भारतीय संस्कृति के संवाहक स्वामी विवेकानंद

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-अरविंद जयतिलक

भारतीय समाज और राष्ट्र के जीवन में नवीन प्राणों का संचार करने वाले स्वामी विवेकानंद का जीवन जितना रोमांचकारी है उतना ही प्रेरणादायक भी। उन्होंने अपने विचारों से अतीत के अधिष्ठान पर वर्तमान का और वर्तमान के अधिष्ठान पर भविष्य का बीजारोपण कर देश की आत्मा को चैतन्यता से भर दिया। स्वामी जी का उदय ऐसे समय में हुआ जिस समय भारत के सामाजिक पुनरुत्थान के लिए राजाराम मोहन राय और शिक्षा के विकास के लिए ईश्वरचंद विद्यासागर जैसे अनगिनत मनीषी भारतीय समाज में नवचेतना का संचार कर रहे थे। स्वामी जी अपने विचारों के जरिए स्वधर्म और स्वदेश के लिए अप्रतिम पे्रम और स्वाभिमान का उर्जा प्रवाहित कर जाग्रत-शक्ति का संचार किया जिससे भारतीय जन के मन में अपनी ज्ञान, परंपरा, संस्कृति और विरासत का गर्वपूर्ण बोध हुआ। स्वामी जी की दृष्टि में समाज की बुनियादी इकाई मनुष्य था और उसके उत्थान के बिना वे देश व समाज के उत्थान को अधूरा मानते थे। उनका दृष्टिकोण था कि राष्ट्र का वास्तविक पुनरुद्धार मनुष्य-निर्माण से प्रारंभ होना चाहिए। मनुष्य में शक्ति का संचार होना चाहिए जिससे कि वह मानवीय दुर्बलताओं पर विजय प्राप्त करने में और प्रेम, आत्मसंयम, त्याग, सेवा एवं चरित्र के अपने सद्गुणों के जरिए उठ खड़ा होने का सामथ्र्य जुटा सके। वे सर्वसाधारण जनता की उपेक्षा को एक बड़ा राष्ट्रीय पाप मानते थे। 1893 में शिकागो में धर्म सम्मेलन (पार्लियामेंट आफॅ रिलीजन ) के दौरान उन्होंने स्पष्ट कहा कि ‘मेरी यह धारणा वेदान्त के इस सत्य पर आधारित है कि विश्व की आत्मा एक और सर्वव्यापी है। पहले रोटी और फिर धर्म। लाखों लोग भूखों मर रहे हैं और हम उनके मस्तिष्क में धर्म ठूंस रहे हैं। मैं ऐसे धर्म और ईश्वर में विश्वास नहीं करता, जो अनाथों के मुंह में एक रोटी का टुकड़ा भी नहीं रख सकता।’ उन्होंने सम्मेलन में उपस्थित अमेरिका और यूरोप के धर्म विचारकों व प्रचारकों को झकझोरते हुए कहा कि ‘भारत की पहली आवश्यकता धर्म नहीं है। वहां इस गिरी हुई हालत में भी धर्म मौजूद हैं। भारत की सच्ची बीमारी भूख है। अगर आप भारत के हितैषी हैं तो उसके लिए धर्म प्रचारक नहीं अन्न भेजिए।’ स्वामी जी गरीबी को सारे अनर्थों की जड़ मानते थे। इसलिए उन्होंने दुनिया को सामाजिक-आर्थिक न्याय और समता-समरसता पर आधारित समाज गढ़ने का संदेश दिया। वे ईश्वर-भक्ति और धर्म-साधना से भी बड़ा काम गरीबों की गरीबी दूर करने को मानते थे। एक पत्र में उन्होंने ने लिखा है कि ‘ईश्वर को कहां ढुंढ़ने चले हो। ये सब गरीब, दुखी और दुर्बल मनुष्य क्या ईश्वर नहीं है? इन्हीं की पूजा पहले क्यों नहीं करते ?’ उन्होंने स्पष्ट घोषणा की थी कि ‘गरीब मेरे मित्र हैं। मैं गरीबों से प्रीती करता हूं। मैं दरिद्रता को आदरपूर्वक अपनाता हूं। गरीबों का उपकार करना ही दया है।’ वे इस बात पर बल देते थे कि हमें भारत को उठाना होगा, गरीबों को भोजन देना होगा और शिक्षा का विस्तार करना होगा। स्वामी जी ने भारत के लोगों को संबोधित करते हुए शिकागो से एक पत्र में लिखा कि याद रखो की देश झोपड़ियों में बसा हुआ है, परंतु शोक! उन लोगों के लिए कभी किसी ने कुछ नहीं किया।’ स्वामी जी गरीबों को लेकर बेहद संवेदनशील थे। उन्होंने गुरु रामकृष्ण परमहंस के स्वर्गारोहण के बाद उनकी स्मृति में ‘रामकृष्ण मिशन’ की स्थापना की। मिशन का उद्देश्य गरीबों, अनाथों, बेबसों और रोगियों की सेवा करना था। जब उन्होंने मठ के सन्यासियों के समक्ष यह प्रस्ताव रखा तो उनका भारी विरोध हुआ। सन्यासियों ने तर्क दिया कि हम सन्यासियों को ईश्वर की आराधना करना चाहिए न कि दुनियादारी में पड़ना चाहिए। स्वामी जी सन्यासियों के उत्तर से बेहद दुखी हुए। उन्होंने कहा कि आपलोग समझते हैं कि ईश्वर के आगे बैठने से वह प्रसन्न होगा और हाथ पकड़कर स्वर्ग ले जाएगा तो यह भूल है। आंखे खोलकर देखों की तुम्हारे पास कौन है। स्वामी जी ने दरिद्र को दरिद्र नारायण कहा। उन्होंने कहा कि ‘आप अपना शरीर, मन, वचन सब कुछ परोपकार में लगा दो। तुमको पता है ‘मातृ देवो भव, पितृ देवो भव, अर्थात माता में ईश्वर का दर्शन करो। पिता में ईश्वर का दर्शन करो’ लेकिन मैं कहता हूं ‘दरिद्र देवो भव, मूर्ख देवो भव। अनपढ़, नादान और पीड़ित को अपना भगवान मानो और जानो कि इन सबकी सेवा करना ही सबसे बड़ा धर्म है।’ उनका मानना था कि मानवता के सत्य को पहचानना ही वास्तव में वेदांत है। वेदांत का संदेश है कि यदि आप अपने बांधवों अर्थात साक्षात ईश्वर की पूजा नहीं कर सकते तो उस ईश्वर की पूजा कैसे करोगे जो निराकार है। एक व्याख्यान में स्वामी जी ने कहा कि जब तक लाखों लोग भूखे और अज्ञानी हैं तब तक मैं उस प्रत्येक व्यक्ति को कृतध्न समझता हूं, जो उनके बल पर शिक्षित बना और उनकी ओर ध्यान नहीं देता है। उन्होंने सुझाव दिया कि इन गरीबों, अनपढ़ों, अज्ञानियों एवं दुखियों को ही अपना भगवान मानो। स्मरण रखो, इनकी सेवा ही तुम्हारा परम धर्म है। स्वामी जी आम आदमी के उत्थान के लिए धन का समान वितरण आवश्यक मानते थे। वे इस बात के विरुद्ध थे कि धन कुछ लोगों के हाथों में केंद्रीत हो। स्वामी जी अंग्रेजों द्वारा भारत के संसाधनों के शोषण से चिंतित थे और भारत की दुर्दशा का इसे एक बड़ा कारण मानते थे। स्वामी जी देश की तरक्की के लिए कषि और उद्योग का विकास चाहते थे। वे अकसर परामर्श देते थे कि रामकृष्ण मिशन जैसी संस्थाओं को निःस्वार्थ भाव से गरीबी से जुझ रहे किसानों की दशा में सुधार लाने वाले कार्यक्रम एवं परियोजनाएं हाथ में लेनी चाहिए। स्वामी जी इस मत के प्रबल हिमायती थे कि भारत का औद्योगिक विकास जापान की तरह विशेषताओं को सुरक्षित रखते हुए होना चाहिए। वे चाहते थे कि देश में स्वदेशी उद्योगों की स्थापना हो। एक बार उन्होंने उद्योगपति जमशेद जी टाटा से पूछा था कि आप थोड़े से फायदे के लिए विदेश से माचिस मंगाकर यहां क्यों बेचते हैं? स्वामी जी ने सुझाव दिया कि आप देश में ही माचिस की फैक्टरी और शोध संस्थान स्थापित करें। स्वामी जी के सुझाव का परिणाम रहा कि आगे चलकर जमशेद जी टाटा ने ‘टाटा इंस्टीट्यूट फाॅर रिसर्च इन फंडामेंटल साईंसेज’ की स्थापना की। स्वामी जी देश के आर्थिक विकास और नैतिक मूल्यों को एकदूसरे से आबद्ध चाहते थे। उनकी इच्छा थी कि भारत के उच्च शिक्षण संस्थाओं के पाठ्यक्रमों में विज्ञान व प्रौद्योगिकी के साथ वेदांत दर्शन भी समाहित हो। उनकी दृष्टि में वेदांत आधारित जीवन और आर्थिक विकास के बीच गहरा संबंध है। उनका मानना था कि भौतिक विज्ञान केवल लौकिक समृद्धि दे सकता है परंतु अध्यात्म विज्ञान शास्वत जीवन के लिए परम आवश्यक है। आध्यात्मिक विचारों का आदर्श मनुष्य को वास्तविक सुख देता है। भौतिकवाद की स्पर्धा, असंतुलित महत्वकांक्षा व्यक्ति तथा देश को अंतिम मृत्यु की ओर ले जाती है। स्वामी जी भारत को विकास के मार्ग पर ले जाने के लिए शिक्षा, आत्मसुधार, कल्याण केंद्रीत संगठन और क्रियाशीलता की प्रवृत्ति को आवश्यक मानते थे। स्वामी जी को देश से असीम प्रेम था। शिकागो से वापसी की समुद्री यात्रा के दौरान जब वह 15 जनवरी, 1897 को श्रीलंका का समुद्री किनारे पर पहुंचे और उन्हें बताया गया कि उस तरफ जो नारियल और ताड़-खजूर के पेड़ दिखायी दे रहे हैं वो भारत के हैं, स्वामी जी इतने भावुक हो गए कि जहाज के बोर्ड पर ही मातृभूमि की ओर साष्टांग प्रणाम करने लगे। स्वामी जी ने तीन भविष्यवाणियां की थी, जिनमें से दो-भारत की स्वतंत्रता और रुस में श्रमिक क्रांति सत्य सिद्ध हो चुकी हैं। स्वामी जी ने तीसरी भविष्यवाणी की है कि भारत एक बार फिर समृद्धि व शक्ति की महान ऊंचाइयों तक उठेगा। स्वामी जी का मातृभूमि से तादातम्य संपूर्ण था। वे स्वयं को ‘घनीभूत भारत’ कहते थे। स्वामी जी की शिष्या भगिनी निवेदिता ने अपनी मातृभूमि से उनके सम्मिलन को अभिव्यक्त करते हुए कहा है कि ‘भारत स्वामी जी का गहनतम अनुराग रहा है, भारत उनके वक्ष पर धड़कता है, भारत उनकी नसों में स्पंदन करता है, भारत उनका दिवास्वप्न है, भारत उनका निशाकल्प है, वे भारत का रक्त-मज्जा से निर्मित साक्षात शरीररुप हैं, वे स्वयं ही भारत हैं।’

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