सामंतों की भूमि का हो अधिग्रहण?

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देश में भूमि अधिग्रहण का मुददा गरम है। राजनीति में किसी हद तक जन-सरोकारों से जुड़े मुददों के पैरोकार केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ‘राष्ट्रीय भूमि अधिग्रहण और पुनर्वास एवं पुनस्र्थापन विधेयक 2011 को केबीनेट से पारित कराकर लोकसभा में पेश भी कर चुके हैं। ऐसा माना जा रहा है कि इस विधेयक का प्रारूप पूर्व में तैयार किए गए सभी विधेयकों की तुलना में किसान मजदूरों के ज्यादा हित में है। क्योंकि इसमें भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया को अंजाम देने के साथ विस्थापितों के पुनर्वास व अजीविका की भी चिंता परिलक्षित हो रही है। इसके बावजूद प्रस्तावित विधेयक की सीमा कृषि भूमि के अधिग्रहण तक ही सीमित है। नगरीय क्षेत्रों में विधायल, महाविधायल, अस्पताल और अन्य बुनियादी जरूरतों से जुड़ी सुविधाओं के लिए जमीन हासिल करना एक मुशिकल समस्या बनी हुर्इ है। इस समस्या के चलते अनेक नगरों में बुनियादी संरचना से जुड़े विकास संबंधी कार्य अर्से से लुबित हैं। ऐसा नहीं है कि देश के सभी नगरों में भूमि का अभाव है। अतीत का हिस्सा बन चुके सामंतों जमींदारों और नवधनाढयों की ऐसी हजारों एकड़ भूमि नगर पालिकाओं और नगर निगमों की परिधी में है, जिसे अधिग्रहण किए जाने के प्रावधान इस विधेयक में शामिल कर दिए जाएं तो बड़ी संख्या में बुनियादी जरूरतों की आपूर्ति बिना किसी विस्थापन व पुनर्वास समस्या का सामना किए हो सकती है। लेकिन इस मंतव्य की साध के लिए दृढ़ राजनीतिक व प्रशासनिक इच्छा शकित की दरकार है।

हमारे कानूनविदों और समाजशासित्रयों के पास शास्त्र सम्मत ज्ञान तो है, लेकिन समाज से संपर्क और व्यवस्था से दूरी होने के कारण उनकी निगाह वहां नहीं जाती, जहां भूमि अधिग्रहण आसानी से किया जा सकता है। देश की आजादी के वक्त 562 रियासतों का विलय विभिन्न प्रदेशों में किया गया था। इन राजे-रजवाड़ों का राज्यों में विलय सुविधाजनक हो इस नजरिए से इनके सुचारू जीवन यापन के लिए इन्हें तमाम महल और अराजियां (भूमियां) इनके हित में छोड़ दी गर्इं थीं। इनके गुजारे के लिए बतौर आर्थिक मदद प्रीविपर्स का भी प्रावधान था, जो लाखाें में था। इसे इंदिरा गांधी ने राष्ट्रीय मुद्रा की फिजूलखर्ची मानते हुए 1969 में एक झटके में खत्म कर दिया था। प्रीविपर्स, आजीरिका के लिए एक तरह की पेंशन थी। इसका निर्धारण रियासतों की सालाना आमदनी के आधार पर किया गया था। बड़े राजा-महाराजाओं को करोड़ों रूपए का भुगतान भारत सरकार को करना पड़ता था। जबकि ये पूर्व सामंत आय के अनेक स्त्रोतों से जुड़े हुए थे। संपत्ति से किराया इन्हें मिल ही रहा था, जो कृषि भूमि इनके हित में छोड़ी गर्इ थी, वह भी इनकी आय का बड़ा स्त्रोत तब भी थी और आज भी है। बड़े राजघरानें तो मंहगे होटल, शिपिंग कार्पोरेशन, बैंकिंग, औधोगिक घरानों में हिस्सेदारी और शेयर बाजार से भी जुड़े हुए थे। कर्इ प्राचीन व प्रमुख मंदिर भी इनकी आय का स्त्रोत थे, जो आज भी बदस्तूर हैं। राजघरानों के संग्रहालय भी सामंतों के वंशजों की आय का जरिया हैं। अपनी विरासत के इस विशाल साम्राज्य (संपत्ति) को बड़ी कुटिल चतुरार्इ से इन लोगों ने लोक कल्याणकारी न्यास बनाकर सुरक्षित किया हुआ है। इनके लोक कल्याण मानव कल्याण के लिए कितने लाभकारी है यह इनके यहां पुश्तैनी रूप से काम कर रहे लोगों से रूबरू होने पर पता चलता है। इनकी हैसियत बंधुआ मजदूरों से भी बदतर है। ज्यादातर कामगारों को एक हजार रूपए प्रतिमाह से ज्यादा वेतन नहीं मिलता। अन्य किसी प्रकार की आर्थिक सुरक्षा से ये महरूम हैं। लोक कल्याण की यह हकीकत जाहिर करती है कि न्यासों पर स्वामित्व और लाभ व्यकितगत बना हुआ हैं।

