हमें पता नहीं इस जन्म में हम कहां से आये और इसके बाद कहां जाना है ?

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मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

               हम मनुष्यों ने वर्तमान आधुनिक ज्ञान विज्ञान के युग में जो जानना चाहा वह जान लिया और विज्ञान विषयक जिस खोज को आरम्भ किया उसमें से अधिकांश व प्रायः सभी ल क्ष्यों को प्राप्त भी कर लिया है। अनेक प्रश्न आज भी ऐसे हैं जिसका उत्तर हमें ज्ञान विज्ञान के किसी ग्रन्थ में उपलब्ध नहीं होता और न किसी धर्म व मत-मतान्तर के ग्रन्थ में व उनके आचार्यों के पास ही मिलता है। ऐसा ही एक प्रश्न है कि हम इस जन्म में कहां से आये हैं और हमें इस जीवन में मृत्यु होने पर कहां जाना होगा? इस प्रश्न पर विचार करने से पूर्व हमें अपनी आत्मा के विषय में विचार करना उचित समझते है। हम एक सत्य व चित्त पदार्थ वा सत्ता हैं जो अनादि, अनुत्पन्न, अमर, अविनाशी, नित्य, अजर, अल्पज्ञ, एकदेशी, ससीम, ईश्वर से व्याप्य, जन्म व मरण में बंधी हुई, अपने पूर्वजन्म व इस जन्म के शुभ व अशुभ कर्मों का सुख व दुःख रुपी फल भोगने वाली है। यह ज्ञान वेद, उपनिषद, दर्शन व ऋषि दयानन्द के ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश आदि से होता है। विचार करने पर इसकी सत्यता की पुष्टि होती है। आत्मा अनादि व अनन्त है। यह न कभी उत्पन्न हुआ है और न कभी इसका अन्त व नाश होगा। यह सदा से है और सदा वर्तमान रहेगा। शस्त्र से यह काटा नहीं जा सकता, अग्नि इसे जला नहीं सकती, जल से यह गीला नहीं होता और न वायु इसे सुखा सकती है। जीवात्मा अल्पज्ञ है अर्थात् इसके पास कुछ स्वाभाविक ज्ञान व कर्म करने की अल्प सामर्थ्य है। यह ज्ञान व अल्प सामर्थ्य तभी उपयोग में आती हैं जब इसका जन्म मनुष्य या किसी अन्य योनि में जन्म होता है। जन्म यद्यपि माता-पिता के द्वारा होता है, पालन भी वह करते हैं परन्तु माता के गर्भ में जीवात्मा का शरीर माता-पिता नहीं अपितु परमात्मा व परमात्मा की व्यवस्था से बनता है। माता-पिता को तो यही पता नहीं होता कि माता के गर्भ में जो शिशु बन रहा है वह कन्या है या बालक? जन्म के बाद ही वह जान पाते हैं कि उनकी सन्तान पुत्र है या पुत्री।

उपर्युक्त पंक्तियों में हमने जो बातें लिखी हैं उसका आधार ऋषि दयानन्द का साहित्य व इतर वैदिक साहित्य है। यह ज्ञान भी अनेक मत व पन्थों के आचार्यों व अनुयायियों को नहीं है। सभी मत-मतान्तर प्रायः जिज्ञासा से शून्य हैं। वह अपने मत की सत्य व असत्य बातों के अतिरिक्त अन्य मतों व ज्ञान-विज्ञान की पुस्तकों में उपलब्ध सत्य ज्ञान की बातों को जानना ही नहीं चाहते। इससे वह सभी भय करते हैं। कारण एक ही प्रतीत होता है कि उन्हें लगता है कि उनकी बातें यदि असत्य सिद्ध हो गईं तो उनका मत असत्य सिद्ध हो जायेगा और उससे उनके हितों को हानि होगी। हमारे वैज्ञानिक भौतिक पदार्थों में ईश्वरीय व प्राकृतिक नियमों की खोज करते हैं। खोज करने के बाद भी उस पर निरन्तर अध्ययन जारी रहता है जिससे उसमें यदि कुछ न्यूनता हो तो उसे दूर किया जा सके। विज्ञान के जो नियम व जानकारी आज उपलब्ध है वह इससे पूर्व नहीं थी। यदि महाभारत व उससे पूर्व रही भी होगी तो उसका किसी को कोई ज्ञान नहीं है। विज्ञान विषयक सामग्री में निरन्तर परिवर्तन, संशोधन व वृद्धि आदि का क्रम चल रहा है। धर्म मतों में यह सिद्धान्त केवल आर्यसमाज वैदिक धर्म में ही व्यवहारिक हो रहा है। इसका कारण है कि वेद व वैदिक धर्म की परम्परा सामान्य बुद्धि के मनुष्यों से आरम्भ न होकर स्वयं सर्वव्यापक व सृष्टिकर्ता ईश्वर व ईश्वर तथा संसार को सूक्ष्मता से जानने वाले ऋषियों से आरम्भ हुई है। अतः वैदिक मत के आचार्य व अनुयायी धर्म व समाज विषयक सभी विषयों पर विचार व चर्चा करने के लिये समुद्यत रहते हैं जबकि अन्य लोग ऐसा न कर असत्य मान्यताओं का संशोधन न कर सैकड़ो व कुछ हजार वर्षां से उसे वैसा ही मानते आ रहे हैं जैसा कि उन मतों ने अपने आरम्भ काल से स्वीकार की गई थी।

