वाम की जीत और प्राइमरी शिक्षा का सच

-जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

हाल ही में पश्चिम बंगाल प्राथमिक शिक्षा परिषद के चुनावों में वाममोर्चे को भारी जीत मिली है। यह जीत इस बात की सूचना है कि प्राथमिक शिक्षकों और कर्मचारियों में वाम मोर्चे का प्रभाव बरकरार है। किन्तु इस जीत का यह अर्थ नहीं है कि प्राइमरी शिक्षा में सब ठीक चल रहा है। वाम की जीत और प्राइमरी शिक्षा की बदहाल अवस्था के बीच कोई संबंध नहीं है। इन परिणामों ने ममता बनर्जी को संदेश दिया है अहर्निश हिंसा के माहौल में उनका दल चुनाव हार भी सकता है। दूसरी ओर वामनेता इस जीत में मग्न हैं और प्राइमरी शिक्षा को लेकर आत्मालोचना नहीं कर रहे हैं। वे प्राथमिक शिक्षा में मच रही तबाही को संगठनबल के आधार पर ढकना चाहते हैं। पिछले 35 सालों में प्राथमिक शिक्षा के क्षेत्र में वामदलों की असफलताओं के लिए कम से कम तृणमूल कांग्रेस को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता।

नेशनल सेंपिल सर्वे के अनुसार राज्य में 1990-2000 के दौरान गांवों में रहनेवाले 27 प्रतिशत परिवारों और 12 प्रतिशत शहरी परिवारों में एक भी वयस्क (15 साल से ऊपर) व्यक्ति साक्षर नहीं है। जबकि एकदम निरक्षर परिवारों की संख्या तुलनात्मक तौर पर और भी ज्यादा दर्ज की गई है। यानी गांवों में 51 प्रतिशत और शहरों में 31 प्रतिशत परिवार हैं जो पूर्णतः निरक्षर हैं। अनुसूचित जाति ,जनजाति और अल्पसंख्यकों में तो स्थिति और भी बदतर है। खासकर ग्रामीण बंगाल में भयावह स्थिति है। नेशनल फेमिली हेल्थ सर्वे 2 के अनुसार साक्षरों के आंकड़े बताते हैं सन् 1998 -99 में मात्र 17 प्रतिशत लोग प्राइमरी से कम शिक्षा प्राप्त थे। सन् 1998-99 में मात्र गांवों में मात्र 48 प्रतिशत पुरूष 27 फीसदी ग्रामीण औरतें,जिनकी आयु 15 साल से ऊपर है,प्राइमरी शिक्षा प्राप्त थे। इनमें से मात्र एक-तिहाई लोग सैकेण्ड्री शिक्षा प्राप्त थे।

आश्चर्य की बात है जिन वर्गों में वामदलों के जनसंगठन हैं उन वर्गों में शिक्षा का प्रसार कम हुआ है। मसलन खेतमजदूरों में शिक्षा अभी पहुँची ही नहीं है। जबकि इस वर्ग में माकपा का सबसे ताकतवर संगठन है। लेकिन कृषिक्षेत्र के आत्मनिर्भर समूहों में साक्षरता की दर बेहतर रही है। इसी तरह पुरूष और स्त्री के बीच में साक्षरता को लेकर व्यापक अंतर है। मजदूर औरतों में साक्षरता का प्रसार करने में वामपंथ पूरी तरह असफल रहा है। सन् 2001 की जनगणना के अनुसार आदिवासियों में मात्र 43.4 प्रतिशत जनसंख्या साक्षर है। जबकि राष्ट्रीय साक्षरता दर 47.1 प्रतिशत है। इनमें औरतों में मात्र 29.2 प्रतिशत और पुरूषों में मात्र 57.4 प्रतिशत साक्षरता दर्ज की गयी है। आदिवासियों में मात्र 8.4 प्रतिशत आबादी को माध्यमिक और उससे ऊपर की शिक्षा मिल पायी है। इसी तरह विभिन्न अनुसूचित जाति समूहों में भी साक्षरता की स्थिति खराब है। सुदूरवर्ती इलाकों में रहने वाले अनुसूचित जाति और जनजाति के समूहों में न्यूनतम लोगों तक ही शिक्षा पहुँच पायी है। मसलन कोलकाता में साक्षरता दर सबसे ज्यादा है और सुदूरवर्ती जिलों में साक्षरता दर बहुत नीचे है। यदि पश्चिम बंगाल के धार्मिक समूहों में साक्षरता के स्तर को देखें तो पाएंगे कि हिन्दुओं में 66 प्रतिशत, मुसलमानों में 32 प्रतिशत लोगों में साक्षरता है। 7 साल और उससे ऊपर की उम्र के मुसलमानों में 46 प्रतिशत परिवार साक्षर हैं जबकि हिन्दुओं में इससे भी कम यानी 35 प्रतिशत परिवार ही साक्षर हैं। इसी तरह अनुसूचित जाति,जनजाति की तुलना में मुसलमान शिक्षां में उतने वंचित नहीं हैं।