आपातकाल तक ज्यादातर पूर्व राजा-महाराजा और इनके बारिश अपने दड़वों में किसी तरह दिन पूरे गिनने में लगे थे। सत्ता मद से वंचित हो जाने का अहंकार भी इन्हें आहत किए हुए था। लिहाजा जनता से इनकी दूरी बनी हुर्इ थी, जो प्रजातांत्रिक मूल्यों की दृषिट से एक बेहतर सिथति थी। किंतु आपातकाल के बरक्श इंदिरा गांधी के पतन के बाद फिर केंद्र व राज्यों में आर्इ गैर कांग्रेसी सरकारों के वजूद में आने के बाद जिस तरह से नेतृत्व की अक्षमता और परस्पर लंगड़ी लगाने के जो हालात निर्मित हुए उससे ये सरकारें जल्दी औंधे मुंह गिर गर्इं और जनता का भी इन से मोहभंग हो गया।

मोहभंग के इस वातावरण को इंदिरा गांधी और उनके नटखट बेटे संजय गांधी ने बड़ी कुटिल चतुरार्इ से भुनाने की राजनीतिक बिसात बिछा दी। अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी को इंदिरा कांग्रेस के नए चेहरे में बदलकर एक नर्इ ऊर्जा का संचार व नए राजनीतिक नेतृत्व का सूत्रपात किया। जिसकी कमान संजय गांधी के हाथ में थी। संजय ने अपने वंश को सत्ता में पुनसर््थापित करने की दृषिट से उन राजवंशों के नुमाइंदों को भी दड़वों से बाहर निकालकर कांगे्रस में शामिल कर राजनीतिक पुनर्वास दे दिया जो महत्वहीन होकर हाशिए का हिस्सा भी नहीं रह गए थे। इनमें से अनेक तो पैतृक धरोहरों की अमूल्य संपत्तियों को बेचकर किसी तरह से अपना गुजारा करने में लगे थे। इन लोगों को सांसद और विधायकोंं के टिकिट मिले। इंदिरा-लहर के चलते ये विजयी भी हुए। यहां से कांग्रेस में एक ऐसा बुनियादी परिवर्तन आया, जिसके चलते कांग्रेस अपनी मूल विचारधारा और गरीब के हित साधक चरित्र से दूर होती चली गर्इ। इस पुनर्वास के बाद सत्ता की ताकत फिर से हासिल करके इन सामंतों ने एक और चालाकी बरती, रियासतों के विलय के बाद जो भूमियां व भवन सरकारी मिलिकयत हो गए थे उनकों हड़पने का सिलसिला शुरू कर दिया। राजस्व दफ्तरों की फाइलों से वे दस्तावेज गायब कराना शुरू कर दिया जो सामंतों की भूमि के हुए बंटबारे को रेखांकित करते थे। भू-प्रबंधन और भू-दस्तावेज आज भी हमारे यहां धूल-धूसरित अक्श व नक्शाें, हस्तलिखित भूमि अभिलेखों और खसरा-खतौनी से संचालित होता है। करोड़ों-अरबों रूपए कंप्यूटरीकरण में खर्च करने के बावजूद पटवारी का कोर्इ ठोस विकल्प सामने नहीं आ पाया है। राजनीतिक प्रभाव के चलते इन सामंती प्रतिनिधियों नेे हजारों एकड़ भूमि और सैंकड़ों भवन दस्तावेजों में हेराफेरी कराकर फिर से हड़प लिए कुछ जगह तो आजादी के बाद से अब तक जिन भवनों में कलेक्टर व कमिश्नर कार्यालय लगते चले आ रहे थे, उन पर इन सामंतों की मिलिकयत की शुरूआत भी हो गर्इ है।

