राईट टू रिजेक्ट व जनजबाबदेही से बनेगा लोकतंत्र मजबूत

अभिषेक रंजन 
right to rejectसुप्रीम कोर्ट ने आज नकारात्मक मतदान अर्थात “राईट टू रिजेक्ट” की बहुत
पुरानी मांग आज मान ली. कोर्ट ने अपने एक फैसले में चुनाव आयोग को ईवीएम
मशीनों में “कोई नही” बटन लगाने के निर्देश दिए है. वोटर को अपने
निर्वाचन क्षेत्र में खड़े उम्मीदवारों में से सभी को अस्वीकार करने का हक़
दिया जाना चाहिए. अपने फैसले के तर्क में कोर्ट ने कहा है कि नकारात्मक
मतदान की व्यवस्था होने से चुनाव और राजनीति में साकारात्मक बदलाव आएंगे!
चुनाव में किसी को नकारने के अधिकार को कोर्ट ने भारतीय संविधान के अनु.
19 के तहत भारतीय नागरिकों को दिए गए भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता
के अधिकार के तहत माना है. कोर्ट ने यह भी कहा है कि नकारात्मक वोटिंग को
बढ़ावा देने से चुनावों में शुद्धता और जीवंतता आएगी.
आगामी लोकसभा चुनावों से पहले सुप्रीम कोर्ट का फैसला कई मायनों में
ऐतिहासिक है. वोटिंग मशीन में 'कोई नहीं' का विकल्प होने के इस फैसले से
देश के राजनीतिक परिदृश्य में भूचाल आ गया है. हलाकि सभी राजनीतिक दलों
की प्रारंभिक टिप्पणियां इस फैसले के समर्थन में ही आई है, लेकिन उनपर
विश्वास करना कठिन है. अभी हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने देश के किसी भी
कोर्ट में दोषी ठहराए गए दागी व अपराधियों के निर्वाचन को रद्द करने का
फैसला सुनाया था. इस फैसले के खिलाफ़ लगभग सभी राजनीतिक दलों की सहमती थी.
यूपीए सरकार ने तो सुप्रीम कोर्ट के फैसले को बदलने के लिए आनन फानन में
अध्याधेश भी ले आई, जिसे राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए भेजा भी जा चूका
है. वैसे समय में कोर्ट का यह फैसला बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है.

नकारात्मक मतदान के अधिकार से राजनीतिक दलों में अच्छे, साफ़ छवि वाले
प्रत्याशियों को उतारने का दबाब होगा! वही दूसरी ओर, जनता के पास सही
विकल्प न होने पर नापसंदगी का अधिकार! भारत के चुनावी राजनीति में
पारदर्शिता और जनता के प्रति जनप्रतिनिधियों की जबाबदेही को बढ़ावा
मिलेगा, वही दूसरी ओर इस फैसले के लागू होने से अपराधियों,
भ्रष्टाचारीयों, वंशवादी अयोग्य नेतृत्व को बढ़ावा देनेवाली व सांप्रदायिक
सौहार्द बिगाड़कर अपनी रोटियाँ सेंकने वाले दलों को भी इससे करारा झटका
लगेगा.

ईवीएम मशीन में “इनमे से कोई नही” विकल्प रहने से जनता के हाथों में एक
ऐसा आधिकार आ गया है, जिससे सही मायनों में जनता सशक्त हुई है. लेकिन इस
फैसले को लागू करने में कई चुनौतियां भी सामने आनेवाली है. साथ ही  कई
सवाल भी खड़े होते है. मसलन, इस फैसले को लागू करने से अगर किसी क्षेत्र
में मतदान “इनमे से कोई नही” के पक्ष में होता है तो दूसरी बार मतदान
होगी या नही? अगर दूसरी बार मतदान होगी तो इसके खर्च का भार कौन उठाएगा?
दूसरी बार के मतदान में भी दलों ने अपने सामान प्रत्याशी उतारे और परिणाम
पहले जैसा ही आए तो क्या फिर तीसरी बार मतदान होगी? क्या पहली बार हुए
मतदान में अस्वीकार कर दिए प्रत्याशी चुनाव लड़ने को अयोग्य होंगे या नही?
यह फैसला कब से लागू होगा? क्या यह फैसला आनेवाले दिनों में होनेवालें
विधान सभा चुनावों में भी लागू होगा?

इस फैसले से कई चिंताएं भी उभरी है. सबसे बड़ी यह चिंता है कि इस विकल्प
को कोई इस्तेमाल एक लंबी लाइन में घंटों खड़े होकर क्यों करना चाहेगा, जब
वह जानता है कि हमारा मतदान अवैध हो जाएगा? वही दूसरी ओर, इस फैसले के
लागू होने पर ही संदेह उठ रहे है. थोड़े दिनों पहले दागी व अपराधियों के
निर्वाचन को अयोग्य ठहराने के फैसले को जिस तरह से सभी दलों ने विरोध
किया और तुरंत इसे रद्द करने के लिए अध्याधेश ले आया गया, वैसे में कही
इस फैसले के साथ भी राजनीतिक दलों द्वारा सामान व्यवहार तो नही किया
जाएगा? इस फैसले के लागू होने के बाद अब यह देखना दिलचस्प होगा कि
राजनीतिक व्यवस्था से घृणा करनेवाला मतदाता अपने घरों से बाहर निकलकर
मतदान करेगा या नही? किस किसपर इसकी गाज गिरेगी?

कई लोगों ने इस फैसले का स्वागत करते हुए कोर्ट से अनिवार्य मतदान की भी
व्यवस्था करने की अपेक्षा की है.  आखिर चुनाव में जबतक सभी मतदाता भाग
नही लेंगे, हम कैसे एक आदर्श लोकतंत्र की बात करने की सोचेंगे! चुनाव में
“इनमे से कोई नही” विकल्प के साथ साथ सुप्रीम कोर्ट व सरकार से लोकतंत्र
की मजबूती की आकांक्षा रखनेवाली आम जनता सभी भारतियों से “इनमे से कोई
नही मतदान करने से छुटा” का भी अनिवार्य विकल्प चाहती है. चुनावी सुधार
की बयार सिर्फ राजनीतिक दलों की पारदर्शिता और जबाबदेही तक सिमित न होकर,
शत-प्रतिशत मतदान करने की जन जबाबदेही तक बहनी चाहिए. जिस दिन राईट टू
रिजेक्ट के साथ सौ प्रतिशत मतदान होने शुरू हो गए, समझिए भारत में आदर्श
लोकतंत्र प्रतिस्थापित हो गया. उस दिन छाती चौड़ा करके और सर गर्व से
उठाकर हम कह सकेंगे, वास्तव में भारत महान है. भारतीय लोकतंत्र महान है.

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