पर्यावरण की हमारी प्राचीन समझ

मेंढक तो टर्र-टर्र टर्राते हैं

मैं तो बिल्कुल चकरा गया। मैं अंग्रजी की शिक्षापद्धति में पढ़ा-लिखा आधुनिक व्यक्ति हूं। उल्टी-सीधी बातें मैं नहीं मानता। मैं तर्क करता हूं। मैं जानता हूं कि बरसात में बदसूरत मेढक बेसुरी आवाज़ में टर्र-टर्र टर्राते हैं। मैं इन्हें देवता कैसे मान लूं? ऋग्वेद के सातवें मंडल में एक मंडूक सूक्त है। मैं उसे पढ़ रहा था, उसमें लिखा था, ‘गर्मी की ऋतु में ब्राह्मण पसीने से परेशान हो जाते हैं। इसलिए वर्षा ऋतु के आने पर ब्राह्मण सोमरस का पान करते हैं तथा यज्ञ करते हैं, उसी तरह मेंढक भी बाहर निकल आते हैं’ फिर आगे लिखा था, ‘यज्ञों में जिस प्रकार वेदी के चारों ओर ब्राह्मण मंत्रों का गान करते हैं, उसी प्रकार हे मेंढको, वर्षा के दिन जल से भरे हुए सरोवर के चारों ओर तुम गान करते हो।’ क्या यह उद्गीत सोमरस की महिमा थी?
बहुत आश्चर्य हुआ कि मंत्रों के गान की तुलना मेंढकों के टर्राने से की जा रही है। इसे सुनकर ‘यदि मेंढक समझ सकें’ उन्हें बड़ी खुशी होगी। किंतु ब्राहमणों को तो अपमान ही लगेगा। ब्राहमणों का अपमान तो ऋग्वेद नहीं कर सकता। तब इन सूक्तों का क्या अर्थ निकाला जाए? इस मंडूक सूक्त के ऋषि हमारे पूज्य वसिष्ठ ऋषि हैं। और इस सूक्त का देवता ‘मेंढक’ है। यह भी मुझे विचित्र लगा कि कुरूप तथा क्षुद्र मेंढक को ऋषियों ने देवता का स्थान दिया। फिर मैंने मंडूक सूक्त का दसवां मंत्र पढ़ा। मुझे लगा कि वे आर्य लोग उतने विकसित नहीं थे जितना उनके विषय में कभी-कभी गाया जाता है। देखिए – ‘गाय के समान रंभाने वाले मेंढक हमें धन प्रदान करें, बकरे के समान ध्वनि करनेवाले मेंढक हमें धन प्रदान करें। चितकबरे मेंढक, हरे मेंढक हमें धन प्रदान करें। हजारों औषधियां जब उत्पन्न होती हैं, उस वर्षा ऋतु के आने पर यह मंडूक देवता हमें सैकड़ों गाएं दें तथा हमारी आयु बढ़ाएं।’ लगा कि जवाहरलाल नेहरू ने ठीक ही लिखा था कि वैदिक काल के लोग चरवाहा युग में जी रहे थे। वे बहुत जीवंत तो थे, किंतु प्राकुतिक शक्तियों से डरकर उन्हें शक्तिशाली देवता मान रहे थे। अरे और तो और, एक उपनिषद का नाम ही ‘मांडूक्य उपनिषद’ है!!
मुझे तुलसी की यह चौपाई भी याद आ गई, ‘दादुर मोर पपीहा बोले।–’ मुझे तुलसीदास का दादुर को पपीहे के बराबर स्थान देना अच्छा नहीं लगा था, किंतु मैंने उसे वर्षा ऋतु की ध्वनियों का यथार्थ वर्णन समझकर स्वीकार कर लिया था। किंतु जब वे किष्किंधा कांड ‘15, 1’ में कहते हैं: ‘दादुर धुनि चहुं दिसा दुहाई। वेद पढ़हिं जनु बटु समुदाई।। ’तब मैंने उसे बटुकों के वेदों के यांत्रिक रटने पर व्यंग्य समझा था?

