विदेशी षड्यंत्र के विरुद्ध क्रांति का शंखनाद         

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             बांसुरी वादक, चित्रकार बिरसा मुंडा का जन्म झारखंड के आदिवासी ग्राम उन्निहात  में १५ नवम्बर १८७५ में हुआ था . आगे चलकर जब बड़े हुए तो अध्यापन के लिए अपने पिताजी के साथ  वे चाईबासा के जर्मन मिशन स्कूल  पहुंचे. पर  वहां उन्हें  पता चला कि उनकी तो स्कूल में भर्ती  हो ही  नहीं  सकती. क्यूंकि  अभी  उनका धर्म हिन्दू है, और जब तक वे ईसाई धर्म स्वीकार नहीं कर लेते उन्हें स्कूल में पढ़ाई से वंचित ही रहना पड़ेगा. बालक मुंडा की पढ़ाई के प्रति शांत न होने वाली तीव्र लालसा के आगे विवश हो उनके सारे  परिवार को  ईसाई धर्म स्वीकार करना पड़ा. स्कूल में भर्ती करते हुए स्थानीय पादरी नें उनका नाम बदलकर बिरसा डेविड रख दिया.
           शिक्षा पूर्ण की, और सबकुछ सामान्य चल रहा था कि उनका संपर्क उस समय के प्रसिद्ध वैष्णव भक्त आचार्य  आनंद पाण्डेय से हुआ. उनका सानिध्य  पाकर बिरसा के   मूल हिन्दू संस्कार पुन: चेतन्य हो उठे, और उनका हिन्दू धर्म में लौटने का मार्ग प्रशस्त हुआ. रामायण, महाभारत, गीता का अध्ययन करते-करते उनके कदम सन्यास के मार्ग की और उठ पड़े. चार वर्षों की  एकांतवास की कठोर साधना के फलस्वरूप उनका जीवन पूर्ण रूप से बदल  चुका था, और अब वे लोगों के सामने पीली धोती, लकड़ी की खड़ाऊ, ललाट पर तिलक तथा यज्ञोपवीत धारण किये हुए एक हिन्दू महात्मा रूप में  मौजूद थे. उनकी प्रेरणा से ईसाई मिशनरियों के बहकावे में आकर हिन्दू धर्म से भटके हुए वनवासी बंधुओं नें पुन: नित्य प्रति तुलसी और गो-पूजा, रामायण का पाठ और सदाचार अपनाना  शुरू कर दिया.वनवासीयों में होने वाले इस परिवर्तन को मिशनरीयों ने अपने अस्तित्व पर मंडराने वाले खतरे के रूप में लिया. उन्होंने राँची के अंग्रेज़ कमिश्नर के साथ  षडयंत्र रच राजद्रोह  का आरोप लगवाकर बिरसा को हजारीबाग स्थित बंदीगृह में डलवा दिया.  इस कदम के विरुद्ध वनवासी बंधुओं में गहरा रोष व्याप्त हो गया. पर परिस्थिति के आगे वे असहाय थे!
              ३० नवम्बर १८९७ को  बिरसा कारावास से मुक्त हुए. दो वर्ष के कारावास  नें उन्हें ‘विदेशी- स्वदेशी’  के अंतर को समझा दिया था.  देश की आज़ादी के लिए कृतसंकल्प, वो चालकद पहुंचे और वहां से उन्होंने वनवासीयों की  सभाएं  कर जगह –जगह  उनका संगठन करना शुरू किया. शस्त्र-संग्रह और उनका संचालन का  प्रशिक्षण देते हुए विरसा नें सबसे सशस्त्र-क्रांति के लिये तैयार रहने को कहा. और २४ दिसम्बर, १८९९ को वो दिन आया जब क्रांति का शंखनाद करते हुए वनवासी बन्धुओं नें  अपने हांथों में तीर-कमान आदि शस्त्र लेकर राँची से लेकर चाईबासा और उसके आसपास के क्षेत्रों को अपना बंधक बना लिया.  प्रशासन के अँगरेज़ अधिकारी और उनके साथ कन्धा से कन्धा  मिलाकर काम करने वाले  मिशनरी के लोग जहाँ भी दिखते उनको तीरों की होने वाली बोछार का सामना करना पड़ता. देखते ही देखते  पुलिस चौकीयां , मिशनरियों के ठिकाने आग के हवाले होने लगे, परिणाम स्वरुप इलाके को सेना को सोपना  पड़ा. सेना की  बंदूकें, बम जैसे आधूनिक शस्त्रों के आगे वनवासी योद्धाओं के अंतत: पाँव उखड़ गए.  सेकड़ों वनवासीयों  का इस युद्ध में बलिदान हुआ; ईसाई मिशनरीयों के इशारे पर सेकड़ों की संख्या में लोगों की गिरफ्तारीयां हुईं. और, फौज द्वारा  गाँव के गाँव तहस-नहस कर दिये गए सो अलग. बिरसा को विशेष रूप से जंजीर में जकड़ कर राँची की जेल में रखा गया. घोर यातनाओं के बीच अंतत: ९ जून, १९०० उनका देहांत हुआ. लोगों का मानना है कि जेल अधिकारीयों नें बिरसा को विष दिया था. 

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