गणतंत्र का कमजोर होता संस्थागत ढांचा

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प्रमोद भार्गव

republic day              इस गणतंत्र दिवस के ठीक पहले लोकसभा द्वारा विधायिका को कमजोर करने के एक साथ दो प्रकरण सामने आए हैं। एक राजनीतिक दलों को सूचना के अधिकार से बाहर रखने सबंधी विधेयक ससंद में पेश किया जाना और दूसरा, दागी सांसद व विधायकों को निर्वाचन प्रक्रिया से बाहर करने वाली जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 8 (4) को खत्म करने की कार्यवाही को पुनर्याचिका के जरीए चुनौती देना। आर्इएएस अधिकारी दुर्गा शक्ति नागपाल के निलंबन को भी विधायिका द्वारा कार्यपालिका को कमजोर करने के दृष्टिकोण से देखा जा रहा है। इन स्थितियों ने संदेह पैदा किया है कि विधायिका ऐसे लोगों के लिए काम कर रही है जो एक तो अभिजात्य हैं और दूसरे प्राकृतिक संपदा अथवा सरकारी लूटतंत्र से जुड़े हैं। विधायिका लोक और विधान सभाओं में ऐसे ही लोगों और समूहों से समझौता करती दिखार्इ देती है। यही प्रक्रिया बहुराष्ट्रीय कंपनीयों के एकाधिकार को मजबूत कर रही है। इसी का परिणाम है कि लोकतांत्रिक संस्थाएं आम आदमी के विश्वास पर खरी नहीं उतर रहीं।

गणतंत्र की मूल संवैधानिक अवधारणा का आशय देश की समस्त जनता को समानता के अधिकार सहजता से सुलभ हो, इस दृष्टि से रचा गया था। जिसका मूल मंत्र था, लोगों का, लोगों के लिए, लोगों के द्वारा निर्वाचित शासन-प्रशासन व्यव्यस्था हो। ताकि भूख,अन्याय और असमानता से निर्विकार रूप से निपटा जा सके। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। अंग्रेजी राज में जो सामंत थे,अभिजात्य थे, वही लोकतांत्रिक प्रक्रिया में ढलकर नए सामंती अवतार में प्रगट हो गए। उनके समानांतर ही अन्य राजनेता, बड़े अधिकारी और उधोगपतियों का कद बना दिया गया। इनमें से ज्यादातर बौने राष्ट्रीय संपतितयों का सामुहिक दोहन कर आदमकद बन बैठे। गैर-कानूनी ढ़ंग से सत्ता और पूंजी के मालिक बने यही लोग आदर्श और योग्यता के मानदण्ड मान लिए गए और कालांतर में यही लोकतांत्रिक संस्थाओं का आधिकारिक प्रतिनिधत्व करने लगे। स्वाभाविक है, जन और तंत्र के बीच सामाजिक सरोकार साधने की रूचि घटने लगी और दूरी बढ़ने लगी। प्रतिफल स्वरूप घूस का एक देशव्यापी अघोषित तंत्र भी खड़ा हो गया,जिसने अपने प्रभाव में लोकतंत्र को प्रभावी बनाए रखने वाले सभी स्तंभों को ले लिया। इतिहास का यही वह मोड़ था, जब तंत्र की ताकत के समक्ष गण द्वारा स्वंतत्रता के देखे सपने टूटने लगे और भारत, कुलीन इंडिया और अकुलीन भारत में विभाजित हो गया।