यह रहस्य मेरे मन को चुनौती अवश्य दे रहा था। किन्तु इसका उत्तर खोजने पर भी कोई कुंजी हाथ नहीं लगी। इस सबका गहरा रहस्य अमेरिका में खुला। न्यूजर्सी शहर में हडसन नदी के तट पर स्टीवेन्स इंस्टिट्यूट ऑफ टेक्नालॉजी के हरे-भरे बाग में हम लोग बैठे थे- प्रोफेसर सुरेश्वर शर्मा, श्रीमती शर्मा, मृदुल कीर्ति और मैं। दूसरे तट पर न्यूयार्क की गगनचुंबी इमारतों की जगमग करती बतियां वहां दीपावली का दृश्य प्रस्तुत कर रही थीं। हडसन नदी कोई बहुत चौड़ी नहीं है, साफ लगता था कि हम न्यूयार्क के कितने निकट हैं। हडसन नदी में जहाजों का गमनागमन भी लुभावना लग रहा था। उस मनोहर वातावरण में बातों के रस में डूब जाना बहुत आसान था। प्रोः शर्मा एक रोचक अनुभव सुना रहे थे। बात 1966 के अंत की है। ग्वालियर के इंदौर रतन होटल में दो वैज्ञानिक नियमित भोजन करते थे, जिनमें एक तो डॉः सुरेश्वर शर्मा थे तथा दूसरे एक मलयालम वैज्ञानिक थे। एक दिन होटल के मालिक ने नोटिस लगा दिया कि अगले दिन से भोजन में चावल नहीं मिलेगा। उस मलयाली वैज्ञानिक ने जब मालिक पर गुस्सा दिखलाया तब मालिक ने हाथ जोड़कर कहा, ‘साब, दो महीने पहले चावल एक रुपए का दो किलो मिलता था, अब बढ़ते-बढ़ते दो रुपए का एक किलो हो गया है। मैं कब तब घाटा सहूंगा? मुझे तो चावल के लिए अतिरिक्त दाम लेने होंगे।’’

इस तरह चावल के भाव अचानक आसमान में चढ़ गए थे। इसके कारण जब हो-हल्ला हुआ तब केंद्र सरकार की नींद खुली। उसने एक वैज्ञानिक मंडल केरल भेजा। उनका उद्देश्य यह पता लगाना था कि दसियों वर्षों बाद केरल में चावल की फसल लगातार दो वर्षों से क्यों खराब हो रही है। डॉः सुरेश्वर शर्मा भी उस मंडल में थे। मेंढक अमरीकी तथा फ्रांसीसियों का अत्यंत प्रिय व्यंजन है, इसलिए उन्हें भारी मात्रा में आयात करने की आवश्यकता पड़ती है। उनकी लगातार कोशिश रहती है, कि जिस भी देश से हो सके वे मेंढकों का आयात करें। हमारी संस्कृति में हम मानते हैं कि धरती हमारी माता है और सब जीवों में उसी परमात्मा का वास है, कम से कम, अहिंसा में तो विश्वास करते हैं। अतएव भारत से अमरीकी व्यापारी मेंढकों का निर्यात करवाने में सफल नहीं हो रहे थे।

