खतरे में है अरावली पर्वत श्रृंखलाएं

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aravaliप्रमोद भार्गव

 

ज्यादा से ज्यादा प्राकृतिक संपदाओं का दोहन वर्तमान आधुनिक एवं आर्थिक विकास नीति का आधार है। लेकिन हमारे यहां जिस निर्दयी बेशरमी से प्राकृतिक संसाधनों का दोहन जारी है,उस परिप्रेक्ष्य में मौजूदा आर्थिक विकास की निरंतरता तो बनी ही नहीं रह सकती,दीर्घकालिक दृष्टि से देंखे तो विकास की यह आवधारणा उस बहुसंख्यक आबादी के लिए जीने का भयावह संवैधानिक संकट खड़ा कर सकती है, जिसकी रोजी-रोटी की निर्भरता प्रकृति पर ही अवलंबित है। इस लिहाज से सर्वोच्च न्यायालय ने 2002 में अरावली पर्वत श्रृंखलाओं से उत्खनन पर पूरी तरह प्रतिबंधित कर दिया था, लेकिन पिछले 10-11 सालों में इस पर अमल में लापरवाही बरती गर्इ। नतीजतन राश्टीय हरित न्यायाधिकरण ने एक बार फिर दुनिया की इन सबसे पुरानी पर्वत श्रृंखलाओं को बचाने के लिए आदेश जारी किया है। इसके तहत अब दिल्ली से सटे गुड़गांव के पूरे अरावली क्षेत्र में सड़क निर्माण और पेड़ों के काटने पर रोक लगा दी गर्इ है।  विकास के बहाने पर्यावरण संरक्षण के मामलों को अक्सर नजरअंदाज कर दिया जाता है लेकिन इस मर्ताबा इस फैसले से यह संदेश प्रचारित हुआ है कि पर्यावरण सुरक्षा के हितार्थ कड़े से कड़े कदम उठाए जा सकते हैं।

आज का सीमेंट, कंक्रीट व लोहे की संरचनाओं से जुड़ा आधुनिक विकास हो अथवा कंप्युटर व संचार क्रांति से संबंधित प्रौधोगिक विकास सबकी निर्भरता प्राकृतिक संपदा पर आश्रित है। इस विकास के दारोमदार जल,जंगल और जमीन तो हैं ही, तमाम खनीज जीवाष्म र्इंधन, रेडियोएकिटव और तरल पदार्थ भी हैं। ये संपदाए अब अकूत नहीं रहीं। इनके भण्डार बेशुमार दोहन से रीत रहे हैं। लिहाजा प्रकृति का पारिस्थतिकी संतुलन संकट में आ ही गया है एक बड़ी आबादी के जीने का अधिकार भी खतरे में है। क्योंकि प्रकृति के खजाने लुट जाएंगे तो संविधान के अनुच्छेद इक्कीस में दिए जीने के अधिकार के प्रावधान का कोर्इ अर्थ नहीं रह जाएगा।

न्यायाधिकरण ने गुड़गांव,फरीदाबाद और मेवात क्षेत्र के 548 वर्ग किलोमीटर के दायरे में खनन को पूरी तरह प्रतिबंधित कर दिया है। ऐसा इसलिए किया गया क्योंकि खनन क्षेत्र में शर्तों के मुताबिक पर्यावरण सुधार के प्रवाधनों को अमल में नहीं लाया जा रहा था। भूमाफिया और वनाधिकारी बेखौफ होकर सूरजकुंड की पहाडि़यों में बड़े पैमाने पर गैर कानूनी निर्माण कर रहे थे। फार्महाउस इमारते और रिसार्ट बनाये जा रहे थे। घने वन क्षेत्रों को गडडों में बदल दिया गया था। जो पहाडि़यां एक समय वनों से आछादित थीं, वे बंजर बना दी गयी थी। अब अरावली की हरियाली लौटाने की दृष्टि से न्यायाधिकरण ने बड़े पैमाने पर पेड़ लगाने और क्षेत्र में कचरा फेंकने पर रोक लगा दी है। साथ ही दो सप्ताह के भीतर सभी तरह के निर्माण तोड़ने तीन माह के भीतर क्षेत्र से गैस सिलेंडर और शराब की दुकानें हटाने का आदेश दे दिया है।