प्राइमरी शिक्षा के राज्य सरकार के आंकड़ों में धांधलेबाजी चरम पर है। स्कूलों के रजिस्टर के आधार पर दिए गए आंकड़े बढ़ा-चढ़ाकर बताए गए हैं। यह बात प्रसिद्ध मार्क्सवादी अर्थशास्त्री जयति घोष ने मानव लिकास रिपोर्ट 2004 में रेखांकित की है। मार्क्सवादी प्रभात पटनायक और अभिजीत सेन की भी इस रिपोर्ट के साथ सहमति है। रिपोर्ट में कहा गया है गांवों में कक्षा 1 में पढ़ने वाले विद्यार्थियों में 4-8 साल की आयु के बच्चे पढ़ते हैं,जबकि वे इस कक्षा में वास्तव में पढ़ते ही नहीं हैं। उनके नकली नाम रजिस्टर में दर्ज हैं। झूठी हाजिरी दर्ज है। मार्क्सवादी अर्थशास्त्रियों ने माना है पश्चिम बंगाल में प्राथमिक शिक्षा के बुनियादी ढ़ांचे का जबर्दस्त अभाव है। वाम सरकार अपने 35 साल के शासन में प्राइमरी शिक्षा के लिए पर्याप्त स्कूलों का निर्माण नहीं कर पायी है और न बुनियादी बिल्डिंग सुविधाओं को बना पायी है। राज्य में स्कूल हैं लेकिन पर्याप्त कमरे नहीं हैं। कमरेरहित स्कूलों की संख्या बहुत ज्यादा है। राज्य सरकार ने तेजी से स्कूल खोले हैं, स्कूल शिक्षकों की नियुक्तियां भी की हैं लेकिन कमरे नहीं बना पायी है। राज्य में जितने स्कूल हैं उनमें पांच में से एक स्कूल के पास बिल्डिंग नहीं है। यह आंकड़ा बेहद बड़ा है और इससे राज्य सरकार की अगंभीरता और गैर-जिम्मेदारी का भी पता चलता है। इससे यह भी पता चलता है कि बच्चों को बिल्डिंग के अभाव में कैसी गुणवत्तापूर्ण शिक्षा दी जा रही होगी ? राज्य में पांच में से एक स्कूल ऐसा है जिसके पास मात्र एक ही कमरा है। यानी इन स्कूलों में सारी प्राइमरी कक्षाएं एक ही कमरे में चल रही हैं। अब इससे सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कितनी गुणवत्तापूर्ण शिक्षा दी जा रही होगी ? राज्य में औसत प्रति स्कूल शिक्षक संख्या है तीन। प्राइमरी शिक्षा के लिहाज से यह शिक्षक संख्या अपर्याप्त है। एक स्कूल में कक्षा 1-4 या 1-5तक की कक्षाएं लगती हैं तो औसतन एक शिक्षक एक साथ दो कक्षाएं पढ़ाता है। सन् 1997 में यह पाया गया कि आधे से ज्यादा स्कूलों में एक या दो शिक्षक हैं। इसका अर्थ है एक ही शिक्षक एकाधिक कक्षाओं के विद्यार्थियों को पढ़ाता है और सामान्य भाषा में इसे कहते हैं स्कूली शिक्षा का सर्वनाश। इसके अलावा स्कूलों में बच्चों के टॉयलेट नहीं है.पीने के स्वच्छ पानी की व्यवस्था नहीं है। पढ़ाने के लिए स्कूल में ब्लैकबोर्ड तक नहीं है। गांवों में चलने वाले अधिकांश स्कूलों में बिजली नहीं है। प्राकृतिक रोशनी में ये स्कूल चलते हैं। स्कूलों में घटिया किस्म का फर्नीचर है जिस पर बैठकर बच्चे पढ़ते हैं। स्कूलों में लड़कियों के लिए अलग से पेशाबघर तक नहीं हैं। स्कूलों की दशा के कुछ आंकड़े देखें तो शायद यथार्थ समझ में आ जाए। मसलन 1986 में 4.6 प्रतिशत कमरेरहित स्कूल थे। इनकी संख्या 1993 में बढ़कर 5.0 प्रतिशत और 1997 में बढ़कर 18.0 प्रतिशत हो गयी। सन् 1986 में एक कमरे में चलने वाले स्कूलों की संख्या 26.9 प्रतिशत थी,जो 1993 में घटकर 23.5 और 1997 में 23.1 प्रतिशत दर्ज की गयी। दो कमरे वाले स्कूलों की संख्या 1986 में 23.0 प्रतिशत, 1993 में32.4 प्रतिशत और 1997 में 23.1 प्रतिशत दर्ज की गई है। तीन या उससे ज्यादा कमरे वाले स्कूल सन् 1986 में 45.2 प्रतिशत, 1993 में 39.1 प्रतिशत और 1997 में 40.9 प्रतिशत थी। राज्य स्कूलों में पढ़ाने वाले 45 प्रतिशत से ज्यादा शिक्षक अप्रशिक्षित हैं।