               मनुष्य आदि जितनी भी प्राणी-योनियां हैं उन सब प्राणियों के शरीरों में एक जीवात्मा होता है जिसका स्वरूप उपर्युक्त वर्णनानुसार है। सभी प्राणियों का शरीर पंचभूत यथा पृथिवी, अग्नि, वायु, जल और आकाश का समुदाय होता है। शरीर का जन्म होता है अतः इसका नाश व मृत्यु भी अवश्यम्भावी है। जन्म के विषय में तो हम जानते हैं कि हमारा जन्म हुआ है और कालान्तर में मृत्यु भी होगी परन्तु हम इस जन्म से पूर्व कहां थे, कहां से इस मनुष्य योनि में आये हैं, इस पर विचार करने से ज्ञात होता है कि जीवात्मा अनादि व अविनाशी है, इसलिये इस जन्म से पूर्व भी हमारा अस्तित्व तो निश्चय ही विद्यमान था। आत्मा अल्प-ज्ञान व कर्म-शक्ति वाला होने से वह निठल्ला तो कदापि नहीं हो सकता। अवश्य इस जन्म से पूर्व भी वह इस जन्म की तरह इस ब्रह्माण्ड में अन्य स्थान पर मनुष्य या पशु-पक्षी आदि किसी प्राणीयोनि में रहा होगा। हम जानते हैं कि मनुष्यों में भूलने का स्वभाव है। इसी कारण हमें पूर्वजन्म की स्मृति नहीं रहती। दूसरी बात यह भी है कि मन एक समय में एक विषय का ही ज्ञान आत्मा को कराता है। हम क्योंकि हर समय अपने अस्तित्व का बोध अपने मन व आत्मा में बनाये रखते हैं, इसलिये हम पुरानी बातों को भूले रहते हैं। बचपन से ही हम अपने अस्तित्व को अपने ज्ञान में रखे हुए हैं। इसलिये अपने पुराने अस्तित्व का हमें ज्ञान नहीं रहता। यह भी एक तथ्य है कि हमारी स्मृतियां हमारे सूक्ष्म मन व मस्तिष्क में रहती हैं वहीं इसकी स्मृति कराने में भौतिक मन व मस्तिष्क का भी योगदान होता है। मृत्यु के समय मनुष्य का भौतिक दृष्यमान शरीर व इसके सभी अंग-प्रत्यंग व करण आदि नष्ट हो जाते हैं। भौतिक शरीर व उसके अंग-प्रत्यंग आदियहीं छूट जाते हैं और जीवात्मा सूक्ष्म शरीर जिसमें मन, बुद्धि, चित्त व अंहकार सहित पांच ज्ञानेन्द्रिय व पांच कर्मेंन्द्रिया भी होती हैं, सहित पुनर्जन्म व मोक्ष के लिये प्रस्थान कर जाते हैं। पूर्वजन्म की स्मृतियों पर इस जन्म की स्मृतियां आ जाने से उनकी पृष्ठभूमि समय के साथ अत्यन्त धूमिल होकर विस्मृत हो जाती है।

