‘मुहावरा रह गई दाल-रोटी’

-भरतचंद्र नायक-  indian-agriculture1_738

हर मुल्क का आत्मदर्शन, प्रतिबद्धताएं और वर्जनाएं होती हैं जो कौम की दिशा निर्देश बनती है। भारत में दाल रोटी की पूर्ति करने के लिए आजीविका चलते रहना हमारे परम संतोष का विषय रहा है। इसलिए खेती को आजीविका के बजाय धर्म और संस्कृति के रूप में आत्मसात किया गया है। आाजदी के पश्चात खेती का देश के सकल उत्पाद में 65 प्रतिशत अंश था। प्रोटीन के रूप में दाल मुख्य रूप से भोजन का भाग था, लेकिन बिडंवना है कि जैसे-जैसे प्रोटीन के रूप में आयातीत वस्तुओं का चलन बढ़ा आम आदमी की थाली से दाल की मात्रा घटती गयी और जब हमनें 21वीं शताब्दी की दहलीज पर कदम रखा है। आर्थिक उदारीकरण ने भारतीय की जीवन सहचरी दाल को भी थाली से गायब कर दिया है। केन्द्र सरकार दलहन और तिलहन को अपनी प्राथमिकता वाले उत्पादों की सूची में शामिल कर चुकी है। लेकिन इस मामलें में राष्ट्रीय प्रतिबद्धताएं हाथी के दांत बन चुकी है। हर वर्ष बजट में दलहन-तिलहन के विशेष उत्पादन के लिए प्रोत्साहन बजट का दिखावा किया जाता है। रस्मी कसमें खायी जाती हैं और दिन व दिन इनकी कमी बढ़ती जा रही है। 40 हजार करोड़ रू. मूल्य की दाल का आयात विवशता बन चुकी है।