केरल में कम्युनिस्ट सरकार थी। कम्युनिस्ट तथा अमेरिकी एक-दूसरे के ‘दुश्मन’ रहे हैं। तब भी अमरीकियों ने सोचा कि केरल में उन्हें शायद मेंढक खरीदने में सफलता मिल जाए। उन्होंने बतलाया कि बिना कुछ किये, केरल मेंढकों के निर्यात द्वारा प्रतिवर्ष 20 लाख डालर तक कमा सकता है। मुख्यमंत्री नम्बूदरीपाद की सरकार के साथ उनकी वार्ता सफल रही। उऩ्होंने यह टिप्पणी अवश्य कर दी कि भारत में खेती की पद्धति बहुत पिछड़ी है क्योंकि यहां न तो रासायनिक उर्वरकों का अधिक उपयोग होता है और न रासायनिक कीट नाशकों का, जैसा कि विकसित देशों में‌ होता है। केरल सरकार अपने अनुबंध से बहुत खुश हुई, उसने अभूतपूर्व विदेशी मुद्रा के अर्जन के खूब गीत गाए। परिणामस्वरूप आंध्र तथा महाराष्ट्र की सरकारों ने भी मेंढकों का निर्यात करना शुरू किया। अगले वर्ष धान की खेती बहुत खराब हुई। अमरीकियों ने ही केरल सरकार को बतलाया कि कीड़ों के बहुत बढ़ने से धान की खेती खराब हुई है। किंतु चिंता की कोई बात नहीं। वे केरल सरकार को बहुत कम दामों में कीटनाशक रसायन दे देंगे, साथ ही उनके छिड़काव के यंत्र तथा पूरा प्रशिक्षण भी। उन्होंने खाद की आवश्यकता भी जताई। केरल सरकार ने जो फसल खराब होने से डर गई थी, यह प्रस्ताव मान लिया, तथा लाखों डालरों में ‘सेविन’ नामक कीटनाशक तथा यंत्रों का आयात किया और छिड़काव करवाया। यह वही कीटनाशक है जिसने भोपाल गैस कांड में विष फैलाया था। उधर मेंढ़कों का निर्यात जारी रखा। दूसरे वर्ष चावल की फसल फिर खराब हुई। अमरीकियों ने फिर केरल सरकार को समझाने की कोशिश की कि घबराने की कोई बात नहीं है; यदि रासायनिक उररकों की आवश्यकता केरल सरकार ने समझी होती तो यह समस्या नहीं आई होती। खैर, डा. शर्मा ने आगे बढ़ते हुए बतलाया कि हुआ यह था कि कीटनाशक विष ने कीड़े तो मारे किंतु पानी औ मिट्टी को भी विषैला कर दिया था। अब वे जल तथा मिट्टी के विष को सुधारने का तथा विशेष रसायन देंगे। फिर लाखों डालरों के कीटनाशक तथा खाद आदि आयात किए गए।
फिर क्या था, सारे भारत में चावल के दाम आसमान पर चढ़ गए। जब वैज्ञानिक दल ने यह सब रहस्य खोला, तब जाकर केंद्र सरकार की आंख खुली । मेंढकों के निर्यात से कीटों पर नियंत्रण नहीं था। कीटों ने फसलों का नुकसान किया। कीटनाशकों ने जल तथा मिट्टी को ‘विषैला’ किया। रसायनिक कीट नाशक तथा खाद ने स्थिति को कामचलाउ तो बना दिया, किंतु प्रकृति में वह पुराना स्वस्थ संतुलन वापिस न ला सके। वैज्ञानिक दल के केरल सरकार की तीव्र आलोचना की क्योंकि उन्होंने भारतीय कृषि वैज्ञानिकों की सलाह के बिना यह सब किया था। इस वैज्ञानिक दल ने तुरंत ही मेंढकों के निर्यात को बंद करने की आवश्यकता बतलाई, जिसे पूर्ण रूप से स्वीकार नहीं किया गया। मेढक अपनी लंबी तथा चपल जीभ से मच्छरों के अंडों से लेकर कीड़ों, केकड़ों, केंचुओं, घोंघों और छोटे चूहों तक को अपना आहार बनाते हैं। इस तरह मेढक कीड़े मकोड़े खाकर हमारी महान सेवा करते ही हैं। देवताओं का एक काम हमारी सहायता करना भी होता है। यह ज्ञान हम सब भूल गए हैं।

कीड़े-मकोड़े खानेवाले अन्य जंतुओं यथा सांपों, पक्षियों आदि के वे स्वयं भोजन भी बनते हैं। इस तरह कीड़े-मकोड़े खानेवाले अन्य जंतुओं की विविधता बढ़ जाती है; संख्या भी बढ़ जाती है, तथा मेंढकों की आबादी पर नियंत्रण भी रहता है। चूहे किसानों के बड़े दुश्मन हैं। सांप और उल्लू चूहों के दुश्मन है। फिर पक्षी पुष्पों के परागों को अन्य पुष्पों तक ले जाकर उनका परागण करते हैं। इस तरह पक्षी फसलों की उपज बढ़ाते हैं। रासायनिक कीटनाशक कीड़ों के साथ-साथ पक्षियों तथा मधुमक्खियों को भी हानि पहुंचाते हैं। मिट्टी तथा पानी के विषैले होने के कारण, खेतों के साथ-साथ चारागाहों की फसल भी, घास भी खराब होती है। खेतों में तो उर्वरक इत्यादि डालकर थोड़ा सुधार किया जाता है किंतु चारागाहों का सुधार कौन करेगा? इसलिए जानवरों को घास कम मिलेगी, फसल के महंगे होने से भूसा भी महंगा होगा। अर्थात गाय इत्या दि ढोर डंगर का पालन भी मंहगा होगा। कीड़े-मकोड़े गायों को बहुत सताते हैं तथा हमें भी बीमार बनाते हैं। अर्थात मेंढक गायों आदि जानवरों की संख्या बढ़ाने में बहुत मदद करते हैं। वे हमें स्वस्थ रहने में मदद करते हैं। यह ज्ञान हम सब भूल गए हैं।

अब वैदिक ऋषि वसिष्ठ के साथ मेरा भी मन मंडूक सूक्त गाने का करता है: ‘‘गाय के समान रंभाने वाले मेंढक हमें धन प्रदान करें, बकरे के समान ध्वनि वाले मेंढक हमें धन प्रदान करें। चितकबरे तथा हरे मेढक हमें धन प्रदान करें ‘निर्यात द्वारा नहीं’। हजारों औषधियां जब उत्पन्न होती हैं, उस वर्षा ऋतु के आने पर ये मंडूक देवता हमें सैकड़ों गाएं दें तथा हमारी आयु बढ़ाएं।’’ अब मेरा मन तुलसीदास के साथ भी गाने के लिए करता है। अब मैं समझ गया हूं कि तुलसीदास जब यह कहते हैं-‘‘दादुर धुनि दिसा सुहाई। वेद पढ़हिं जनु बटु समुदाई।।’’-तब वे बटुकों पर तनिक भी व्यंग्य नहीं करते, वरन मेंढकों के कल्याणकारी चरित्र की ही प्रशंसा करते हैं।

अब मेरी रुचि मेढकों के विषय में जानकारी प्राप्त करने में हो गई है। मैं जानना चाहता हूं कि मेंढकों के कितने प्रकार हैं, उनके कौन-कौन दुश्मन हैं, ‘मनुष्य के अतिरिक्त’, वे अपनी रक्षा कैसे करते हैं, इत्यादि।

मंडूक उभयचर प्राणी है जो रीढ़ की हड्डी वाला है तथा जल-जंतुओं और थल-जंतुओं के बीच की महत्वपूर्ण कड़ी है। शायद आपको यह जानकर आश्चर्य हो कि मेंढक मरुस्थल से लेकर दलदली आवासों तक, समुद्र से लेकर पहाड़ों तक सारी पृथ्वी को आबाद करते हैं, और विश्व के मांसाहारी मनुष्यों ‘भारत में मुख्यतया जनजातियों’ का अत्यंत सुस्वादु तथा पौष्टिक भोजन भी बनते हैं।

मेढकों के कद में बड़ी विभिन्नता होती है। क्यूबा में पाई जानेवाली एक जाति तो मक्खी के – ‘लगभग एक सें मी’- बराबर होती है। इसका नाम है ‘एरो पायज़न’ (‘स्मिन्थिलुस लिम्बातुस’)। इस लंबाई में शरीर की लंबाई है, पैरों की लंबाई शामिल नहीं है। यह मेढक न केवल विश्व के सारे मेढकों में सबसे छोटा है वरन सभी उभयचरों में सबसे छोटा है। जो मेढक विश्व में सबसे बड़ा है उसके शरीर की लंबाई छतीस सें मीः है, इसका नाम है ‘राना गोलिएथ’ ‘कौनरोआ गोलिएथ’। ये पश्चिमी अफ्रीका के कैमरून तथा स्पेनी गिनी राज्यों में पाए जाते हैं। इनकी पूरी ‘पैर से पैर’ लंबाई अस्सी सेंमीः से भी अधिक होती है। मंडूकों को दो विशिष्ट कुलों में बांटा जा सकता है। एक कुल को हम मंडूक या मेढक ही कहते हैं तथा दूसरे को ‘भेक ‘अंग्रेजी मे ‘टोड’। भेक मंडूकों की उपरी त्वचा बहुत खुरदरी या दानेदार होती है। मेढक मंडूकों की उपरी त्वचा चिकनी होती है।

