समस्या बढ़ाता राष्ट्रवादी सोच का अभाव

आर. विक्रम सिंह 

(लेखक पूर्व सैनिक अधिकारी एवं पूर्व प्रशासक हैं)

 साभार::दैनिक जागरण 7.7.22

हमारे देश के कुछ समूहों, वर्गों और राजनीतिक एवं गैर राजनीतिक संगठनों में राष्ट्रवाद का अभाव ही हमारी कई समस्याओं की जड़ है। देशवासियों में प्रबल राष्ट्रवाद की भावना जगाकर अब तक हम वह सब कुछ हासिल कर सकते थे, जिनका सपना हमारे स्वतंत्रता सेनानियों ने देखा था। यदि आपके पास धन है तो कोई जरूरी नहीं कि प्रबल राष्ट्रदृष्टि भी हो। हमारे क्रांतिकारियों को धन चाहिए था। मजबूरी में उन्हें अंग्रेजों का खजाना लूटना पड़ा। कोई बिड़ला, कोई डालमिया या कोई भी अनाम भामाशाह उन्हें धन दे रहा होता तो क्रांतिकारी आंदोलन नए स्तरों पर जाता, पर देश का जनमानस गांधी को महात्मा मान कर उधर चला गया। जज्बा हो, विचार हो, पर धन न हो तो कुछ न हो पाएगा। यह बड़ा संकट है।

हम इससे अवगत हैं कि दुनिया भर की तमाम ईसाई मिशनरियां भारत में छल-कपट से मतांतरण के लिए बेतहाशा धन भेजती हैं। इस मतांतरण के प्रतिकार के लिए देश में न तो कोई समर्थ संस्था है और न ही अभियान। हमारे मंदिरों का धन इस प्रतिकार में लग सकता है,लेकिन अधिकांश बड़े मंदिर राज्य सरकारों के कब्जे में हैं और वे उनका धन अपने हिसाब से खर्च करती हैं। हम इससे अवगत हैं, लेकिन कुछ कर नहीं पा रहे हैं। हमारा संविधान सांस्कृतिक जागरण का संवाहक एवं पक्षधर न होकर निर्विकार है। वह उस भारतीय जनता की तरह है, जो शताब्दियों से कहती रही है, ‘कोऊ नृप होय हमें का हानि।’ समझौते से हुए सत्ता हस्तांतरण को आजादी मानने के संकट अलग हैं। देश के संघर्ष, बलिदान. धर्म परंपरा से कोई कोर समूह विकसित नहीं हुआ, जो राष्ट्रीयता के विकास के प्रति समर्पित हो और राष्ट्र के शत्रुओं को लक्षित कर सके। जो विदेशी विचारों का सहयोगी राष्ट्रशत्रु समूह है,वह हमें तोड़ रहा है और हम हैं कि सहअस्तित्व के लिए बेचैन हैं।

नूपुर शर्मा ने जो कहा और जिसे लेकर देश-दुनिया में हंगामा मचा, वह उन्होंने महादेव के अनादर के प्रतिकार में कहा, लेकिन इसे हम देश-दुनिया के समक्ष सही तरह स्पष्ट नहीं कर सके और इसीलिए कई इस्लामी देशों ने हमें आंख दिखाई। हम यह भी नहीं बता सके कि शिवलिंग को लेकर कैसी भद्दी टिप्पणियां की गईं और किस तरह उसका उपहास उड़ाया गया।

नुपुर शर्मा ने जो बात कहने की कोशिश  की, उसका उल्लेख तो हदीसों में है और उसकी चर्चा न जाने कितने मौलवी करते रहे हैं। मूल संकट यह है कि किताब पढो मत, उसका संदर्भ या उद्धरण न दो और अर्थ तो बिल्कुल मत जानो। जो ‘सिर तन से जुदा’ नारे के साथ सड़कों पर उतरे और अभी भी धमकियां देने में लगे हुए हैं, वे अपने समाज को भी अपनी पवित्र पुस्तकों का अर्थ नहीं बताते। 

