मीडिया का पतन लोकतंत्र पर आघात

1
251

तनवीर जाफ़री 
    विश्व के 165 स्वतंत्र देशों में हुए शोध के अनुसार पांच विभिन्न मापदंडों के आधार पर तैयार की गई एक रिपोर्ट के मुताबिक भारतवर्ष वैश्विक लोकतंत्र सूचकांक में दस पायदान नीचे चला गया है। 2017 में यह 42वें स्थान पर था। ब्राऊन विश्वविद्यालय के प्रोफेसर जेएफ हालगोन द्वारा किए गए एक विस्तृत शोध के अनुसार किसी भी देश के लोकतांत्रिक मूल्यों की गिरावट का परीक्षण करने के दस मापदंड निर्धारित किए गए हैं। इस सूची में सर्वप्रथम मीडिया पर लगाम लगाने की सुनियोजित कोशिश का जि़क्र है तो दूसरे नंबर पर अधिकारिक रूप से सरकार समर्थित मीडिया नेटवर्क होने की बात कही गई है। इसके अतिरिक्त सिविल सेवा,सेना व सुरक्षा एजेंसियों का राजनीतिकरण, प्रमुख नेताओं के विरुद्ध निगरानी के लिए सरकारी मशीनरी का प्रयोग,विपक्ष को शत्रु के रूप में प्रस्तुत करने की प्रवृति, सर्वोच्च न्यायालय को अपने अनुकूल बनाने का प्रयास,केवल एक पक्ष के समर्थन में कानून लागू करवाना,व्यवस्था के साथ छोड़छाड़ कर उसे पक्ष में करने के लिए नियंत्रित करना,भय का वातावरण बनाना तथा राज्य की शक्तियों का प्रयोग कर कारपोरेट समर्थकों को पुरस्कृत करना आदि बातें भी लोकतांत्रिक मूल्यों में गिरावट नापने के पैमाने में शामिल हैं।
    भारतवर्ष की वर्तमान लोकतांत्रिक व्यवस्था को यदि हम उपरोक्त मापदंडों के अनुसार परखने की कोशिश करें तो हमें यह जानकर आश्चर्य होगा कि दुर्भाग्यवश हमारा देश भी इस समय लोकतांत्रिक मूल्यों में होती जा रही गिरावट का सबसे बड़ा शिकार है। 1975 में घोषित किया गया आपातकाल भारतीय मीडिया के इतिहास में काले दिनों के रूप में दर्ज है। परंतु वह एक घोषित एवं अधिकारिक रूप से लगाया गया आपातकाल था जिसमें केवल मीडिया ही नहीं बल्कि देश के सभी तंत्रों पर शिकंजा कसने की कोशिश की गई थी। ज़ाहिर है मीडिया भी उन्हीं में एक था। हालांकि आपातकाल किन परिस्थितियों में लगाया गया यह एक अलग बहस का विषय है। परंतु निश्चित रूप से मीडिया की आज़ादी का गला घोंटना लोकतांत्रिक मूल्यों पर सीधा प्रहार है जो 1975 में इंदिरा गांधी के शासनकाल किया गया। और 1977 में आपातकाल हटने के बाद इंदिरा गांधी को लोकतांत्रिक मूल्यों का गला घोटने के इस प्रयास का खमियाज़ा भी भुगतना पड़ा। देश का लगभग समूचा विपक्ष तथा सारे मीडिया घराने एकजुट होकर इंदिरा गांधी की उस सत्ता को उखाड़ फेंकने में सफल रहे जिसके बारे में यह माना जाता था कि ‘इंदिरा की सत्ता अजेय सत्ता है’।
    परंतु आज देश में न तो आपातकाल की स्थिति है न ही देश में 1975 के पहले का वह वातावरण है जिसमें चारों ओर रेल हड़ताल, औद्योगिक क्षेत्रों की तालाबंदियां या बड़े पैमाने पर अराजकता फैलने जैसा वातावरण दिखाई दे रहा हो। वर्तमान सत्ता के लिए इस समय सबसे महत्वपूर्ण केवल यह है कि वह किस प्रकार 2019 में भी अपनी सत्ता को कायम रख सके। और दूसरा प्रयास यह है कि कश्मीर से कन्याकुमारी तक देश के सभी राज्यों में इनकी सत्ता सुनिश्चत हो? इसके अलाव अप्रत्यक्ष रूप से वर्तमान केंद्रीय सत्ता एक ऐसे संगठन से संरक्षण प्राप्त है जिसका उद्देश्य देश को हिंदू राष्ट्र में परिवर्तित करना है। अपने इसी दूरगामी लक्ष्य को हासिल करने के लिए सत्ता की ओर से लगभग प्रत्येक वह कदम उठाए जा रहे है जो लोकतांत्रिक मूल्यों में गिरावट के कारक बन सकते हैं। देश में सरकारी धन से संचालित होने वाले दूरदर्शन लोकसभा और राज्यसभा टीवी,आकाशवाणी आदि हालांकि जनता के पैसों से चलाए जाने वाले सरकारी मीडिया नेटवर्क हैं। पत्रकारिता अथवा मीडिया के सिद्धांतों के अनुसार इन्हें भी निष्पक्ष पत्रकारिता का ही प्रदर्शन करना चाहिए। परंतु आमतौर पर इन्हें सरकारी भोंपू ही कहा जाता है। इसी दूरदर्शन को राजीव गांधी के शासन में विपक्ष राजीव दर्शन के नाम से पुकारा करता था।
