छत्तीसगढ़ में मेधा पाटेकर-नक्सलवादियों की नयी रणनीति

पिछले दिनों छत्तीसगढ़ के बस्तर में मेधा पाटेकर अपने एक दूसरे सहयोगी संदीप पांडे के साथ पहुंची थीं। उनके साथ ईसाई मिश्नरियों के लोग भी हो लिये और बस्तर में नक्सलवादियों का साथ देने वाले कुछ दूसरे लोग भी उनके इस जमावड़ा में शामिल हो गये। पाटेकर और पांडे इस जमावड़े के साथ दंतेवाड़ा पहॅुचे। यह जत्था दिल्ली से आया था। मेधा पाटेकर को लगता है कि बस्तर में नक्सलवादियों और माओवादियों के मानवाधिकारों का हनन हो रहा है। सरकार उनको बेवजह तंग कर रही है और उन पर हिंसा का प्रयोग भी किया जा रहा है। मेधा पाटेकर और संदीप पांडे दूसरों के मानवधिकारों को लेकर बहुत चिंतित रहते है। उनकी इस चिंता के कारण विदेशों में उन्हें वक्त बेवक्त सम्मानित भी किया जाता रहता है। विदेशों से मिले इस सम्मान को वे मोर पंख की तरह अपने बालों में खोंस कर इधर उधर घूमते है। शायद यह आम आदमी को डराने के लिए भी हो। लेकिन मेधा पाटेकर और पांड़े जैसे दूसरे लोगों की ज्यादा चिंता आतंकवादियों और माओवादियों के मानवाधिकारों की ही रहती है। इसके लिए उनका अपना तर्क भी है। उनका कहना है कि सामान्य जनता के मानवाधिकारों की रक्षा करने के लिए राज्य की पूरी व्यवस्था है। कानूनी प्रक्रिया है। लेकिन आतंकवादी और नक्सलवादी लाचार और निरीह हैं। प्रशासन सबसे ज्यादा इन्हीं को प्रताड़ित करता है और इनकी रक्षा के लिए कोई आगे नहीं आता। इसलिए पाटेकर और पांडे दोनों ही छत्तीसगढ़ में नक्सल प्रभावित क्षेत्र बस्तर के दंतेवाड़ा में पहुंचे। दंतेवाड़ा नक्सलवादियों का सबसे बड़ा अड्डा है। उस अड्डे में जाकर पाटेकर और पांडे नक्सलवादियों के मानवाधिकारों की रक्षा के लिए पद यात्रा करने वाले थे।

बस्तर में नक्सलवादियों का कहर एक लम्बे अर्से से वहॉ का जनजाति समाज झेल रहा है। उन्होंने गॉव के भोले भाले हजारों लोगों की हत्याएं ही नहीं की बल्कि सारे विकास कार्य को ही ठप्प कर दिया है। वे घरों में घुस कर माताओं से उनके बच्चे छीन कर ले जाते हैं, ताकि उन्हें जंगलों में ले जाकर उन्हें शस्त्रों का प्रशिक्षण दिया जा सके। नक्सलवादियों ने स्थानीय उत्सवों और त्यौहारों को मनाने पर रोक लगा दी है क्योंकि उनकी दृष्टि में ये उत्सव सामन्ती चेतना के प्रतीक हैं। वे लोगों के घरों से लड़कियों को उठाकर ले जाते है और जंगलों में उन्हें भोग वासना का शिकार बनाते हैं। नक्सलवादियों की व्याख्या के अनुसार यह नये उन्मुक्त समाज की रचना की शुरूआत है। ताजुब्ब है नक्सलवादियों ने वर्ग संघर्ष के नाम पर हजारों गरीबों को ही मौत के घाट उतारा है। दुर्भाग्य से राज्य की व्यवस्था इन इलाकों में दम तोड़ गयी और पूरा बस्तर इन नक्सवादियों के रहमोकरम पर ही निर्भर हो गया। जनजाति समाज के लोगों ने जब देखा कि शासन असहाय और पंगु हो गया है तो उन्होंने स्वंय ही रक्षा करने के लिए सलवा जुड़म की रचना की। सरकार ने कम से कम इतना जरूर किया कि इसका विरोध करने की बजाये इसको समर्थन देना शुरू किया।