लोक द्वारा संसद व विधानसभाओं की गरिमा धूमिल करने वाले प्रतिनिधियों पर सवाल उठाए जाते हैं तो संसद की सर्वोच्चता के हनन का हवाला दिया जाने लगता है। जबकि हम देख रहे हैं, संसद में मुददाजन्य अर्थपूर्ण बहसों के बनिस्वत शोरगुल और हंगामे का चरम व्याप्त है। बिना बहस किए विधेयक पारित हो रहे हैं। दल और व्यक्ति से उपर उठकर देशहित में काम करने की षपथ लेने वाले मंत्री-सांसद पूर्वग्रही मानसिकता से काम कर रहे हैं। जबकि संविधान निर्माताओं ने बहुदलीय संसदीय प्रणाली स्वीकार करते हुए जन प्रतिनिधियों से र्इमानदार और तटस्थ भूमिका के निर्वहन की अपेक्षा की थी। लेकिन आज प्रतिनिधी सदनों में स्पष्ट रूप से दायित्व के विमुख दिखार्इ दे रहे हैं। अल्पमत सरकारें इतनी अलोकतंत्रिक हो गर्इ हैं कि वे सासंदो की खरीद-फरोख्त से बहुमत जुटाने में कोर्इ संकोच नहीं करती। उनका एकमात्र लक्ष्य रह गया हैं कि व्यापक देश व जनहित ठुकराने की शर्त पर भी ऐन-केन प्रकारेण सत्ता में बने रहें। यही वजह है,हम न तो आतंरिक समस्याओं से निपट पा रहे हैं और न ही सीमांत समस्याओं से ? इसलिए संसद अप्रासंगिक दिखार्इ दे रही है। इस तथ्य की पुष्टि इस बात से भी होती है कि राज्यसभा के सभापति को हंगामे के दौरान कहना पड़ा, कि सम्मानित सदस्य क्या सदन को अराजकतावादियों का महासंघ बना देना चाहते हैं? यह टिप्पणी असिमतावादी दलों को गंभीरता से लेने की जरुरत है।

कुछ सालों से न्यायपालिका की सक्रियता जनता-जर्नादन को लुभा रही है। 2 जी, कोयला, आदर्श सोसायटी और राष्ट्रमण्डल खेलों में की गर्इ गड़बडियों के परिप्रेक्ष्य में आला अधिकारियों और मंत्रियों को जिस मुस्तैदी से उच्चतम न्यायालय ने कठघरे में खड़ा किया है, उस क्रम में अवाम को न्यायालय से आस बंधी है। संविधान की संहिताओं और विधेयकों की धाराओं के विरोधाभास को दूर करने का परिणाम था कि न्यायालय ने जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 8 (4) को विलोपित करके अपराधी नेताओं के लिए संसद व विधानसभाओं के द्वारा बंद कर दिए गए हैं। किंतु सरकार ने इस धारा की पुनर्बहाली के लिए पुनर्याचिका दाखिल कर दी है। जाहिर है, खुदगर्ज सर्वदलीय राजनेता सर्वसम्माति से मनमानी पर उतारू हैं। कुछ ऐसे ही निर्णयों के चलते आजादी के इन पैंसठ सालों में न्यायपालिका ने लोकहितकारी भूमिका का निर्वहन किया है। यही कारण है कि न्यायपालिका पर आम लोगों का विश्वास बढ़ा है। लेकिन न्यायपालिका इस बेहतर भूमिका में इसलिए आ पार्इ, क्योंकि हमारे अन्य स्तंभो का संस्थागत ढ़ांचा छीजता चला जा रहा है। बांकी ऐसा नहीं है कि न्यायपालिका निर्विवाद है। न्यायपालिका ने खुद को अब तक सूचना के अधिकार के दायरे से बाहर रखकर यह संदेश दिया है कि वह अपनी सरंचना की कमजोरियों पर पर्दा डाले रखना चाहती है। जबकि भ्रष्टाचार और पक्षपात न्यायलय परिसरों से भी बाहर आते रहे हैं। लेकिन न्यायपालिका के पास अवमानना की जो विलक्षण चाबुक है, उससे अन्य स्तंभो का भयभीत बने रहना स्वाभाविक है। लेकिन इस एकाधिकार का परिणाम यह है कि कर्इ न्यायाधीश खुद को सर्वोच्च समझने लगे हैं। न्याय के क्षेत्र में यह सर्वोच्चता उचित नहीं है।