सच्चाई तो यह है कि भारत जैसे कृषि प्रधान देश में जहां 70 से 80 प्रतिशत आबादी खेती पर निर्भर है, राष्ट्रीय कृषि नीति नहीं है। हर देश में निर्यात-आयात नीति कृषि चक्र से जुड़ी होती है, लेकिन दुर्भाग्य है कि भारत में खेती आकाश वृत्ति बनकर रह गयी है। यही कारण है कि तमाम आसमानी-सुल्तानी के बाद जब देश में रबी और खरीफ की फसल आती है, कृषि उत्पादनों के दाम लागत मूल्य से नीचे गिर जाते हैं। कर्ज ग्रस्त किसान बिचौलियों, मुनाफाखोरों के शोशण का शिकार बनते है। सरकार समर्थन मूल्य तय करती है लेकिन पहले तो इसके निर्धारण में किसानों की भागीदारी न होने से किसान के माफिक समर्थन मूल्य (खरीदी) तय नहीं हो पाते, दूसरे इस खरीद से केन्द्र अपना पल्ला झाड़ती है। देश में मध्य प्रदेश एकमात्र राज्य है जिसने किसान की चिंता को गंभीरता पूर्वक लिया है और गेहूूं, धान व मक्का जैसी फसलों पर समर्थन मूल्य पर अतिरिक्त बोनस 150 रू. प्रति क्विंटल देकर किसानों के आंसू पोंछे है। किसान की इस पीड़ा पर अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने संवेदना व्यक्त करते हुए कृषि विज्ञानी डॉ. स्वामीनाथन की अध्यक्षशता में आयोग बनाया था। आयोग ने अपना प्रतिवेदन सौंपते हुए केन्द्र सरकार से आग्रह किया था कि किसान के लागत मूल्य पर 50 प्रतिशत लाभांश जोड़कर समर्थन मूल्य तय किया जायेगा। एनडीए की सरकार के जाने के बाद कांग्रेसनीत यूपीए सरकार ने स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट कचरे में डाल दी कदाचित यह देश के अन्नदाता के साथ सबसे बड़ा अन्याय और निर्मम प्रहार बन चुका है।
देश प्रोटीन की कमी का संकट झेल रहा है। दाल के उत्पादन में जिस रफ्तार से वृद्धि की अपेक्षा थी, नहीं हो पा रही है। आज आम आदमी की दाल पौष्टिक खुराक न रहकर दाल का सेवन तीज-त्यौहार पर व्यंजन के रूप में किया जाने लगा है। इसका कारण हमारे देश की किसान विरोधी नीतियां है। राजनेताओं और नौकरषाहों को आयात की लत पड़ चुकी है, क्योंकि आयात अघोषित रूप से लाभप्रद और कमाई का जरिया बनाया जा चुका है। आजादी के बाद तेल का उत्पादन वर्मा में चला गया। राष्ट्रीय सरकार ने तेल के विकास की प्रतिबद्धता में कमी की, जिससे 70 प्रतिशत पेट्रोलियम उत्पाद के आयात पर अधिकाश बजट खर्च हो जाता है। अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने तेल उत्पादक खाड़ी के देशों में तेल के ब्लाक खरीदे थे और एनडीए सरकार की मंशा थी कि इससे देश को 30 से 40 प्रतिशत पूर्ति कर आयात में कटौती कर विदेशी मुद्रा बचाई जा सकेगी। लेकिन 2004 में यूपीए सरकार ने इस प्रतिबद्धता को पलीता लगा दिया और नॉर्थ ब्लॉक में बैठकर खाड़ी के शेखों और अमीरों से मनमाफिक सौदा करने की आजादी को जमकर भुनाया। आयात कर्म दुधारू गाय के रूप में इस्तेमाल हो रहा है। देश में दलहन की पूर्ति के लिए सोयाबीन, तुअर, चना दाल का बहुतायत से उपयोग होता है। चना का उत्पादन अच्छा होने की प्रत्याशा में समर्थन मूल्य पर खरीदी का दाम 3100 रू. प्रति क्विंटल तय करने के साथ ही केन्द्र सरकार सो गयी। विपणन के बारें में फैसले के अभाव और चना दाल की आयातित खेप के आने से चना के दाम घटकर 2300 रू. क्विंटल पहुंच गये। किसान बाजार के रहमों करम पर निर्भर होकर रह गया है।