मेधा पाटेकर जैसे लोग नक्सलवादियों को स्थानीय लोगों के क्रोध से बचाने के तरीके ढूंढ रहे हैं। उनका कहना है कि सरकार सलवा जुड़म से जुडे आंदोलनकारियों को नक्सलवादियों का विरोध करने से रोके क्योंकि इससे नक्सलवादियों के मानवाधिकारों का हनन होता है। अपने इसी सिद्वांत का प्रयोग करने के लिए वे दंतेवाड़ा गई थीं। चर्च के लोग पाटेकर के साथ इसलिए जुड़ जाते हैं क्योंकि उन्हें अराजकता में ज्यादा काम करने की सुविधा प्राप्त हो जाती है और उनका मतांतरण का धंधा तेजी से चल निकलता है। चर्च भी यहाँ के स्थानीय समाज को उसकी विरासत से काटना चाहता है और नक्सलवादी भी अपने लम्बे मकसद के लिए यही करना चाहते है। इसलिए इस मोड़ पर चर्च और नक्सलवादी एकजुट हो जाते है। उड़ीसा में स्वामी लक्ष्मणानन्द सरस्वती की हत्या के मामले में माओवादियों और चर्च का यह गठबंधन बना है, ऐसा नवीन पटनायक की सरकार ने भी स्वीकार किया है। इसी रणनीति के तहत दंतेवाड़ा में भी चर्च के लोग मेधा पाटेकर और संदीप पांडे के साथ नक्सलवादियों के मानवाधिकारों के लिए छातियाँ पीट रहे थे।

मेधा पाटेकर का काम तो नक्सलवादियों के पक्ष में केवल छाती पीटकर चल जाता है, लेकिन बस्तर के जनजाति समाज को नक्सलवादियों की गोलियाँ अपनी छाती पर खानी पड़ती हैं। छाती पीटने में और छाती पर गोली खाने में कितना अंतर है, यह दिल्ली और मुम्बई में बैठकर मानवाधिकारों के लिए लड़ने वाली मेधा पाटेकर भी अच्छी तरह जानती हैं। दंतेवाड़ा में क्रुद्व जनजाति समाज ने पाटेकर और उनके साथियों को घेर लिया। उन्हें नक्सलवादियों के पक्ष में पद यात्रा नहीं करने दी और पुलिस किसी तरह कोशिश करके पाटेकर को साथियों समेत थाने में सुरक्षित लेकर आई। इतना ही नहीं इस जत्थे की दंतेवाड़ा के पत्रकारों से भी मुट्ठभेड़ हो गई। पुलिस ने स्थानीय लोगों को भगाने के लिए उन पर लाठीचार्ज भी किया। कहते है मेधा पाटेकर जनजाति समाज के इस गुस्से से बहुत आहत् हैं। थाने में बैठकर उन्होंने कहा कि वे हर प्रकार की हिंसा का विरोध करती हैं। चाहे वह हिंसा नक्सलवादियों द्वारा की जा रही हो या फिर शासन द्वारा। परन्तु मेधा पाटेकर नक्सकवादियों की हिंसा के खिलाफ पद यात्रा करने के लिए न तो कभी कंधमाल गई और न ही कभी दंतेवाड़ा आई। वे जब भी सक्रिय हुई आतंकवादियों और नक्सलवादियों के पक्ष में ही सक्रिय हुई। दरअसल आंतकवादियों और नक्सलवादियों की कार्यप्रणाली में दो प्रकार के समूह काम करते हैं। एक वे जो अंडर ग्राउंड हैं और दूसरे वे जो अप्पर ग्राउंड हैं। मेधा पाटेकर और उनके साथियों की गिनती इस दूसरे समूह में की जानी चाहिए क्योंकि ये दोनों समूह एक दूसरे के पूरक हैं। दंतेवाड़ा की घटना ने इसको एक बार फिर सिद्व कर दिया है।

-डा0 कुलदीप चन्द अग्निहोत्री

3 COMMENTS

  1. सामयिक सार्थक और सारगर्भित लेखन डा.अग्निहोत्री जी की खासियत है. बड़े सही विषय को सही परिप्रेक्ष्य मे प्रस्तुत किया है. पाटेकर जैसे पूर्वाग्रही,ढोंगियों के व्यवहार से शक विशवास मैं बदलने लगता है कि ऐसे लोग किन्ही बाहरी ताकतों के इशारे पर देश को कमजोर बनाने और तोड़ने के लिए काम कर रहे हैं. इन देश विरोधी ताकतों को पहचानने कि पैनी नज़र कम लोगों में है. डा. अग्निहोत्री दिखाए जारहे झूठ के पीछे के सच को देखने में पारंगत हैं. उनके लेखन को समझने की कोशिश की जानी चाहिए.

  2. प्रणाम , अगर देश मैं १०० मेघा पाटकर और बन जस्यें तो देश की तश्वीर बदल शक्ति है क्योकि आज देश महगाई अत्याचत और कई तरह की समश्याओं से जूझ रहा है ऐसे वक़्त मैं मेघा पाटकर जैसी समाज सेवी की शाक्त जरुरत है . जय हो मेघा पाटकर और जय नारी शक्ति
    अनिल रेजा, मुंबई

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