आजादी के बाद ऐसी कर्इ बार स्थितियां निर्मित हुर्इं, जिनके चलते लोकशाही तानाषही में बदल सकती थी। किंतु कार्यपालिका ने इसे नियंत्रित करने का काम किया। न्यायपालिका भी इस परिप्रेक्ष्य में सचेत रही। बावजूद कार्यपालिका की सरंचना में अनेक नकारात्मक परिवर्तन आए हैं। भ्रष्टाचार और लालफीताशाही बढ़ी है। राजनेता, अधिकारी और उधोगपतियों का गठजोड़ माफियागिरी की भूमिका में भी दिखार्इ देता है। फिर भी राष्ट्र बनाम राज्य की संवैधानिक परिकल्पना में कार्यपालिका की अहम भूमिका है। केंद्र शासित संघीय ढांचा इसी स्तंभ पर खड़ा है। अशोक खेमका और दुर्गाशक्ति नागपाल जैसे भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी राजनेताओं की स्वेच्छाचारित पर कानूनी लगाम लगाकर इनके साम्राज्यवादी मंसूबों पर पानी फेरने का काम कर रहे हैं। बावजूद कार्यपालिका को और ज्यादा निष्पक्ष और पारदर्शी होने की जरूरत है। कल्याणकारी राज्य की स्थापना कार्यपालिका के बूते ही संभव है, क्योंकि यही वह स्तंभ है, जिसकी अंतत:प्रशासनिक व्यवस्था संविधान की सबसे छोटी र्इकार्इ पंचायत तक कायम रहती है।

पूंजी के दबाव में होने के बावजूद खबरपालिका लोकतंत्र को मजबूत बनाने का काम कर रही है। अन्ना हजारे के आंदोलन और निर्भया के साथ हुए दुराचार को इसी मीडिया ने हवा दी। न्यायपालिका के सुर में सुर मिलाकर भ्रष्टाचार के पर्दाफाश में भी मीडिया लगा है। मानवाधिकारों के हनन और गरीबों के दमन की आवाज भी मीडिया है। उत्तराखण्ड की प्राकृतिक त्रासदी हो या सीमा पर बिना लड़े शहीद हो रहे सैनिकों की घटनाएं, मीडिया हर जगह जोखिम उठाकर पहुंच रहा है। बावजूद मीडिया अतिवाद की गिरफत में है। भ्रष्टाचार का सीधा खुलासा करने की बजाए, वह आरटीआर्इ के जरिए सामाजिक कार्यकर्ता जो सूचनाएं जुटा रहे हैं, उन्हें समाचार का आधार बना रहा है। जनहित याचिकाएं भी समाचार की स्त्रोत हैं। ये स्थितियां इस बात की प्रतिक हैं कि पूंजी के वर्चस्व ने उसे सुविधाभोगी और पराश्रित बना दिया है। न्यायपालिका के बाद खबरपालिका ही है जो आम जनता में उम्मीद की भूख जगाती है। लेकिन प्रजातंत्र में समाचार की भूमिका तभी सार्थक हो सकती है,जब पत्रकार की पहुंच ग्राम और पंचायत तक बनार्इ जाएं। फिलहाल राष्ट्रीय चैनलों से ग्राम और पंचायत नदारद हें। जबकि सर्वोच्च न्यायालय ओड़ीसा की नियमागिरी पहाडि़यो में उत्खनन के सिलसिले में गा्रमसभा की स्वायत्त भूमिका सुनिश्चित कर चुकी है। इधर मीडिया ने पेड न्यूज में लिप्त होकर अपनी साख और विश्वासनीयता को हानि पहुंचार्इ है। मीडिया को इस दुर्गुण से उबरने की जरुरत है।

1 COMMENT

  1. कृपया गणतंत्र की जगह स्वतंत्रता लिख भूल सुधार करें….

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