जीवन को अपसेट नहीं, परफेट बनाये

0
208

ललित गर्ग

आज सुविधाओं का बहुत विस्तार हुआ है, जो साधन किसी समय में विरले व्यक्तियों के लिए सुलभ थे, वे आज सर्वसाधारण के लिए सुलभ हैं, आज साधारण परिवारों में भी टी.वी. है, लेपटाप है, मोबाइल है, कार है, सोफा-सेट है, गोल्डन-सेट है, डायमण्ड-सेट है, पर इन सारे कीमती सेटों के बावजूद मन ‘अपसेट’ है? व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन में तनाव, टकराव और बिखराव बढ़ रहे हैं। हमारे जीवन में मन की शांति साधन-सुविधाओं से भी अधिक महत्वपूर्ण है, लेकिन हमारा ध्यान उस ओर नहीं जा रहा है। नतीजा इंसान का मिजाज बिगड़ रहा है, जिससे वह स्वयं भी अशांत रहता है, पारिवारिक जीवन भी अशांत और अव्यवस्थित रहता है और इसका प्रभाव समाज एवं देश में भी देखने को मिलता है।
‘मूड-आॅफ’ की बात मम्मी-पापा ही नहीं, छोटे-छोटे बच्चों में देखने को मिलती है। जब तक मन को प्रशिक्षित, संतुलित और अनुशासित बनाने की दिशा में मानव समाज जागरूक नहीं होगा, तब तक बौद्धिक और आर्थिक समृद्धि भी तलवार की धार बन सकती है, विकास और उल्लास का साधन नहीं होकर विषाद और विनाश का कारण हो सकती है। जीवन अवसर नहीं, अनुभव का नाम है। हर समय की तेरी-मेरी, हार-जीत और हरेक चीज को अपने काबू में करने की उठापटक बेचैनी के सिवा कुछ नहीं देती। हर पल आशंकाओं से घिरा मन जिंदगी के मायने ही नहीं समझ पा रहा है। ओशो तो कहते हैं कि जीवन तथ्य नहीं, केवल एक संभावना है-जैसे बीज, बीज में छिपे हैं हजारों फूल, पर प्रकट नहीं, अप्रकट हैं। बहुत गहरी खोज करोगे तो ही पा सकोगे।
किसी न किसी रूप में दुख हरेक की जिंदगी में होता है। कई बार कचोट इतनी गहरी होती है कि जैसे-जैसे समय बीतता है, उसकी कड़वाहट हर चीज को अपनी गिरफ्त में लेने लगती है। पर दार्शनिक रूमी कहते हैं, ‘ देखना, तुम्हारे दुख और दर्द जहरीले न हो जाएं। अपने दर्द को प्रेम और धैर्य के धागे के साथ गूंथना।’ ऐसा करने का एक ही माध्यम है मन को समझाना, उसे तैयार करना। मन के संतुलन एवं सशक्त स्थिति से, मन की भावना और कल्पना से ही मनुष्य सम्राट और भिखारी होता है। जिसका मन प्रसन्न और स्वस्थ है, वह अकिंचन होकर भी सम्राट है। जो अशांति और व्याकुलता के दावानल में जलता रहता है, वह संपन्न और समृद्ध होकर भी भिखारी के समान है। मानसिक स्वास्थ्य एवं संतुलन के अभाव में थोड़ी-सी प्रतिकूलता भी व्यक्ति को भीतर से तोड़ देती है। उस स्थिति में जीना भी भार प्रतीत होने लगता है। ऐसे लोगों के सिर संसार की कोई भी शक्ति आलंबन नहीं हो सकती। ‘मन के जीते जीत है, मन के हारे हार’-यह कहावत बिल्कुल सही है। अनुकूलता और प्रतिकूलता, सरलता और कठिनता तथा सुख व दुःख की अनुभूति के साथ मन की कल्पना का संबंध निश्चित होता है।
जिस प्रकार दिन और रात का अभिन्न संबंध है उसी प्रकार सुख-दुःख, हर्ष-शोक, लाभ-अलाभ व संयोग-वियोग का संबंध भी अटल है। हमें सच्चाई को गहराई से आत्मसात् करना चाहिए। किसी भी व्यक्ति और परिस्थिति के प्रति शिकायत, ईष्र्या, धृणा, द्वेष और गिला-शिकवा की भाषा में नहीं सोचना चाहिए। जब मन में शांति के फूल खिलते हैं, तो कांटों में भी फूलों का दर्शन होता है। जब मन में अशांति के कांटे होते हैं तो फूलों से भी चुभन और पीड़ा का अनुभव होता है।
