राजनेताओं को सेनाध्यक्ष की सीख

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प्रमोद भार्गव

ल सेना अध्यक्ष विपिन रावत के बयान ने राजनेताओं में खलबली मचा दी है। रावत ने दिल्ली में आयोजित एक समारोह में कहा था, ‘नेता वे नहीं, जो लोगों को गलत दिशा में ले जा रहे हैं। जैसा कि हम बड़ी संख्या में विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों के छात्रों को देख रहे हैं। ये कई शहरों में भीड़ को आगजनी और हिंसा के लिए उकसा रहे हैं।’ उन्होंने कहा, ‘नेता वही है, जो आपको सही दिशा में ले जाए। आपको सही सलाह दे एवं आपकी देखभाल सुनिश्चित करे।’ रावत ने ऐसा एनआरसी, सीएए एवं एनपीआर के विरोध में देश की संपत्ति को नुकसान पहुंचा रहे तथा पुलिस व सुरक्षाबलों पर पत्थरबाजी का नेतृत्व कर रहे विपक्षी दलों के नेताओं के परिप्रेक्ष्य में कहा है। सेना प्रमुख की इन दो टूक बातों से युवाओं को गुमराह कर रहे नेताओं की बाहें चढ़ गई हैं। जबकि उनके बयान में कुछ गलत होने की बजाय एक सलाह है, जिसे नेताओं को समझने की जरूरत है। दरअसल, नेतागण इस बयान को उस लक्ष्मण-रेखा को लांघने का कारक मान रहे हैं, जो सेना और राजनीति के बीच एक झीनी मर्यादा बनाए रखती है। इसीलिए उनकी आलोचना करने वाले नेता यह नहीं कह रहे कि उन्होंने कुछ गलत कहा है, लेकिन सेनाध्यक्ष जैसे निर्विवाद एवं गैर-राजनीतिक पद पर रहते हुए उन्हें ऐसा नहीं कहना चाहिए था, जो नेताओं को नागवार लगे।रावत ने कश्मीर के उन पत्थरबाज युवाओं को भी ललकारा था, जो सुरक्षाबलों पर पत्थर बरसाने से बाज नहीं आ रहे थे। उन्होंने कहा था, ‘जो लोग पाकिस्तान और आईएस के झंडे लहराने के साथ सेना की कार्यवाही में बाधा पैदा करते हैं, उन युवकों से कड़ाई से निपटा जाएगा।’ इस बयान को सुनकर मानवाधिकारवादियों ने विपिन रावत की खूब आलोचना की थी। कांग्रेस और पीडीपी भी इस निंदा में शामिल थे। उन्हें हिदायत दी गई कि सेना को सब्र खोने की जरूरत नहीं है। किंतु, इस बयान के परिप्रेक्ष्य में ध्यान देने की जरूरत थी कि सेनाध्यक्ष को इन कठोर शब्दों को कहने के लिए कश्मीर में आतंकियों ने एक तरह से बाध्य किया था। घाटी में पाकिस्तान द्वारा भेजे गए आतंकियों के हाथों शहीद होने वाले सैनिकों की संख्या 2016 में सबसे ज्यादा थी। नतीजतन जनरल रावत को दो टूक बयान देना पड़ा था।सवाल यह कि क्या सेनाध्यक्ष की आक्रामकता अनुचित थी? दरअसल, वादी में सुरक्षाकर्मी इसलिए ज्यादा हताहत हो रहे थे, क्योंकि स्थानीय लोग सुरक्षा अभियानों में बाधा डाल रहे थे। पत्थरबाज बोतलबंद पेट्रोल बमों का इस्तेमाल कर रहे थे, जबकि सेना को गुलेल से मुकाबला करने के लिए विवश किया जा रहा था। इस विरोधाभासी स्थिति में सेना के आत्मरक्षा का सवाल भी खड़ा होता है। वैसे भी जब सैनिक को शपथ और प्रशिक्षण दिलाए जाते हैं, तब देशद्रोही के विरुद्ध ‘शूट टू किल’ (गोली मार देने) का पाठ पढ़ाया जाता है। दुनिया के किसी भी देश में फौज, हिंसा का जवाब हिंसा से देने के लिए रखी जाती है, न कि बम का जवाब गुलेल से देने के लिए। इसमें दो