प्रायः देखा गया है कि कुछ बच्चों को अपने पूर्वजन्म की स्मृतियां रहती हैं। उन्हें बचपन में पुर्वजन्म की कुछ बाते याद आती हैं जिसे वह अपने परिवार में बताते हैं। ऐसे अनेक उदाहरण हैं जिसमें वह सत्य पायीं गईं हैं। इससे पूर्वजन्म सिद्ध होता है। बचपन में बच्चे का अपनी मां का दूध पीने का अभ्यास, सोते हुए डरना व हंसना आदि कृत्य भी पूर्वजन्म होना बताते हैं। इससे यह ज्ञात होता है कि हम पूर्वजन्म में किसी न किसी योनि में थे। कहां थे? किस योनि में थे? हमारे माता-पिता कौन थे? हमने पूर्वजन्म में क्या क्या व्यवहार किये? यह हमें याद नहीं आता। ईश्वर ने हमारे हित में ही हमें पुरानी बातों को स्मरण नहीं होने दिया है। ऐसा देखा गया है कि यदि हममे पूर्वजन्म की सभी स्मृतियां बनी रहती तो इस जन्म में हमारा जीना दूभर हो जाता। मान लीजिये पिछले जन्म में हम धनाड्य थे और इस जन्म में निर्धन व दुर्बल हैं। यदि हमें पूर्वजन्म की सभी घटनायें याद होती तो हम इस जन्म में पुरानी बातों को याद करके दुःखी रहते और पुरुषार्थ व नित्य कर्म भी सम्भवतः सुचारू रूप से न कर पाते। अतः हमें यह मान लेना चाहिये कि पूर्वजन्म में हम मनुष्य या पशु-पक्षी आदि नाना योनियों में से किसी योनियों में थे और भविष्य में भी इस जन्म के कर्मों के अनुसार हमारा जन्म होगा। हमें भविष्य के पुनर्जन्म में भी यह स्मरण नहीं होगा कि हम कहां व किस योनि में थे। जैसा भी होगा वह हमारे कर्मानुसार होगा जो हमें याद नहीं रहता परन्तु हमारा ईश्वर सर्वव्यापक व सवार्वर्न्यामी होने से उन सभी कर्मों का साक्षी रहता है और उसे हमारे प्रत्येक कर्म का ज्ञान रहता है। उसी के आधार पर वह हमारे पुनर्जन्म के जाति, आयु व भोग को निर्धारित कर जन्म देता है। हमें भी इसी व्यवस्था के अनुसार जन्म मिलेगा। हमें अपने भावी पुनर्जन्म में अपने इस जन्म का स्मरण नहीं रहेगा इससे यह लाभ होगा कि हमें इस जन्म की बातों से क्लेश आदि भी नहीं होगा। अतः हमारा पूर्वजन्म था व भविष्य में भी पुनर्जन्म होगा। कहां व किस योनि में होगा यह हम नहीं जान सकते। वेद आदि शास्त्र व हमारे ऋषियों ने हमें यह बता दिया है कि हम हम अनादि व अनन्त सत्ता हैं और सृष्टिकाल में हमारा जन्म होता आया है और आगे भी हमारे कर्मों के अनुसार मोक्ष पर्यन्त जन्म होता रहेगा।

हमारा अधिकार केवल कर्म करने में है। इसलिए हमें शुभ कर्म करने हैं जिसमें ईश्वर, जीवात्मा व संसार का ज्ञान प्राप्त करने सहित ईश्वरोपासना, यज्ञादि, पितृयज्ञ सहित सभी धर्मानुकूल कर्मों को करना है। अपना कर्तव्य ठीक से पूरा कर हमें अपने कर्मों को ईश्वर को समर्पित कर देना है। इससे हमें कर्मानुसार जन्म मिल जायेगा जिसके लिये हमें चिन्तित होने की आवश्यकता नहीं है।

हमारे इस लेख में विषय के अनुरूप यह बताया गया है कि इस जन्म से पूर्व हम ब्रह्माण्ड में किसी अन्य स्थान पर मनुष्य या पशु-पक्षी आदि अनेकानेक योनियों में से कहीं जीवन व्यतीत कर रहे थे। उस जन्म के कर्मों व कर्म-भोगों के अनुसार परमात्मा ने अपने जाति-आयु-भोग के सिद्धान्त के अनुसार हमें मनुष्य जन्म दिया। इस जन्म के कर्मों के अनुसार हमें भावी जन्म मिलेगा। मोक्ष पर्यन्त सृष्टिकाल में हमें बार-बार जन्म व मरण के चक्र से गुजरना है। मोक्ष मिलने पर जन्म व मरण का चक्र लम्बी अवधि के लिए समाप्त होकर जीवात्मा को ईश्वर का आनन्द प्राप्त होता है। यही मनुष्य जीवन व जीवात्मा का लक्ष्य है। हमें वेदों व वैदिक साहित्य का अध्ययन कर इनकी रक्षा भी करनी है। अपनी धर्म व संस्कृति का प्रचार करना है। वैदिक धर्म के शत्रुओं से भी धर्म की रक्षा करनी है अन्यथा हमारी आने वाली पीढ़ियां वेद, धर्म एवं संस्कृति से विहीन हो जायेंगी। ईश्वर करे ऐसा समय कभी न आये। यह तभी सम्भव होगा जब हम बलिदान की भावना रखते हुए सब संगठित होकर वेद व वैदिक धर्म की रक्षा करेंगे। ओ३म् शम्।             