अनुवाद मूल से अलग जानबूझकर किए जाते हैं। वे इतना आतंक पैदा कर देना चाहते हैं कि हम वापस समझौतापरस्ती के युग में पहुंच जाएं। वे यह चाहते हैं कि कोई भी उनकी किताबों के वही अर्थ जाने, जो वह उन्हें बता रहे हैं। अब जो किताबों में कहा गया है, उसे पढ़ना-बताना ईशनिंदा कैसे है? समस्या यह है कि ऐसे प्रश्नों को कोई भी संबोधित नहीं करना चाहता।

हमारी मूल समस्या राष्ट्रवादी समूहों का अभाव है। जो कुछ ऐसे समूह दिखते हैं, वे सीमित दृष्टि रखते हैं या इतिहासजीवी बनकर अपनी जातियों की श्रेष्ठता में डूबे रहते हैं। सबका अपना-अपना भारत है। वे सोच नहीं पाते कि जो शेष भारत है, वह किस जातीय श्रेष्ठता का अभिमान करे, जबकि वही तो मुख्य भारत है। वह हाशिये पर रहा है। उसे ही सशक्त करना है। राष्ट्रीय शक्ति वहीं से आकार लेगी।

इस समय जो जबरदस्त प्रोपेगंडा चल रहा है, उसके प्रभाव से हम अनजान नहीं हो सकते। आज यह कहीं अधिक आवश्यक है कि हम राष्ट्रविरोधियों और उनके सत्तालोलुप सहयोगियों की मंशा को समझें। राष्ट्रवादी राजनीति का संकट यह है कि वह भी सत्ता को अंतिम साध्य मान लेती है, जबकि सत्ता एक माध्यम या साधन है। लक्ष्य अभी बहुत आगे हैं। वास्तव में हमारी समस्या दूसरी है। क्या आप उस कोर राष्ट्रीय समूह के प्रति श्रद्धा भाव रखते हैं जिसमें चंद्रशेखर आजाद, रामप्रसाद बिस्मिल, भगत सिंह, राजेंद्रनाथ लाहिड़ी आदि थे? कभी मेजर शैतान सिंह और उनके बहादुर सैनिकों को रेजांग ला में चीनी सेना के सामने बलिदान का आखिरी मोर्चा लगाने के बारे में जाना है? आप कहीं जातीय अभिमान में डूबे, राष्ट्र के महापुरुषों को अपनी-अपनी जातियों के खांचे में बांट कर अपना जिंदाबाद करने वाले लोग तो नहीं हैं?  

98हम अपनी 75 साल की लोकतांत्रिक यात्रा में जा तो कहीं और रहे थे, लेकिन पहुंच कहीं और गए। राष्ट्रवादी समूहों के अभाव के कारण समस्याओं के ठोस समाधान के विकल्पों की चर्चा भी नहीं हो पाती। चर्चाएं भी अत्यंत प्रतिबद्ध समूहों में ही संभव है। संकट यही है कि वह प्रतिबद्धता, वह भविष्यष्टि, वह कर्मठता, वह विवेकपूर्ण भारतीयता कहां है, जिसकी आज सबसे अधिक आवश्यकता है। समुद्र मंथन में देव-दानव वहीं पर रुक सकते थे, जब हलाहल आया। वे वहां भी रुक सकते थे, जब समृद्धि, वैभव और धन की प्रतीक लक्ष्मी का आगमन हुआ कि अब बहुत हो गया, लेकिन वे तब तक लगे रहे जब तक अमृत तत्व प्रकट नहीं हो गया। हमारा समुद्र मंथन तो अभी प्रारंभ भी नहीं हुआ। आजादी से पहले ही कलश दानव ले उड़े। वह आजादी कौन सी है जिसमें समग्र भारतीयता का विकास न हो सका? वह आजादी कहां से थी जिसमें सुविधाजीवियों का राज आ गया?

जब तक धर्म-संस्कृति की पृष्ठभूमि में नव विकसित वैचारिक समुद्र मंथन से कोर राष्ट्रवाद का अमृत न निकले, तब तक स्वतंत्रता के समुद्र मंथन से विश्राम का कोई प्रश्न नहीं है। ‘चले चलो, क्योंकि अभी वह मंजिल नहीं आई।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here