भारत में मंडूकों की २५ प्रमुख जातियां हैं जिनमें ‘राना’ जाति के मंडूक अन्य जाति के मंडूकों से बहुत बड़े होते हैं। ‘राना’ जाति की तीन उपजातियां निर्यात के कारण जानी जाती हैं-‘पोखर मंडूक (‘राना हेक्सा डेक्टिला’), चित्र मंडूक (‘राना तिग्रीना’) तथा खंतिया मंडूक (‘राना क्रासा’)। इनमें चित्र मंडूकों में मादा ही नर से थोड़ी बड़ी होती है। चित्र मंडूक की लंबाई लगभग 16 सेंमीः तथा अन्य दो की 13 सेंमीः। खंतिया मंडूक के, अपने नाम के अनुसार, पंजे खंता या फावड़े के आकार के होते हैं जिनसे ये गड्ढे खोद सकते हैं-पोखरों इत्यादि में पानी सूखने पर ये गड्ढे खोदकर उनमें छिपकर लंबी नींद लेते हैं। (मजे की बात है कि प्रसिद्ध दार्शनिक अरस्तू ने कहा है कि कुछ प्रवासी पक्षी भी शीत काल में हिम जमी नदी के पानी में अंदर जाकर शीत काल भर सोते हैं। अरस्तू के अनेक कथनों की तरह यह कथन भी गलत निकला।) इनका (खंतिया का) रंग सलेटी भूरा या हरा होता है जिन पर काले निशान होते हैं, अन्य दो रानाओं के बरअक्स इनकी पीठ को बीचोंबीच सजाती सुनहली रेखा ‘सामान्यतया’ नहीं होती।

चित्रमंडूक, नाम के अनुसार यह चित्रित या चिकबरे होते है- पीली-सी त्वचा पर काले और सामान्यतया सममित ‘बाएं तथा दाहिने बाजुओं पर एक समान’ धब्बे होते हैं तथा पीठ को दाएं-बाएं सजाती एक सुनहली रेखा होती है। शेर या बाघ ‘टाइगर’ की तरह काली धारियां होने के कारण इनकी जाति का लातिनी नाम ‘तिग्रीना’ है। पोखर मंडूक का रंग धानी या हरा-सा होता है, धब्बे उस पर भी काले होते हैं। चित्र मंडूक सारे भारत को आबाद करते हैं जबकि अन्य दो मुख्यतया दक्षिण भारत तथा समुद्री तटों को।

चित्रमंडूक न केवल मंडूकों में वरन सारे भारतीय उभयचरों में सबसे बड़े होते हैं। आवास की विविधता के अनुरूप इनके व्यवहार में भी उपयुक्त विविधता होती है या कहें कि इनमें पर्यावरण के साथ समंजन करने की क्षमता अधिक है। मरुस्थलों में सूखी ऋतुओं में लंबा ‘हाइबरनेट’ करते हैं, यानी कुंभकर्णी नींद निकालते हैं। इनके आहार में भी कीड़ों के अंडों, भ्रूणों से लेकर छोटे मेढक, केंकड़े, घोंघे सांप तथा चूहे तक होते हैं। बरसात आते ही इनका प्रजनन कार्य प्रारंभ हो जाता है। इनकी ‘दादुर धुनि चहुं दिसा सुहाई’ अक्षरशः इनकी मादाओं पर पूरी तरह चरितार्थ होती है क्योंकि मादा दादुरों को प्रजननकाल में नर दादुरों की धुनि सहज ही सुहावनी लगती होगी। प्रजनन काल में प्रजनन योग्य नर मंडूकों के कंठ में नीले रंग के दो सुंदर ध्वनि-गोलक उभर आते हैं जिनकी मदद से ये लगातार टर्र-टर्र नहीं करते, वरन प्रणयगान करते रहते हैं। किंतु इनकी ‘शरमीली’ सुरक्षाप्रिय मादा सामान्यतया रात में ही इनके पास आती है। नर पानी के पास किनारों पर घास-पत्तियों में सुरक्षित रहकर ही गान करते हैं। ठहरे या बहते पानी में मादा अंडे देती जाती है तथा नर उन अंडों पर अपने शुक्राणु छोड़ता जाता है। औसतन, मादा एक बार में लगभग 2000 अंडे देती है, इस प्रक्रिया में इन्हें घंटा-दो-घंटा लग जाता है।

