देने वाली या कम दूध देनेवाली गायों तथा बैलों का भी संरक्षण किया जाता है। इन्हें किसी प्रकार कत्ल होने से बचाना एवं समाज को हानिरहित वस्तुएँ उपलब्ध कराना उनका प्रथम उद्देश्य है।
महात्मा बुध्द, महावीर स्वामी, गुरुनानक देव, गुरुगोविन्द सिंह जी आदि सभी ने अपने-अपने प्रवचनों में गौ रक्षा तथा गौ संवर्धन का संदेश दिया। शिवाजी ने तो गौ वध करने जा रहे कसाई के हाथ काट लिए थे। आज उसी गाय का अस्तित्व संकट में है। उसके जीवन पर प्रश्न चिन्ह लग गया है। भारतीय दर्शन में भगवान श्रीकृष्ण के गाय चराने तथा उनके भाई बलराम के शस्त्र के रूप में हल तथा मूसल के रूप में दर्शाना श्वेत तथा हरित क्रान्ति का परिचायक है तथा मानव समाज को सन्देश देता है, अधिक अन्न पैदा करो तथा अधिक दूध का उत्पादन करो, जो मनुष्य को प्रकृति के निकट रहने का संदेश भी देता है। मनुष्य जब तक प्रकृति के निकट रहा कोई समस्या नहीं थी। वह पूर्ण रूप से स्वस्थ रहता था, अस्वस्थ होने पर प्राकृतिक औषधियों का उपयोग करता था। अपने भोजन में प्रचुर मात्रा में घी, दूध, दही आदि का सेवन करता था। कृषि में भी गोबर का प्रयोग होता था, अत: खेती में पैदावार स्वास्थ्य की दृष्टि से अधिक प्रभावशाली होती थी। गाँव के रूप में समाज एकजुट रहता था। प्रत्येक सामाजिक एवं धार्मिक कार्यों में गाँव के प्रत्येक परिवार की भागीदारी सुनिश्चित होती थी। गाँव के किसी व्यक्ति के रिस्तेदार को पूरा गाँव उसी के समान आदर करता था। प्रत्येक व्यक्ति को चाचा, नाना, भाई आदि पारिवारिक संबोधनों से पुकारा जाता था, अत: पूरा गाँव एक बड़े परिवार सा दिखता था। विवादों का हल भी गाँव में ही पंच के माध्यम से होता था। जिसमें पाँच व्यक्ति होते थे। उनको ईश्वर के रूपमें देखा जाता था। जिनका निर्णय सभी को मान्य होता था। प्राचीन काल में भारतीय व्यवस्था में ”उत्तम खेती, मध्यम वान (व्यापार), निखिध्द चाकरी, भीख निदान।” हुआ करता था। नौकरी को अत्यन्त गिरा हुआ माना जाता था। जिसे पाश्चात्य संस्कृति ने ध्वस्त कर नौकरी को सबसे उत्तम तथा कृषि को सबसे गिरा हुआ माना जिसके कारण पूर्व के सभी मानक ध्वस्त हो गये। सामाजिक विघटन का ऐसा वातावरण पैदा हुआ कि ग्राम, समाज, प्रकृति तथा परिवार की व्यवस्था तथा परिकल्पना समाप्त हो गई। व्यक्तिवादी व्यवस्था समाज में इस कदर फैली कि गाँव तथा परिवार शब्द निर्थक हो गये। अत: आधुनिक विकास के नाम पर पूरे देश में गाँव तथा कृषि भूमि समाप्त होने की स्थिति में पहुँच रही है। सिर्फ उत्तर प्रदेश में ही विकास के नाम पर लाखों हेक्टेअर कृषि योग्य भूमि कंक्रीट के में परिवर्तित हो रही है। प्रतिवर्ष लगभग 48,000 हेक्टेअर कृषि योग्य भूमि आवासीय योजनओं, औद्योगिक इकाइयों आदि के उपयोग में लाई जाती हैं, जो एक दशक पहले 30-35 हजार हेक्टेअर वार्षिक थी। एक तरफ देश की आबादी में बेतहाशा बढ़ोत्तरी दूसरी तरफ खाद्यान्न की सीमित व्यवस्था तथा कृषि योग्य भूमि की लगातार गिरावट से आगामी वर्षों में विषम