भूमण्डलीकरण का दौर तो थोड़ा बाद में आया इसके पहले ही सत्ता में आए इन सामंतों की पुनसर््थापना ने भारतीय राज्य के लोकतांत्रिक व लोककल्याणकारी चरित्र के चेहरे को सामंती मूल्यों की कुरूरता में बदलने का सिलसिला शुरू कर दिया था। रही-सही कोर-कसर नवउदारवाद के अमेरिकी अवतार ने पूरी कर दी। फलस्वरूप आधुनिक लोककल्याणकारी राज्य के वर्तमान संकटों में जो भूमिअधिग्रहण जैसी बड़ी समस्याएं हैं उसकी पृष्ठभूमि में पूंजीवाद तो है ही, जनप्रतिनिधियों की मानसिकता में सामंती चरित्र का प्रभाव भी है। लिहाजा सामाजिक संरचना के चरित्र को समावेशी बनाए रखने की बजाए पिछले ढार्इ-तीन दशक के भीतर नीतियों को ऐसा रूप दिया जाता रहा है, जिसके तर्इं कथित विकास के आर्दश व मापदण्ड एक रेखीय होते चले जाएं। इस विकास पर जरा भी आंच आती है तो सकल घरेलू उत्पाद और औधोगिक विकास दर प्रभावित होने का रोना प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह और वित्तमंत्री प्रणव मुखर्जी रोने लग जाते हैं। औधोगिकीकरण और शहरीकरण की गति धीमी पड़ जाने का भय दिखाया जाता है। अण्णा हजारे के जन हितैषी आंदोलन को पूंजी निवेश के खतरों से जोड़कर देखा जाता है। उधोगपतियों का देश छोड़ कर चले जाने का काल्पनिक हल्ला मचाया जाता है। कुशल तकनीकियों का रोजगार छिन जाने की चिंता जतार्इ जाती है। और इन सब कृत्रिम आपदाओं के बहाने उधोगपतियों को छह लाख करोड़ की छूट देकर उनके आर्थिक हितों को बाला-बाला संरक्षण दिया जाता है। जबकि जिस पूंजीवाद के रास्ते उदारीकरण भारत आया, उसकी जरूरी शर्त है कि प्रतिस्पर्धा के नियम सरल व पारदर्शी हों और हर संभावनाशील, महत्वाकांक्षी व नवोदित उधमी को उपनी कौशल-दक्षता दिखाने का समान अवसर मिले। परंतु हुआ इसके विपरीत उधोग लगाने के जटिल कानून और भारी-भरकम पूंजी निवेश के चलते तकनीकी कुशलता के धनी-मानी युवा देशी-विदेशी कंपनियों के मोटी तनखा पाने वाले बंधुआ बनकर रह गए।

इसीलिए भूमि अधिग्रहण कानून का जो नया प्रारूप सामने आया है उसका उधोग जगत तो विरोध कर ही रहा है, सामंती और व्यापारिक सोच के अनेक मंत्री व सांसदों ने भी असहमति जतार्इ है। क्योंकि मयौदा किसान व खेती के प्रति संवेदनशील है। सिंचित कृषि भूमि के अधिग्रहण पर पूरी तरह रोक का प्रस्ताव है। इस सिथति से सवाल उठता है कि हमारे नेता समाज के किस तबके के पैरोकार हैं और किनके हितों के संरक्षण में लगे हुए हैं। यही कारण है कि गरीब व वंचित की आजीविका के बहाने अब तक दलित, आदिवासी व हरिजनों को जितने भी पटटे दिए गए हैं, उनमें से ज्यादातर के हिस्से बंजर व विवादित भूमि आर्इ है। ये हालात भूमि सुधार योजनाओं की हकीकत से भी रूबरू कराते हैं। बहरहाल यदि केंद्र की मनमोहन सिंह सरकार कृषि व किसान के प्रति थोड़ी भी संजीदा है तो उसे भूमि अधिग्रहण के इस प्रारूप में पूर्व सामंतों व जमींदारों की व्यर्थ पड़ी भूमि को अधिग्रहण किए जाने का प्रस्ताव भी जोड़ना चाहिए। किसान की भूमि अधिग्रहण से पहले पूर्व सामंतों, पूंजीपतियों और राजनीतिक के भूमि व भवन उधोग लगाने व स्कूल-कालेज व अस्पताल खोलने के लिए उपलब्ध हैं तो पहले इनका अधिग्रहण किया जाए ? इससे न पूनर्वास की समस्या पैदा होगी और न ही किसी की आजीविका छिनेगी ? ऐसी सिथति पैदा होती है तो इससे यह भी पता चलेगा कि इन सामंतों के चेहरे कितने लोक कल्याणकारी हैं और कितने सामंती ?

 

– प्रमोद भार्गव

लेखक प्रिंट और इलेक्ट्रोनिक मीडिया से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार है ।

 

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