मध्यप्रदेश देश का दूसरे नंबर का बड़ा चना उत्पादक प्रदेश है। राज्य सरकार ने खेती को लाभ का व्यवसाय बनाने की प्रतिबद्धता को साबित करते हुए केन्द्र सरकार के असहयोग के बावजूद किसानों को प्रोत्साहन की कुछ प्रतिबद्धताएं निर्धारित की है। इसीका नतीजा है कि मध्यप्रदेश कृषि कर्मण अवार्ड से दूसरी बार सम्मानित हुआ है। चना की समर्थन मूल्य पर खरीदी की व्यवस्था करके अपने खजाने से किसानों की भरपायी करने की किसान परस्त पहल से किसानों के आंसू पोंछने की राज्य सरकार हिम्मत जुटा रही है। लेकिन केन्द्र सरकार पीछे हट गयी है, वह सिर्फ खाद्य सुरक्षा की बात करती है। लेकिन वास्तविकताएं क्या संकेत देती हैं, उससे अनभिज्ञ हैं। देश में दलहन के रकबे में निरंतर कमी आ रही है। 1965-66 में देश में 227.2 लाख हेक्टेयर पर दलहन की काश्त होती थी। 2005-06 में चना उत्पादन क्षेत्र घटकर 223.1 लाख हेक्टेयर रह गया है।
विश्व में दलहन उत्पादन में भारत का योगदान 26.1 प्रतिशत था जो लगातार घटता गया और भारत म्यांमार, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया से दालें आयात कर विदेशी मुद्रा खर्च कर रहा है। अघोषित रूप से यह डंक्ल प्रस्ताव में 5 प्रतिशत कृषि उत्पाद की आयात से पूर्ति का पालन कहा जा सकता है। लेकिन दाल की महंगाई के कारण देश के उपभोक्ता दाल के स्वाद से वंचित हो रहे हैं। मजे की बात यह है कि दाल का आयात घोषित करके केन्द्र की सत्ताधीन पार्टी जनता को दिलासा जरूर देती है। लेकिन आयातित दाल जब तक बंदरगाह पहुंचती है, किसान की नई फसल आने का मौसम आ जाता है, किसान फिर अपने भाग्य को कोसता रह जाता है क्योंकि दाम गिरने लगते हैं। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद की बात पर गौर करें तो निराशा होती है। देश में प्रमाणित दाल के बीज की मांग जब 13 लाख क्विंटल होती है, हम पूर्ति मात्र 6 क्विंटल भी नहीं कर पाते। कारण स्पष्ट है कि हम आपने को कृषि प्रधान देश कहकर गौरवान्वित होते हैं, लेकिन 67 वर्षों में कृषि नीति नहीं बना पाये। कृषि कैबिनेट गठित नहीं कर सके। कृषि का प्रथक बजट बनाना दूर की कौड़ी है। देश का यह भी बड़ा दुर्भाग्य है कि कृषि सुरक्षा, खाद्य सुरक्षा, किसानी को लाभप्रद व्यवसाय बनाने पर बहसें होती हैं। लेकिन यह राजनैतिक चुनाव का मुद्दा नहीं बन पाता। चुनाव आने पर राजनैतिक दल किसान को अन्नदाता कहता है और उनकी दुर्दशा पर आंखें नम होने का नाटक करते हैं, लेकिन जिस सट्टा और वायदा कारोबार ने खेती को बिचौलियों के धनार्जन का साधन बना डाला है। उन पर रोक लगा पाने की कोई निर्णायक पहले नहीं कर पाते, क्योंकि वायदा बाजार आर्थिक कार्यक्रम में संस्थागत रूप ले चुका है। नतीजा सामने है कि किसान की फसल आने पर उसका कॉरपोरेट और बिचौलियों द्वारा आर्थिक शोषण होता है। कृषि उत्पादन वायदा बाजार में पहुंचकर दाम ऊंचे होने से उपभोक्ता की पहुंच से बाहर हो जाता है। वायदा बाजार के कारण उत्पाद शोशण की वस्तु बन जाता है। लीडर को कौम की फिक्र है लेकिन ऐशोआराम के साथ की कहावत चरितार्थ हो रही है।
मध्य प्रदेश में अतिवृष्टि से सोयाबीन की फसलें पहले ही किसानों को दगा दे चुकी हैं। खरीफ के बाद रबी पर भी आसमान से बरसी आफत (बेमौसम बरसात और ओला वृष्टि) ने जख्मों पर नमक छिड़कने का काम किया है। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने केन्द्र सरकार की किसानों के प्रति उदासीनता, चना की समर्थन मूल्य पर खरीदी के लिए राज्य के साथ सहयोग करने में अनिच्छा के बावजूद किसानों के जख्मों पर मरहम लगाने का फौलादी संकल्प लिया है। किसान का चना 3100 रू0 प्रति क्विंटल समर्थन मूल्य पर खरीदा जाये, इस गुहार के साथ मध्य प्रदेश सरकार राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी से भेंट कनमे पहुंच रही है। राष्ट्रपति की पहल मध्य प्रदेश के किसानों को सामयिक सांत्वना देगी। मध्य प्रदेश के मंत्रिमंडल की बैठक में मुख्यमंत्री षिवराज सिंह चौहान और पंचायत ग्रामीण विकास मंत्री गोपाल भार्गव ने जिस प्रतिबद्धता के साथ किसानों के घावों पर मरहम लगाने, तात्कालिक राहत और समर्थन मूल्य पर चना खरीदने की आवश्यकता रेखांकित की है वास्तव में मध्य प्रदेश के अन्नदाता के प्रति उनका समर्पण और संकल्प है। जहां चाह होती है वहां राह जरूर निकलती है।

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