राज्य सरकार के द्वारा प्राइमरी शिक्षा पर किए जा रहे खर्चे के आंकड़े बताते हैं कि राज्य सरकार का 90 प्रतिशत पैसा शिक्षकों-कर्मचारियों की पगार में चला जाता है। जबकि पाठ्यपुस्तक प्रकाशन ,स्कूल मरम्मत और निर्माण आदि पर 2.1 प्रतिशत खर्चा होता है, बच्चों के दोपहर के खाने पर 1.5 प्रतिशत,शिक्षक प्रशिक्षण पर 0.4 प्रतिशत और स्कूल मुआयने पर 1.6 प्रतिशत का खर्चा किया जाता है। यानी स्कूलों के विकास पर खर्च करने के लिए वाम सरकार द्वारा बहुत कम पैसा खर्च किया जाता है।

4 COMMENTS

  1. इस मामूली सी जीत पर वाम के बोराणे का रंच मात्र संभावना नहीं है .यह जीत इस बात का देव्त्क अवश्य है की वाम की शानदार संघर्ष शीलता , ,नीतियाँ और कार्यक्रम की अनुगूंज शेक्षणिक क्षेत्रों में पत्थर की लकीर बन चुकी है .वैसे भी भारत सरकार के बिना सहयोग के बंगाल ने जितना भी अब तक किया है वो भी जनता के उन हिस्सों में भली भांति ह्रुदय्गामी हो चूका है जिन्होंने कांग्रेस के कुराज को देखा सुना और पढ़ा है .बंगाल .केरल और त्रिपुरा की तीनों वाम शाशित सरकारों के साथ -वहां की जनता के साथ हमेशा सौतेला व्यवहार किया जाता रहा है .फिर भी ये तीनों राज्य- साक्षरता ,भूमि सुधार,श्रमिक वर्ग के हित और कृषि उत्पादन में शेष राज्यों से बेहतर हैं .इन राज्यों में धर्मं निरपेक्षता की जड़ें मजबूत हैं .न्यूनतम वेतन और स्वास्थ शिक्षा की गारंटी के प्रयास निरंतर जारी हैं .

  2. क्या करें, यह उजाड़ एक टीस बन कर उतर गया है अंदर
    देखी नहीं जाती यह बदहाली फिर भी मजबूर हैं हम अभी
    ऐ वक्त तू दिखा ले, जो भी दिखाना हो तुझे
    हम भी जिद्द पर हैं, लड़ाई चलेगी लंबी इस बार, हमारी जीत तक … ।

  3. चतुर्वेदीजी,लगता है की अब आप वामपंथ छोड़ने की तैयारी में है और आपने अपना लाल चश्मा खोल दिया है इसीलिए अब बहुत चीजें आपको saaf saaf दिखने लगी है.पश्चिम बंगाल के शासन काल का अगर आप निरपेक्ष सर्वेक्षण करेंगे तो आपको ऐसी बहुत चीजें दिखाई देंगी जिससे पता चलेगा की वामपंथी सरकार ने अपनी जड़ मजबूत करने के लिए आम जनता की भलाई पर ध्यान न देकर केवल अनेक सामूहिक ग्रुपों को बढ़ावा दिया है.वाही उनके कैडर हैं उन्ही के बल पर वे आम जनता का शोषण भी करते रहे है,kyonki वे janate है की vikhre huye आम jan उनके लिए koi khas mahatva nahi rakhte. Mamataa उन्ही आम janon tak pahuchane की koshish kar rahi है.dekhnaa तो yah है की vah safal hoti है ya nahi.

  4. सर जी,
    यदि मजदूर और गरीब लोग, शिक्षा प्राप्त कर लेंगे और उनकी आर्थिक उन्नति हो जायेगी तो वामपंथ कहाँ बचेगा? कौन लाल झण्डे उठायेगा? 🙂

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