2 COMMENTS

  1. मनमोहन आर्य जी, आपके कथन “अतः हमें यह मान लेना चाहिये कि पूर्वजन्म में हम मनुष्य या पशु-पक्षी आदि नाना योनियों में से किसी योनियों में थे और भविष्य में भी इस जन्म के कर्मों के अनुसार हमारा जन्म होगा।” में कर्म की स्वतंत्रता की अनुपस्थिति में जड़ बना मनुष्य जीवन-मृत्यु के चक्र से दूर भविष्य में जन्म को कैसे प्रभावित कर पाएगा? मेरा तात्पर्य है कि यदि मनुष्य के वर्तमान कर्म भी उसे पूर्व किये कर्मों की देन हैं तो स्वयं मनुष्य का अच्छे बुरे कर्मों में हस्तक्षेप कैसे हो पाएगा? पाश्चात्य सभ्यताओं में स्वतन्त्र इच्छा (free will) पर विवाद करते विद्वानों को मैंने सदैव इसके अनुकूल अथवा प्रतिकूल स्थिति में पाया है| संयुक्त राज्य अमेरिका स्थित स्वयं मेरे परिवार में मेरा विद्या-संपन्न सुपुत्र स्वतन्त्र इच्छा के पक्ष में और उसके विपक्ष मैं बूढ़ा, दोनों सदैव गतिरोध स्थिति बनाए हुए थे जब एक दिन अकस्मात् मध्यस्थिति बने “अंतःकरण अथवा अंतरात्मा” मेरे मन में कौंध गए| यह कह कर कि हम अच्छे कर्म तो करते ही हैं, मैंने अपने बेटे को समझाया कि बुरे कर्म करते अंतःकरण अथवा अंतरात्मा को सुनना और न सुनना ही स्वतन्त्र इच्छा है| उस क्षण हम दोनों ख़ुशी ख़ुशी एकमत तो हो गए परन्तु मेरे भारतीय-मन में अभी भी दुविधा बने बुरे कर्म करते अंतःकरण अथवा अंतरात्मा को सुनना न सुनना भी तो पूर्व कर्मों का फल है! ज्ञानवर्धक आलेख के लिए मनमोहन आर्य जी को मेरा साधुवाद|

  2. ॐ==> (१) हमारे हाथ में इस जन्म के कर्म अवश्य अवश्य है इस सत्य को कोई नकार नहीं सकता. (२) अगला जन्म हमें निश्चित पता नहीं. इस बात को भी नकारा नहीं जा सकता.(३) जो जीवन और उसके कर्म हमारे हाथ में हैं, उन्हें जितना अधिक कर पाए उतना समर्पित भाव से करना अवश्य हमारे हाथ में है. शायद इसी लिए भगवान कर्मयोग बता गए हैं. समर्पण कर्म फ्ल का ही समर्पण है.इतना इस किंकर के समझ में आता है.
    फिर भी मोह-माया के बंधनों मे अंदर./बहार का खेल व्यग्रता दिलाता है. —-ॐ मनमोहन कुमार जी को अनेकानेक धन्यवाद.
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    फिर से, ==> हमारा अधिकार केवल कर्म करने में अवश्य है। जो हाथ में है निश्चित उसको भली प्रकार करना चाहिए.जिसकी जानकारी नहीं होती, उसको, इसी लिए शास्त्र पराविद्या कहते हैं.
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    मनमोहन जी भी अम्त में कह ही रहे हैं====> अपना कर्तव्य ठीक से पूरा कर हमें अपने कर्मों को ईश्वर को समर्पित कर देना है। इससे हमें कर्मानुसार जन्म मिल जायेगा जिसके लिये हमें चिन्तित होने की आवश्यकता नहीं है।

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