कहा जाता रहा है- ईष्र्या मत करो, धृणा और द्वेष मत करो। क्योंकि ये समस्या के कारण हैं। यह उपदेश धर्म की दृष्टि से ही नहीं, स्वास्थ्य की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण बन गया है। विज्ञान ने यह प्रमाणित कर दिया है- जो व्यक्ति स्वस्थ रहना चाहता है, उसे निषेधत्मक भावों से बचना चाहिए। बार-बार क्रोध करना, चिड़चिड़ापन आना, मूड का बिगड़ते रहना- ये सारे भाव हमारी समस्याओं से लडने की शक्ति को प्रतिहत करते हैं। इनसे ग्रस्त व्यक्ति खुशियों से वंचित होकर बहुत जल्दी बीमार पड़ जाता है। खुशियों की एक कीमत होती है। लेकिन अच्छी बात यह है कि सर्वश्रेष्ठ खुशियों का कोई दाम नहीं होता। जितना हो सके झप्पियां, मुस्कराहटें, दोस्त, परिवार, नींद, प्यार, हंसी और अच्छी यादों के खजाने बढ़ाते रहें।
धूप और छांव की तरह जीवन में कभी दुःख ज्यादा तो कभी सुख ज्यादा होते हैं। जिन्दगी की सोच का एक महत्वपूर्ण पक्ष यह भी है कि जिन्दगी में जितनी अधिक समस्याएं होती हैं, सफलताएं भी उतनी ही तेजी से कदमों को चुमती हैं। बिना समस्याओं के जीवन के कोई मायने नहीं हैं। समस्याएं क्यों होती हैं, यह एक चिन्तनीय प्रश्न है। यह भी एक प्रश्न है कि हम समस्याओं को कैसे कम कर सकते हैं। इस प्रश्न का समाधान आध्यात्मिक परिवेश में ही खोजा जा सकता है।
अति चिन्तन, अति स्मृति और अति कल्पना- ये तीनों समस्या पैदा करते हैं। शरीर, मन और वाणी- इन सबका उचित उपयोग होना चाहिए। यदि इनका उपयोग न हो, इन्हें बिल्कुल काम में न लें तो ये निकम्मे बन जायेंगे। यदि इन्हें बहुत ज्यादा काम में लें, अतियोग हो जाए तो ये समस्या पैदा करेंगे। इस समस्या का कारण व्यक्ति स्वयं है और वह समाधान खोजता है दवा में, डाॅक्टर में या बाहर आॅफिस में। यही समस्या व्यक्ति को अशांत बनाती है। जरूरत है संतुलित जीवनशैली की। जीवनशैली के शुभ मुहूर्त पर हमारा मन उगती धूप की तरह ताजगी-भरा होना चाहिए, क्योंकि अनुत्साह भयाक्रांत, शंकालु, अधमरा मन समस्याओं का जनक होता है। यदि हमारे पास विश्वास, साहस, उमंग और संकल्पित मन है तो दुनिया की कोई ताकत हमें अपने पथ से विचलित नहीं कर सकती और सफलता का राजमार्ग भी यही है। व्यक्ति के उन्नत प्रयास ही सौभाग्य बनते हंै।
छोटे-छोटे सुख हासिल करने की इच्छा के चलते हम कई बार पूरे माहौल एवं जीवन को प्रभावित करते हैं, दूषित बना देते हंै। किसी के घर के आगे गाड़ी पार्क करने से लेकर पीने के पानी से वाहन की धुलाई करने तक, ऐसी ही नकारात्मकताएं पसरी है। ये उन्नत जीवन की राह में रोड़े हैं। हमें और भी कई तरह के गिले-शिकवे, निंदा, चुगली और उठा-पटक से गुजरना पड़ता है। गुस्सा आता है और कई तरह की कुंठाएं सिर उठाने लगती हैं। लेखक टी. एफ. होग कहते हैं, ‘ कुंठाओं से पार पाने का एक ही तरीका है कि हम बाधाओं की बजाय नतीजों पर नजर रखें।’ हम सबसे पहले यह खोजें- जो समस्या है, उसका समाधान मेरे भीतर है या नहीं? बीमारी पैदा हुई, डाॅक्टर को बुलाया और दवा ले ली। यह एक समाधान है पर ठीक समाधान नहीं है। पहला समाधान अपने भीतर खोजना चाहिए। एक व्यक्ति स्वस्थ रहता है। क्या वह दवा या डाक्टर के बल पर स्वस्थ रहता है? या अपने मानसिक बल यानी सकारात्मक सोच पर स्वस्थ रहता है? हमारी सकारात्मकता अनेक बीमारियों एवं समस्याओं का समाधान है। जितने नकारात्मक भाव (नेगेटिव एटीट्यूट) हैं, वे हमारी बीमारियांे एवं समस्याओं से लडने की प्रणाली को कमजोर बनाते हैं।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

* Copy This Password *

* Type Or Paste Password Here *

12,681 Spam Comments Blocked so far by Spam Free Wordpress