राय नहीं कि बीते 72 सालों के आजाद भारत में गिने-चुने सैन्य अधिकारी ही ऐसे मिलेंगे, जिन्होंने राजनीति या राजनेताओं पर तल्ख टिप्पणियां की हों। हालांकि नौसेना प्रमुख रहे एडमिरल रामदास जरूर अपवाद थे। लेकिन राजनीति के लिए सेना का उपयोग होता रहा है। इंदिरा गांधी जब प्रधानमंत्री थीं, तब फील्ड मार्शल सैम मानेकशॉ के नेतृत्व में 90000 से भी ज्यादा पाकिस्तानी सैनिकों ने आत्मसमर्पण किया था। यह समर्पण पाकिस्तान और बांग्लादेश के बीच हुए युद्ध का परिणाम था। उस युद्ध में भारतीय सेना ने बांग्लादेश द्वारा लड़ी जा रही लड़ाई में सहयोग दिया था। 1971 में जब वह लड़ाई लड़ी जा रही थी, तब थलसेना के अध्यक्ष मानेकशॉ थे। आश्चर्य होता है कि समर्पण की इतनी बड़ी कार्यवाही में समर्पित सैनिकों के साथ मानेकशॉ का चित्र कहीं दिखाई नहीं देता है। चित्रों में जगजीत सिंह अरोड़ा और सगत सिंह दिखाई देते हैं, जो उस समय सेना की पूर्वी कमान का नेतृत्व कर रहे थे। उस समय सेना का एक ही उद्देश्य था कि सेना दुश्मन के छक्के छुड़ाने में कामयाब रहे। किंतु इसी युद्ध के दौरान इंदिरा गांधी ने जब अमेरिकी राजनयिक हेनरी किसिंगर को चाय पर बुलाया था, तब जनरल मानेकशॉ को वर्दी पहनकर आने का आदेश दिया था। इंदिरा जी के साथ मानेकशॉ को वर्दी में देखकर हेनरी हैरान रह गए थे। दरअसल देवी दुर्गा की प्रतीक मानी जानी वाली इंदिरा गांधी ने हेनरी को संकेत दिया था, कि अब मोर्चा सेना संभालेगी। हालांकि इस पूरी बातचीत में मानेकशॉ बोले कुछ भी नहीं थे। लेकिन मानेकशॉ की उपस्थिति एक राजनेत्री का कूटनीतिक संदेश था।पूर्व वायु सेनाध्यक्ष बीएस धनोआ ने सेना की गोपनीयता से जुड़े रहस्य का खुलासा करते हुए कहा है कि, ’26 नवम्बर 2008 को मुंबई में जो आतंकी हमला हुआ था, उस समय सेना ने पाकिस्तान पर एयर स्ट्राइक करने का प्रस्ताव दिया था। हमें जानकारी थी कि पाकिस्तान में आतंकी शिविरों के ठिकाने कहां हैं। हम उन्हें नेस्तनाबूद करने के इच्छुक थे। लेकिन सरकार ने स्ट्राइक की अनुमति नहीं दी। यह राजनीतिक निर्णय था।’ धनोआ 31 दिसम्बर 2016 से लेकर 30 सितम्बर 2019 तक वायुसेना के प्रमुख रहे हैं। 2008 में केंद्र में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार थी और प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह थे। बेशक,  यदि उसी समय पाकिस्तान द्वारा संरक्षित आतंकवादियों को सबक सिखा दिया जाता, तो न तो कश्मीर की यह दुर्दशा होती और न ही देश को बार-बार आतंकी हमलों का सामना करना पड़ता।इस नाते विपिन रावत या बीएस धनोआ जो कह रहे हैं, उस पर गौर करने की जरूरत है। क्योंकि अंततः आंतरिक सुरक्षा का सवाल हो या सीमाई सुरक्षा का, प्रत्यक्ष मुकाबले के लिए सेना, सुरक्षाबल और पुलिस को ही आना पड़ता है। शहीद भी वही होते हैं। लिहाजा यदि राजनेता आंतरिक या राष्ट्रीय सुरक्षा को बेवजह प्रभावित करते हैं तो सेना प्रमुख द्वारा संयम बरतने की सीख अमर्यादित या राजनीति में हस्तक्षेप नहीं कही जा सकती है।  

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