मदन मोहन शर्मा ‘अरविन्द’
कब जागेंगे हम लोग? कौन आयेगा हमें जगाने? क्या कीड़े मकोडों की तरह जीना ही हमारे जीवन का अन्तिम लक्ष्य है? जरा किसी का पैर ऊपर आया नहीं कि रह गये चुपके से बदन सिकोड़ कर। सामना करना तो दूर, बच कर निकलने की चेष्टा करना भी भूल गये। अपने अस्तित्व का अहसास ही नहीं रहा। सब कुछ दूसरे के भरोसे। चाहे तो जिन्दा रहने दे, चाहे तो कुचल कर निकल जाये। अत्याचार होने पर तो पशु भी विद्रोह कर उठता है, फिर मनुष्य क्यों चुप रहता है? शायद इसलिये कि सहनशीलता उसका स्वभाव है। एक सामाजिक प्राणी होने के नाते वह कुछ नियमों से बँधा है और यथा सम्भव उनका पालन भी करता आया है। जब-जब किसी ने इन नियमों से छेड़छाड़ करने का प्रयास किया, मानवता संकट में आई है, मनुष्य जीवन की गुणवत्ता प्रभावित हुई है।
हुआ करते थे। समय के साथ-साथ इन मानवीय गुणों का क्षरण होता रहा। वर्तमान में जो परिदृश्य हमारे सामने है उसमें बहुत कुछ बदला हुआ है। जवाबदेही और ईमानदारी की चिड़िया सामाजिक जीवन से फुर्र होकर झूठ और मक्कारी का दाना चुगने लगी है। शासक और शासित के बीच की खाई दिन पर दिन चौड़ी हो रही है। वे राजा हम रियाया। घुड़कना उनका जन्मसिध्द अधिकार और सर झुकाकर रिरियाना हमारी नियति। हम इतने डरे हुए क्यों हैं? जोर-जबर्दस्ती के इस घेरे को तोड़ने का साहस हम क्यों नहीं कर पाते? भूल हमारी है। हम गुलाम नहीं रहे पर गुलामी की मानसिकता से बाहर अब तक नहीं निकल सके। यदि यही दशा रही तो प्रजातंत्र में भी राजतंत्र के दोष आते देर नहीं लगेगी। आज का शासक ऊँचे सिंहासन पर है और जनता जमीन पर, फिर भी दुहाई जनतंत्र की दी जाती है। भेड़िये शान से अपने शाकाहारी होने का उद्धोष कर रहे हैं और हम मेमनों की तरह सामने खड़े चुपचाप खीसें निपोर रहे हैं।
आवाज उठाने की इजाजत किसी को नहीं। सच का गला दबा कर बेशर्मी से हँसने वालों की एक लम्बी जमात तैयार खड़ी है। व्यवस्था इतनी विद्रूप हो चली है कि अब पात्रता के आधार पर कहीं कुछ नहीं मिलता। सब कुछ खरीदना पड़ता है। लेनदेन आजकल आचरण का अंग बन गया है। लेने वाला निर्भय है और देने वाला मजबूर। बेचारा और कहीं जाये तो जाये कहाँ? इसी सुविधा का लाभ उठा कर सामर्थ्यवान जाली पासपोर्ट पर भी दुनिया घूम लेते हैं, लेकिन जरूरतमन्द के जूते घिस जाते हैं पर महीनों कोई उसकी सुनवाई करने वाला नहीं होता। कायदे-कानून का नाम सुनते ही दफ्तरों में बाबुओं और अफसरों की भृकुटियाँ टेढ़ी होने लगती हैं। शिकायत करने वाले का उत्पीड़न तुरन्त प्रभाव से प्रारम्भ हो जाता है मगर दोषी खुले घूमते हैं। विसंगति देखिये, दूसरों के निरपराध होने की तस्दीक वे करते हैं जो स्वयं अपराधी हैं।
किसी ने कभी सोचा है कि एक चरित्रवान युवक जब चरित्र प्रमाण-पत्र बनवाने किसी चरित्रहीन के दरवाजे जाता है तो उस पर क्या गुजरती है? दरअसल ऐसे प्रमाण-पत्र यही प्रमाणित करते हैं कि धारक वर्तमान व्यवस्था की गन्दगी में डूब कर निकला है, अत: व्यवस्था को भी उसे स्वीकार करने में संकोच नहीं होना चाहिये। बन्दरबाँट की इस आदत पर लगाम लगनी चाहिये। वास्तव में जो शक्ति सम्पन्न हैं, जिनमें इस प्रकार के दुराचार के आगे आने की क्षमता है वे स्वयं भी इस जीवन शैली को अपनाते जा रहे हैं।
कायरता के सिवा और कुछ नहीं। बुराइयों का मुकाबला हर हाल में होना चाहिये और यह काम कोई अकेला नहीं कर सकता। शासकीय सेवाओं और शासन-प्रशासन में पारदर्शिता और शुचिता की जरूरत को एक जन आन्दोलन का रूप देना होगा। आज अगर अर्जुन नहीं न सही, कम से कम कोई अभिमन्यु तो हो जो स्वार्थलिप्सा के इस चक्रव्यूह को तोड़ने का साहस दिखाये। चुप बैठने से बात नहीं बनने वाली। इसके लिये जागरूक युवा पीढ़ी को आगे आना पड़ेगा। आपाधापी और शोषण के विरुध्द किसी न किसी को तो नेतृत्व संभालना है। हमारे नौजवानों के पास भरपूर साहस है, सकल्प है, सपने हैं। वे चाहें तो इस दिशा में बहुत कुछ कर सकते हैं। इससे पहले कि ऍंधेरा और गहराये, उजालों की तदबीर करनी ही होगी। देखना है आगे बढ़ कर मशाल कौन उठाता है।
मशाल कौन उठाएगा एक गंभीर चिंतन परक लेख है . आपको एवं लेखक को बधाई.
डॉ.दिनेश पाठक शशि मथुरा.