गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को भारतीय जनता पार्टी की केंद्रीय चुनाव समिति का प्रमुख बनाए जाने के बाद से ही राजनीति में उपजे हालातों के बीच अब यह चर्चा आम हो चली है कि आगामी लोकसभा चुनाव के मद्देनज़र क्षेत्रीय क्षत्रपों द्वारा तीसरे मोर्चे के गठन से चुनाव परिणामों के बाद सरकार के गठन में निश्चित रूप से सत्ता-लोलुप एजेंडा एवं नेताओं का निजी हित हावी रहेगा। सेक्युलरवाद की राजनीति कहीं न कहीं भारी पड़ती दिख रही है। किन्तु सवाल अब भी वही है, क्या तीसरा मोर्चा बनेगा और यदि बन भी गया तो विभिन्न क्षत्रपों की राजनीति और महत्वाकांक्षा उसे कब तक अस्तित्व में रखेगी? बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की पहल पर शुरू हुई इस पूरी कवायद से कथित तीसरा मोर्चा यानी फेडरल फ्रंट के गठन की नींव पड़ती नज़र आ रही है। बिहार में भाजपा-जदयू गठबंधन के टूटने से एनडीए में जो बिखराव होगा और नीतीश के साथ जो अन्य क्षत्रप कदमताल करेंगे उस पर देश भर की निगाहें टिकी हुई हैं। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी, ओडीशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक, सपा मुखिया मुलायम सिंह यादव के बाद अब तेदेपा प्रमुख चंद्रबाबू नायडू भी फेडरल फ्रंट से जुड़ने को बेकरार हैं। इस बीच ऐसी भी खबरें आ रही हैं कि वाम मोर्चा फेडरल फ्रंट की बजाए अन्य विकल्पों पर मंथन करेगा। वाम मोर्चा वैसे भी ममता के साथ तो आने से रहा वहीं भाजपा की कथित साम्प्रदायिक छवि मोर्चे को उससे भी दूर रखेगी। जहां तक बात कांग्रेस से भावी गठबंधन की है तो अब शायद कांग्रेस भी वाम मोर्चे को घास न डाले। यूपीए की पहली पारी के दौरान वाम मोर्चे ने सरकार के अस्तित्व को जिस तरह संकट में डाला था, वह कांग्रेस के नीति-नियंता भूले नहीं होंगे। इन सबके बीच मायावती ने अभी तक अपने पत्ते नहीं खोले हैं और उनका समर्थन किसको मिलता है यह देखने वाली बात होगी। दरअसल जिस फेडरल फ्रंट से लेकर संभावित चौथे मोर्चे के गठन की संभावनाएं जताई जा रही हैं उनका यथार्थ के धरातल पर उतर पाना असंभव ही है। चूंकि हर क्षेत्रीय क्षत्रप की महत्वाकांक्षा और उसका प्रभाव क्षेत्र सीमित दायरे में सिमटा है लिहाजा वे एक-दूसरे का लंबा साथ नहीं दे सकते। उनकी राजनीति प्रभावित होती है इससे। फिर आजकल मीडिया में प्रधानमंत्री का पद तो ऐसा हो गया है मानो उसपर कोई भी काबिज होने की कुव्वत रखता है। कमोबेश हर राजनेता को लगता है मानो राजनीति के इस संक्रमण काल में कभी भी उसकी किस्मत में प्रधानमंत्री की कुर्सी आ सकती है। मुलायम सिंह यादव हों या मायावती, नीतीश हों या ममता; कहीं न कहीं सत्ता के शीर्ष पर पहुंचने की इनकी जद्दोजहद इन्हें चाह कर भी एक नहीं कर सकती। हां, अल्प समय के लिए ये भले ही दिखावे के लिए साथ आ जायें किन्तु इनका अलग होना भी सच्चाई है और यह सच्चाई ये सभी जानते हैं किन्तु दिखावे और दबाव की राजनीति के चलते इनकी कुछ सियासी मजबूरियां भी हैं जो इन्हें नजदीक लाने में अहम् भूमिका निभा रही हैं। हां, इतना तय है कि इनका भविष्य बहुत उज्जवल नहीं कहा जा सकता।
अब बात नीतीश कुमार की। ऐसे कयास लगाए जा रहे हैं कि नीतीश; भाजपा-जदयू की गठबंधन सरकार से इस्तीफ़ा देकर पुनः अपनी दम पर सरकार गठन का दावा पेश कर सकते हैं। भाजपा से अलग होकर बहुमत के आंकडें तक पहुंचने के लिए उन्हें मात्र ४ अतिरिक्त विधायकों की ज़रूरत होगी और यह संख्या निर्दलीय आसानी से पूरी कर सकते हैं। पर मेरा मानना है कि भाजपा से अलग होना नीतीश के लिए आत्मघाती है और इसका उन्हें दूरगामी नुकसान उठाना पड़ेगा। जैसे पंजाब में शिरोमणि अकाली दल के लिए भाजपा का साथ अवश्यंभावी है ठीक उसी तरह बिहार में जदयू के लिए भाजपा अमृत समान है। यदि नीतीश भाजपा से अलग होकर कांग्रेस के साथ जाने की सोच रहे हैं तो वे यह समझ लें कि उनके इस कदम से बिहार में लालू यादव तो मजबूत होंगे ही साथ ही जनता में भी उनकी नकारात्मक छवि बनेगी। लालू प्रसाद यादव की जातिवादी जकड़न को तोड़कर नीतीश ने जिस बिहार की कमान संभाली थी उसने उनके राज में भले ही कई मील के पत्थर स्थापित किए हों या राष्ट्रीय स्तर पर बेहतरीन उदाहरण पेश किए हों किन्तु नीतीश ने उसे जातिवाद व धर्मनिरपेक्षता के ऐसे मोहजाल में फांस लिया है जिससे मुक्ति मिलना संभव नहीं है| कब्रिस्तानों की घेरेबंदी, महादलित की खोज, अगड़ी-पिछड़ी जाति का झगड़ा, माफियाओं को संरक्षण; ये कुछ ऐसे काम हैं जिन्हें नीतीश गर्व से स्वीकार कर सकते हैं| इनमें विकास कहां है? और जो विकास के आंकड़े सरकारी फाईलों में पेश किए जाते हैं वे उन बाबुओं की मक्कारी का सबूत हैं जो असलियत देखना ही नहीं चाहते| जहां तक मोदी का सवाल है तो यक़ीनन उन्हें प्रधानमंत्री पद पर काबिज़ होने में कठिन परिस्थितियों का सामना करना पड़ेगा किन्तु यदि नीतीश यह सोच कर चल रहे हों कि धर्मनिरपेक्षता के पैमाने पर स्वयं को बड़ा दिखाने से उन्हें कांग्रेस या संभावित तीसरे मोर्चे का साथ मिल जाएगा तो वे गलत हैं| इससे इतर भी देखा जाए तो भावी लोकसभा चुनाव में विकल्पों की भरमार होने वाली है और इतिहास गवाह है कि जब-जब जनता को अधिक विकल्प मिले हैं, उसने जनादेश भी उतना ही बिखरा हुआ दिया है| यह भी साबित हो चुका है कि अब वह राजनीतिक दौर नहीं रहा जबकि गठबंधन धर्म निभाने की खातिर नेता स्वहित को तिलांजलि दें| सभी जानते हैं कि दिल्ली की गद्दी पर किसी का भी भाग्य चमक सकता है और ऐसी स्थिति में तो सभी अपने राजनीतिक कौशल का भरपूर इस्तेमाल करेंगे| अब बस इंतेजार है सभी सियासी पत्तों के खुलने का।