परिस्थितियाँ जन्म ले सकती हैं। वर्ष 2003-2004 में सर्वाधिक खाद्यान्न उत्पादन 444 लाख टन था। जो मामूली उतार चढ़ाव के कारण स्थिर है। जब कि नेशनल कमीशन फार इंटीग्रेटेड वाटर रिसोर्स डेवलपमेण्ट के अनुसार उत्तर प्रदेश की जनसंख्या वर्ष 2025 तक 24.5 करोड़ होगी। जिसके लिए 534 लाख टन खाद्यान्न की आवश्यकता होगी। जो ग्रामीण क्षेत्रों में कंक्रीट के जंगलों के कारण लगातार कम हो रही कृषि योग्य भूमि के कारण सम्भव होता प्रतीत नहीं होता। यदि हम अभी नहीं चेते तो आगे आने आनेवाला समय काफी भयावह हो सकता है।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ गाँव तथा गाय को एक सूत्र में पिरोकर समाज को प्रकृति के निकट लाने का प्रयास कर रहा है। उक्त प्रयास विश्व मंगल गौ ग्राम यात्रा के नाम से दिनांक 30/09/2009 (विजयादशमी) को कुरुक्षेत्र से प्रारम्भ से प्रारम्भ की जायेगी। जो 17/01/2010 को नागपुर में समाप्त होगी। 108 दिन की यह यात्रा प्रति दिन 200 किमी0 की यात्रा तय करेगी तथा अपने सम्पूर्ण यात्रा काल में 20,000 किमी0 की दूरी तय करेगी। उक्त यात्रा के साथ-साथ अनेक उपयात्राएँ भी निकाली जायेंगी जो 10 लाख किमी0 की यात्रा कर देश के सभी गाँवों में जाकर गाँव तथा गाय की उपयोगिता समाज के हित में बतायेगी। गाय के पंचगव्यों से किस प्रकार राष्ट्र रोगमुक्त, प्रदूषण मुक्त तथा अन्न युक्त हो सकता है बताया जा सकेगा। उक्त यात्रा का उद्देश्य जीवन पध्दति को पुन: ग्राम आधारित बनाना है, जो वर्तमान में शहर आधारित होती जा रही है। ग्रामीण समाज आधुनिकता की चकाचौंध के आगे भ्रमित हो गया है, किसान अधिक पैदावार के चक्कर में गोबर की खाद के स्थान पर जहरीले रासायनों का उपयोग उर्वरकों के रूपम में कर रहा है। जिसके कारण भूमि की उर्वरता समाप्त होती जा रही है, जो राष्ट्र तथा समाज के लिए अत्यन्त घातक है। सम्पूर्ण भारत भटकाव की स्थिति में है। पूँजीवाद साम्यवाद तथा समाजवाद सहित कोई भी वाद सही मार्ग बताने की स्थिति में नहीं है। गाँव दरिद्र तथा शहर बीमार होते जा रहे हैं।
गाय तथा गाँव हमारी देश की अर्थव्यवस्था के प्रमुख आधार हैं। देश की 70 प्रतिशत आबादी गाँव में निवास करती है। वर्तमान आधुनिक शैली ने नजरंदाज कर विभिन्न समस्याएँ खड़ी करदी है। जहाँ एक तरफ ‘माल’ संस्कृति ने कुटीर तथा लघु उद्योगों पर प्रश्न चिन्ह लगा दिए हैं, वहीं अनेक विद्युत उपकरणों ने एक ऐसा सुविधा भोगी वर्ग तैयार कर दिया है जो शारीरिक रूप से अक्षम होता जा रहा है। भोगवादी व्यवस्थाने सम्पूर्ण मानवीय प्राकृतिक व्यवस्थाओं को तार-तार कर दिया है। यदि समय रहते गाँव तथा गाय को सुरक्षित नहीं किया गया तो मानव सभ्यता पर प्रश्न चिन्ह लग जायेगा।
लेखक – राघवेन्द्र सिंह
आपने बहुत ही अच्छा लिखा है. हमारा देश खेती आधारित देश हॆ. मशीनीकरण के दौर मे पशूधन कॊ पूरी तरह से नज़रअन्दाज कर दिया गया हे. अगर इनकी तरफ़ ध्यान दिया जाय तो वाकइ हमारे यहा इन्धन की समस्या लगभग खत्म हो जायॆगी.