    परंतु आज न केवल इन सरकारी माध्यमों की निष्पक्षता पर सवाल खड़े हो चुके हैं बल्कि देश के मुख्य धारा के अनेक टीवी चैनल व मीडिया समूह इस समय पूरी तरह पक्षपातपूर्ण पत्रकारिता करने में जुटे हुए हैं। कल अगर एक सरकारी चैनल को राजीव दर्शन कहा जाता था तो आज अधिकांश टीवी चैनल मोदी दर्शन बनकर रह गए हैं। बिना आपातकाल के ही अधिकांश टीवी एंकर्स अपने चैनल पर मोदी का ऐसा कसीदा पढ़ रहे हैं तथा संघ के विभाजनकारी एजेंडे पर इस तरह काम कर रहे हैं गोया ऐसे मीडिया संचालकों में ज़मीर नाम की कोई चीज़ ही न बची हो? जिस मीडिया को देश में सद्भाव व अमन-शांति व सांप्रदायिक सौहाद्र्र की बातें करनी चाहिए उसी मीडिया द्वारा सांप्रदायिकता फैलाने वाली तथा दो समुदायों के बीच रेखाएं खींचने वाली बातें चीख़-चीख़ कर की जा रही है। हद तो यह है कि पिछले चार सालों के भीतर कई बार टीवी स्टूडियो में हाथापाई,धक्कामुक्की व गाली-गलौच जैसे दृश्य भी देखे जा चुके हैं। कई ऐसे मामले सामने आ चुके हैं जिसमें किसी मीडिया समूह के मालिक ने किसी ऐसे एंकर की छुट्टी कर दी जिसने किसी ‘सरकारी मेहमान’ के साक्षात्कार के समय कुछ ऐसे चुभते सवाल कर लिए जिसका जवाब देना उसके लिए असहज था। देश के कई लेखकों व पत्रकारों को सिर्फ इसीलिए मौत के घाट  उतार दिया गया क्योंकि वह व्यवस्था के खिलाफ स्वर बुलंद कर लेखन व पत्रकारिता की अपनी वास्तविक जि़म्मेदारी निभा रहे थे।
    हद तो यह है कि सरकार के प्रति वफादारी का प्रदर्शन करने के लिए तथा चाटुकारिता की पराकाष्ठा तक पहुंचने के लिए कुछ गैर पेशेवर पत्रकार भी पत्रकार का चोला ओढक़र मैदान में कूद पड़े हैं और वे प्रधानमंत्री तक से साक्षात्कार कर रहे हैं और उनसे यह प्रश्र कर रहे हैं कि-‘आपमें फकीरी कहां से आई’? दस लाख रुपये की कीमत का सूट पहनने वाले प्रधानमंत्री से जब कोई तथाकथित पत्रकार ऐसा सवाल करे तो देश की मीडिया की जर्जर होती अवस्था पर निश्चित रूप से तरस आना ही है। मुख्यधारा के कई चैनल्स के कई प्रमुख पत्रकार ऐसे भी हैं जिन्हें सरकार के किसी भी काम में कोई कमी नज़र नहीं आती न ही उन्हें व्यवस्था में कुछ अपूर्ण दिखाई देता है। उनका मकसद केवल सत्ता का गुणगान करना और इसी रास्ते पर चलकर मालिक की झोली में करोड़ों रुपये प्रतिदिन की विज्ञापन की सौगात भर देना तथा संभव हो तो अपने मालिक के लिए राज्यसभा की सदस्यता के दरवाज़े खुलवा देना आदि प्रयास शामिल हैं। मुझे नहीं मालूम दुनिया के किस विश्वविद्यालय में पत्रकारिता में चाटुकारिता,पक्षपात व केवल धनार्जन जैसे अनैतिक पाठ पढ़ाए जाते हैं।
    इस समय भारतीय मीडिया अत्यंत दयनीय दौर से गुज़र रहा है। यह स्थिति घोषित आपातकाल की स्थिति से भी अधिक खतरनाक हैं। ऐसा नहीं है कि गुमराह हो चुका मीडिया व उसके संचालकगण इन बातों से वािकफ नहीं हैं। परंतु पैसों की लालच व झूठी प्रशंसा तथा मान-सम्मान व पुरस्कार पाने आदि की ललक ने मीडिया जैसे पवित्र व निष्पक्ष पेशे को कलंकित करने का पूरा प्रयास किया है। संभव है इस प्रकार के मीडिया घराने व उनसे जुड़े चाटुकार लोग कुछ समय के लिए इसका लाभ उठाने में भी सफल हो जाएं। परंतु जब कभी भी देश के वर्तमान दौर का इतिहास लिखा जाएगा उस समय आज के सत्ता के यही दलाल,चाटुकार व चापलूस पत्रकारिता करने वाले लोग व घराने वर्तमान दौर की पत्रकारिता के सबसे बड़े कलंक माने जाएंगे l

1 COMMENT

  1. जाफरी साहब,मैं ज्यादा राजनीति तो नहीं जानता फिर भी एक छोटी सी बात कहना चाहूँगा कि इस तरह की पत्रकारिता किसने शुरु की ।रही बात दस हजार के सूट की,
    यार वो एक मुल्क के वजीरे आज़म हैं, अन्तरजीय स्तर पर साख है,इस तरह की पत्रकारिता यदि आप करेंगें ऐसा तो हम सोच भी नहीं सकते,हम तो आपकी बहुत इज्जत करते हैं,मैं मोदी भक्त नहीं हूँ लेकिन मैं समाज में कुछ सुधार कर सकता हूँ तो मैं जरुर करूंगा और शायद सभीको करनी चाहिए

    धन्यवाद

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

* Copy This Password *

* Type Or Paste Password Here *

13,051 Spam Comments Blocked so far by Spam Free Wordpress