मेढकों में विश्व-भर में बहुत विविधता पाई जाती है। एक वृक्ष-मंडूक की जाति की त्वचा से एक ऐसा रासायनिक पदार्थ मिला है जिसमें ‘मॉरफीन’ दर्दमारक दवा के सारे गुण हैं किंतु अवगुण एक भी नहीं। और कुछ जातियों की त्वचा अत्यधिक विषैली होती है। यह विष ही इनका रक्षक है। ये चेतावनी देने के लिए गाढ़े, पीले या लाल रंग के होते हैं। इनका विष इतना तेज होता है कि वहां की ‘दक्षिण अमेरिका के अमेज़ान क्षेत्र की’ जनजातियां इसके विष को इकट्ठा कर अपने बाणों की नोक पर लगाती हैं। और चीनी लोग इसे दवा के काम में लाते हैं। विश्व का तीव्रतम विष भी एक मेंढक में ही पाया जाता है। ‘कोकोई एरोपायजल’ ‘फिलोबातेस बाइकलर’ नामक जाति का यह मेढक दक्षिण अमेरिका के उत्तर-पश्चिमी कोलंबिया की ‘सान हुआन’ नदी के पास पाया जाता है। इसके एक मिलीग्राम का दशमांश ही एक औसत व्यक्ति को मारने के लिए पर्याप्त है। मंडूक के समान दिखनेवाला एक और कुल है, ’ब्यूफॉनिदी’ भेक कुल, जिनका मेंढकों से दूर का भी रिश्ता नहीं, क्योंकि भेक कुल ‘अनुरा’ गण का जीव है। भेक की एक जाति होती है जिसका नाम है ‘अग्निभेक ‘टोड’। इसके उदर का रंग आग की ज्वाला के समान नारंगी होता है। जब इसे अपनी जान पर खतरा लगता है तब यह अगले दोनों पैर उठाकर उपर करता है, तथा पिछले दोनों पैर पीछे उपर की तरफ ले जाता है- मानो यह ‘धनुरासन’ कर र हा हो। इस मुद्रा में इसका अग्नि के रंग का उदर एकदम स्पस्ट दिखता है। इसकी यह स्पष्ट चेतावनी है, इसका शिकार करनेवाले के लिए कि इसकी त्वचा अत्यंत जहरीली है। यह इसकी आत्मरक्षा की सफल विधि है।

मेढक अपने पैरों पर चलते बहुत कम हैं, ज्यादातर लंबी छलांग ही लगाते हैं। मेढकों की छलांग, आदमियों की छलांगों से भी लंबी होती है। कुछ जातियों के मेढक पांच से साढ़े पांच मीटर लंबी छलांग लगाते हुए देखे गए हैं। इस छलांग के बल पर वह अपना बचाव सांपों से और पक्षियों से कर सकते हैं। जब सांप इनका पीछा करता है, तब ये छलांग लगाकर बिना गंध छोड़े, दूर चले जाते हैं। थोड़ी देर तो सांप को समझ में नहीं आता कि उसका शिकार कहां गायब हो गया। जब मेढक ज़मीन पर पहुँचता है तब सांप उसके कंपन को पकड़कर, उसी दिशा में पीछा करता है। इतनी छलागें लेने पर मेंढक अक्सर बच जाते हैं, किंतु कभी-कभी सांप भी सफल होकर अमरीकी या फ्रांसीसी व्यंजन समान स्वादिष्ट भोजन का आनंद लेता है।

अब हम कुछ अद्भुत मेंढकों की बात कर सकते हैं। एक जाति के नर मेढक पानी में मादा के अंडे देने के बाद और उन अंडों को शुक्राणु से निसेचित करने के बाद, सरकसी कुशलता से अपनी पीठ पर ले लेते हैं जहां वे चिपक जाते हैं। ये मेंढक उन अंडों को अपनी पीठ पर लिए घूमते हैं जब तक कि स्फ़ुटन कर वे बाहर नहीं निकल आते। और एक तो इससे भी विचित्र जाति है जिसकी मादा निसेचित अंडों को गुटककर अपने आमाशय में रख लेती है। और फिर जब समय आता है तब उसके मुंह से मेढक ही मेढक निकलते हैं !!