 

अरावली – पहाडि़या दुनिया की प्राचीनतम पर्वत श्रृंखलाएं है। लगभग 800 किलोमीटर के दायरे में फैली ये पहाडि़यां गुजरात से शुरु होकर राजस्थान, हरियाणा होते हुए दिल्ली तक पसरी हैं। इन पहाडि़यो के मानव समुदाय के लिए कुदरती महत्व है। इन्हीं पहाडि़यो की ओट पश्चिमी रेगिस्तान को फैलने से रोके हुए है। अन्यथा हरियाणा,दिल्ली और उत्तर प्रदेश की जो अपजाउ भूमि है उसे रेगिस्तान में तब्दील होने में समय नहीं लगेगा। पहाडि़यों की हरियाली नष्ट होने से इस क्षेत्रमें शुश्कता का विस्तार हुआ। नतीजतन जल स्तर नीचे चला गया। प्रकृति का पारिसिथतिकी तंत्र सिथर रहे, इस लिहास से अदालत द्वारा सख्ती बरतना जरूरी था। क्योंकि हमारी राजनीतिक इच्छा शकित और प्रशासनिक दृढ़ता तो अखिरकार अपने निजी हितों के चलते उत्खन्न कर्ताओं के ही हित-पोषण में लगी हुर्इ है।

हमारे देश में अरावली की पर्वत श्रेणियां ऐसे अकेले स्थल नहीं है जहां की संपदा को बेजा लूटकर पर्यावरण विनाश किया गया हो। इसके पूर्व दक्षिण भारत के पषिचिमी धाटियों में उत्खनन की प्रकि्रया जारी रहने से घाटी के वन क्षेत्र और नदियों की गहरार्इ संकट के दायरे में आ गए थे। पषिचम के ये वन प्रांत दुलर्भ वनस्पतियों व जैव विविधता के अनुपम उदाहण हैं। इस क्षेत्र के पारिसिथतिकी तंत्र को बचाने के लिए भी सर्वोच्च न्यायलय को पहल करनी पड़ी थी।

भारत में पर्यावरण विनाश की सीमा अरावली पर्वत श्रेणियों और पषिचम के घाटों तक ही सीमित नहीं है, मध्यक्षेत्र में भी बेतरतीब ढंग से प्राकृतिक संपदाओं के दोहन के कारण सतपुड़ा और विंध्याचल की पर्वत श्रेणियां तो खतरे में हैं ही, अनेक जीवनदायी नादियों का वजूद भी संकट में है। छत्तीसगढ़ में कच्चे अयस्क के अवैज्ञानिक दोहन से षंखिनी नदी को ही पूरी तरह प्रदूशित करके रख दिया है। बैलाडिला के जो लोह तत्व अवषेश के रूप में निकलते हैं, वे किरींदल नाले के जरीए षंखिनी नदी में प्रवाहित होते हैं। इस कारण नदी और नाले का पानी अम्लीय होकर लाल हो जाता है,जो न पीने लायक रह गया है और न ही सिंचार्इ के लायक।

