इ. राजेश पाठक
भारत में नागरिकता संशोधन कानून[सीएए] को लेकर सेकुलरों के विरोध के बीच पिछले दिनों पाकिस्तान से खबर आयी है कि जिस हिन्दू लड़की महक नें मुल्लाओं के दवाब में २१ जनवरी को कोर्ट में ये माना था कि उसनें अपनी मर्जी से निकाह और इस्लाम दोनों कुबूल किये हैं, वो अब अपने उस बयान से पलट गयी है. कोर्ट के बाहर आक्रोशित मौलवियों की भारी संख्या को देखते हुए जज नें बंद कमरे के अन्दर मामले की सुनवाई की, जिसमें महक नें बताया कि न हीं उसने इस्लाम स्वीकार किया ना ही वो अपने कथित पति अली रजा मिर्ची के साथ रहना ही चाहती है.
लेकिन फिर भी इधर भारत में अपने आप में स्थिती बड़ी बिचित्र है. सीएए के विरोध में अन्य सेकुलरों के साथ-साथ अब गोवा के आर्कबिशप फिलिप नेरी फरेरो भी उतर आयें हैं. हिन्दुओं के बीच विभाजन रेखा को खींचते हुए उन्होंने एक और बात उछाल दी है. उन्होंने अन्यों के साथ-साथ सीएए को दलित-आदिवासीयों के लिए भी अहित करनें वाला बता दिया है. वैसे वे शायद इस बात से बेखबर नहीं होंगे कि पिछले कुछ दिनों से तो दलित-आदिवासीयों का अहित उनकी मिशनरीयों[ प्रचारकों] के हाथों ज्यादा ही हो रहा है.वे चाहें तो जूनूल बालबंदी नाम के उस पास्टर को याद कर सकतें हैं जिसका नाम सन २०१४ में एक दलित महिला के साथ उसके द्वारा महीनों किये गए दुष्कृत्य को लेकर खूब उछला था. उनकी जानकारी के लिए बता दें कि उस पास्टर को पिछले दिनों १० वर्ष की सजा न्यायलय द्वारा सुना दी गयी है.[टाइम्स ऑफ़ इंडिया]. पिछले वर्ष घटी झारखण्ड के खूटी जिले की घटना तो और भी दिल दहला देने वाली थी, जिसमें एक एन.जी.ओ. से संबधित दलित आदिवासी महिलाओं का अपहरण कर उनके साथ छ: युवकों नें बड़ी दरिंदगी के साथ दुष्कृत्य किया था. इस घटना में उक्त युवकों का सहयोग करने के कारण मिशनरी विद्यालय के फादर अल्फांसो को भी आरोपी बनाया गया था. और फिर जिसको लेकर उनकी गिरफ़्तारी भी हुई थी. इन फादर और पादरीयों के आचरण नें तो चर्च तक को कमजोर और जरूरतमंद महिलाओं के लिए असुरक्षित बना डाला है.केरल प्रान्त के कोट्टयम स्थित मालंकर आर्थोडाक्स चर्च के पांच पादरीयों पर चर्च की ही एक महिला कार्यकर्त्ता के साथ दुष्कृत्य का आरोप लगा था. और भारी बवाल मचने पर जिन्हें चर्च प्रशासन निष्काषित करने पर मजबूर हुआ था. बाद में जब पादरियों को पुलिस ने अपनी गिरफ्त में लिया, तो कहीं जाकर लोग शांत हुए.
आर्कबिशप फिलिप नेरी फरेरो और उनके जैसे मिशनरीज़ भले ही हिन्दुओं में मौजूद जात-पात का अपने धर्मान्तरण के लक्ष्य को साधने में शोषण करें, पर वे ये भी याद रखना ना भूलें कि ईसाई समाज भी इस व्याधि से मुक्त नहीं है.Tamilnadu Untouchability Eradication Front [तमिलनाडु अछूत निवारण मोर्चा] की वो रिपोर्ट देखने के काबिल है जो कि २०१८ में प्रकाशित हुई थी. रिपोर्ट बताती है कि दलित इसाईयों के लिए गाँवों में अलग चर्च और कब्रिस्तान मिलना आम है. गिरजाघर के प्रशासन, पादरी के पद, व्यवसायिक -शैक्षणिक गतिवीधीयों को लेकर वन्नियार और नादार उच्च जाति के लोगों के हांथों दलित भेदभाव से पीड़ित हैं . कई मामलों में तो उन्हें सामाजिक बहिष्कार तक झेलना पड़ता है. कहना पड़ेगा कि कभी बाबा साहब अम्बेडकर नें ठीक ही कहा था कि-‘ ईसाई हो जाने से भेद प्रिय मनोवृति नष्ट नहीं होगी . जो ईसाई हुए हैं , उनमें ब्राह्मण ईसाई ,मराठा ईसाई, महार, मांग, वाल्मीकि[स्वच्छता कर्मी] ईसाई जैसे भेद कायम हैं. हिन्दू समाज की तरह ईसाई समाज भी जतिग्रस्त है. जो धर्म देश की प्राचीन संस्कृति को खतरा उत्पन करेगा अथवा अस्पृश्यों को अराष्ट्रीय बनाएगा, ऐसे धर्म को मैं कभी भी स्वीकार नहीं करूँगा. क्यूंकि इस देश के इतिहास में मैं अपना उल्लेख विध्वंशक के नाते करवाने का इच्छुक नहीं हूँ.’[डॉ.अम्बेडकर और सामाजिक क्रांति की यात्रा; पृष्ठ-२७८]