इतने हितकारी मंडूकों को सबसे ज्यादा खतरा मनुष्य की जीभ से है, कीटनाशक दवाइयों से है जिनके प्रभाव से अधिकांश (‘टेडपोल’) बेंगची अर्थात मेढकों के शावक मर जाते हैं, यहां तक कि कुछ जातियों की अतिजीविता संकट में है। कीटनाशक दवाएं फायदे के स्थान पर नुकसान ही ज्यादा करती हैं। हमारे ऋषियों ने तो इसका सत्य हज़ारों वर्ष पूर्व ही जान लिया था, किंतु हम कब सीखेंगे और स्तुति करेंगे कि, ‘‘गाय के समान रम्भाने वाले मेंढक हमें धन प्रदान करें, हमें सैकड़ों गायें दें तथा हमारी आयु बढ़ाएं।’’

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विश्‍वमोहन तिवारी
१९३५ जबलपुर, मध्यप्रदेश में जन्म। १९५६ में टेलीकम्युनिकेशन इंजीनियरिंग में स्नातक की उपाधि के बाद भारतीय वायुसेना में प्रवेश और १९६८ में कैनफील्ड इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलाजी यू.के. से एवियेशन इलेक्ट्रॉनिक्स में स्नातकोत्तर अध्ययन। संप्रतिः १९९१ में एअर वाइस मार्शल के पद से सेवा निवृत्त के बाद लिखने का शौक। युद्ध तथा युद्ध विज्ञान, वैदिक गणित, किरणों, पंछी, उपग्रह, स्वीडी साहित्य, यात्रा वृत्त आदि विविध विषयों पर ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित जिसमें एक कविता संग्रह भी। १६ देशों का भ्रमण। मानव संसाधन मंत्रालय में १९९६ से १९९८ तक सीनियर फैलो। रूसी और फ्रांसीसी भाषाओं की जानकारी। दर्शन और स्क्वाश में गहरी रुचि।

7 COMMENTS

  1. राजीव जी
    किऩ्हीं अपरिहार्य कारणों से मुझे अपनी भोपाल यात्रा स्थगित करना पड़ी है।
    असुविधा के लिये क्षमा चाहता हूं।
    अगलॊ तिथि निश्चित होते ही आपको सूचना दूंगा।
    विश्व मोहन

  2. विश्वमोहन जी , मैं वडोदरा, गुजरात में रहता हूँ , परन्तु भोपाल आवागमन बना रहता है , आप अपनी यात्रा की विस्तृत सूचना भेजिएगा, आशा है भेंट हो पायेगी .

  3. राजीव जी,
    आपने मेरा हृदय गदगद कर् दिया।
    हम अवश्य ही इस काली रात्रि को उषा की‌ललिमा में बदलकर रहेंगे ।

  4. विश्वमोहन जी ,
    आप वरद हस्त उठाये रखिये… प्रयास जारी है, हमारी भी जिद्द है, हम इस रात को सुबह में बदल कर रहेंगे ..
    सादर ,
    राजीव दुबे

  5. प्रिय राजीव दुबे जी
    आप आशा वादी हैं..
    मुझे लगता है कि
    अब घोर अंधियारी रात आ रही है –
    भारतीय संस्कृति के लिए ,
    यदि हम ऐसे ही निकम्मे बैठकर
    देखते रहे डिस्को ..

  6. कहो आज फिर से वह संवाद
    गूंजा था भारत में – सभ्यता का नाद |

    इस हारे बेचारे जन-मन को
    दो बता, अब आता फिर से सूर्योदय – बीत चली अब रात …|

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