मध्यप्रदेश के मालवा क्षेत्र में लगे स्टील संयत्र रोजाना करीब 60 टन दूशित मलवा चंबल और चामला नादियों में बहाकर उन्हें दूशित तो बना ही रहे है,मनुश्य-मवेशी व अन्य जलीय जीव-जंतुओं के लिए भी जानलेवा साबित हो रहे हैं। बड़े पैमाने पर पारिसिथतिकी तंत्र को गड़बड़ाने जा रही रेणुका बांध परियोजना को रदद करने की भी मांग उठ रही है। इस परियोजना को असितत्व में लाने का मुख्य मकसद दिल्लीवासियों को अतिरिक्त 275 मिलियन गैलन पानी प्रतिदिन मुहैया कराना है। जबकि दिल्ली के लिए हथिनी कुंड और वजीरावाद बैराज पहले से ही जल सरंक्षण और जल प्रदाय कर रहे हैं। 1994 की इस परियोजना पर पांच सहयोगी प्रदेश राजस्थान,हरियाणा,दिल्ली,हिमाचल और उत्तर प्रदेश समझौता करने एकजुट हुए थे। लेकिन राजस्थान ने इस समझौते पर हस्ताक्षर करने से इंकार कर दिया था। ऐसी सिथति में पारियोजना रद्रद मानी जानी चाहिए। लेकिन ऐसा हैं नहीं। धीमी गति से परियोजना को गतिशील बनाने के लिए कार्यवाहियां जारी हैं। विषेशज्ञों का मानना है कि यह परियोजना यदि अमल में आती है तो निचले हिमालय क्षेत्र में दो हजार हेक्टेयर में फैले जंगल और कृषि क्षेत्र डूब जाएंगे। रेणुका अभ्यारण्य डूब में आएगा। सात सौ से ज्यादा परिवार प्रभावित होंगे, जो वनोत्पाद से अपना जीवनयापन करते है। साथ ही लहसून,अदरक और टमाटर की नगदी फसलों पर अधारित यहां की कृषि अर्थव्यस्था नष्ट हो जाएगी। बड़े पैमाने पर विभिन्न समुदायों के लोगों की धार्मिक, सांस्कृतिक व पुरातातिवक धरोहरों का भी विनाश होगा।

दरअसल दिल्ली को फिलहाल रेणुका बांध से जलापूर्ति की जरूरत नहीं है। दिल्ली जलबोर्ड की जो आडिट रिर्पोर्ट 2008 आर्इ थी,उसमें स्पश्ट उल्लेख है कि दिल्ली में कुल जल प्रदायगी का 40 प्रतिशत वितरण के दौरान रिसाव के चलते बर्बाद हो जाता है। दिल्ली जल बोर्ड इस बर्बादी को रोक ले तो उसे जलापूर्ति के लिए किसी नए विकल्प की जरूरत नहीं रह जाती है। लेकिन हमारे देश में कथित विकास के ठेकेदारों का एक ऐसा माफिया तंत्र खड़ा हो गया है जो राजनीतिज्ञ और आधिकारियों का आर्थिक हित सरंक्षक बना हुआ है। विकास के इसी गठजोड़ के हित-पोषण के लिए पिछले 50 साल के भीतर करीब चार करोड़ प्रकृति पर निर्भर आदिवासी व अन्य समुदायों के लोग आधुनिक विकास परियोजनाएं खड़ी करने के लिए पुष्तैनी क्षेत्रों से खदेड़े गए हैं। जिनका उचित पुर्नवास लालफीतीशाही और भ्रश्टाचार के चलते आज तक नहीं हो पाया है।

अब यहां समस्या उठती है कि हम विकास का ऐसा कौन सा आदर्ष प्रतिदर्ष तैयार करें जिसके अंतर्गत विकास की गतिशीलता भी बनी रहे और पर्यावरण सरंक्षण की दिशा में समानांतर सुधार होता रहे। आधुनिक विकास का आधार प्रकृतिक संसाधन है, लेकिन इनके विनाश की शर्त पर खनिजों के दोहन का वर्तमान सिलसिला जारी रहा तो प्रकृति के पारिसिथतिकी तंत्र का असुतंलित हो जाना तय है। यह तंत्र लड़खड़ाता है तो जीव-जगत का विनाश भी तय है। लिहाजा अब औधोगिक विकास व वाणिजियक लाभ-हानि के गुणाभाग से परे आर्थिक विकास का मूल्यांकन जल,जंगल और जमीन के विनाश के पैमाने पर होना चाहिए। क्योंकि प्राणी जगत का असित्तव अंतत प्रकृतिक संपदा की उपलब्धता में ही निहित है। शायद इसलिए गांधीजी ने पहले ही कह दिया था कि हमें कोर्इ अधिकार नहीं की हम प्रकृति के भण्डार में से आने वाली पीढि़यों का हिस्सा भी हड़प लें ? लेकिन गांधी के इस संजीवनी वाक्य पर अमल कौन करेगी ?

 

प्रमोद भार्गव

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