दिग्भ्रमित विश्व के लिए वेदों की उपेक्षा अहितकर एवं हानिकारक

0
344

मनमोहन कुमार आर्य

मनुष्य जीवन को संसार के वेदेतर सभी मत अद्यावधि प्रायः समझ नहीं सके हैं। यही कारण है कि यह जानते हुए कि सत्य एक है, संसार में आज के आधुनिक व उन्नत युग में भी एक नहीं अपितु सैकड़ो व सहस्राधिक मत-मतान्तर प्रचलित हैं जिनकी कुछ बातें उचित व अधिकांश असत्य एवं अज्ञान पर आधारित हैं। वेदमत, वैदिक धर्म अथवा आर्यसमाज वेदप्रचार मिशन के अतिरिक्त हमें संसार में ऐसा कोई धार्मिक व सामाजिक मत दृष्टिगोचर नहीं होता जो अपने मत की सभी मान्यताओं की समीक्षा करता हो और अन्य मतों की समालोचना व समीक्षा को ध्यान में रखकर उनकी सत्यता को जानने व तर्क व युक्तियों सहित उदाहरणों सहित उनके सत्य होने की पुष्टि करने का प्रयास करता हो। यही कारण है कि वेदेतर सभी मत मध्यकालीन अज्ञान व अन्धविश्वासों से भरे हुए हैं जिन्हें यह तक ज्ञात नहीं है कि ईश्वरोपासना का उद्देश्य क्या है व इसकी सही व सर्वमान्य विधि क्या है वा हो सकती है। इसे आज के युग का सबसे बड़ा आश्चर्य ही कहेंगे। एक बच्चा स्कूल में प्रविष्ट कराया जाता है तो वह वहां अपने अध्यापकों से जो पढ़ाया जाता है उसे सीखता है। अध्यापक भी उससे पूछते हैं कि उसे समझ में आया या नहीं। उसकी परीक्षा भी ली जाती है और जितना पढ़ाया गया होता है उसे जान लेने वा समझ लेने के बाद ही उसे उससे ऊपर की कक्षा में प्रोन्नत कर आगे के विषयों का ज्ञान दिया जाता है। विद्यार्थी को अपने अध्यापकों से प्रश्न पूछने, शंका प्रस्तुत करने व उसके सन्तोषप्रद उत्तर पाने का अधिकार होता है परन्तु जीवन के सबसे प्रमुख अंग जिससे हमारा वर्तमान व भावी जीवन सहित परजन्म की उन्नति वा अवनति जुड़ी हुई है, उस पर शंका करने व उत्तर पाने का अधिकार किसी मत-पंथ में नहीं है। ऋषि दयानन्द एक पौराणिक मत के अनुयायी माता-पिता के यहां जन्में थे। उन्होंने पहले अपने माता-पिता-आचार्यों व बाद में देश के सभी विद्वानों से मूर्तिपूजा की निस्सारता पर प्रश्न किये, परन्तु आज तक कोई विद्वान व आचार्य उनके प्रश्नों का समाधान नहीं कर पाया। ऐसा होने पर भी देश-विदेश में बड़ी संख्या में लोगों द्वारा पाषाण, लौह व अन्य धातुओं की मूर्तियों की पूजा जारी है। मूर्तिपूजा न केवल वेद विरुद्ध है अपितु इससे इस संसार को बनाने, चलाने व यथासमय प्रलय करने वाले ईश्वर, जो घट-घट का वासी, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी व सच्चिदानन्दस्वरूप है, उसके ज्ञान वेदों में दी गई शिक्षा वा आज्ञा की अवज्ञा होती है। देश व विश्व में प्रचलित प्रायः सभी मतों की न्यूनाधिक यही अवस्था है। आर्यसमाज द्वारा प्रचारित वेद से इतर किसी मत, पंथ, सम्प्रदाय व तथाकथित धर्म आदि को यह जानने की चिन्ता ही नहीं है कि उनके मतों की मान्यताओं को जीवन में मानने व न मानने व उसके कुछ अनुकूल व विपरीत आचरण करने वालों की मृत्यु के बाद क्या अवस्था, दशा, गति, सद्गति व दुर्गति, उन्नति व अवनति होती है?

 

महर्षि दयानन्द के जीवन में उनके सामने ऐसे अनेक प्रश्न थे जिन पर विचार कर ही उन्होंने अज्ञान, अविद्या, अन्धविश्वास, कुरीति, मिथ्या परम्पराओं पर विचार किया था और अथक प्रयासों के बाद उन्हें वेद मत के रूप में एक सच्चा, अविद्या व अज्ञान से सर्वथा मुक्त, सद्ज्ञान व सदाचरणों से युक्त जीवन को उन्नत करने वाला, मनुष्य जीवन में अभ्युदय व मृत्यु होने पर मोक्ष प्रदान करने वाला मत ज्ञात व प्राप्त हुआ था। ऋषि दयानन्द को सच्ची ईश्वरोपासना से विश्व का कल्याण करने की ईश्वरीय प्रेरणा प्राप्त हुई थी। इसी भावना से उन्होंने सन् 1863 व उसके बाद अपनी मृत्युपर्यन्त वेद की शिक्षाओं के प्रचार व प्रसार के कार्य किये जिसमें मूर्तिपूजा व अन्य विषयों पर अनेक मत-मतान्तर के लोगों से शास्त्रार्थ, देशाटन कर लोगों को सदुपदेश से लाभान्वित करना, आर्यसमाज की स्थापना, सत्यार्थप्रकाश सहित ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका आदि अनेक ग्रन्थों का प्रणयन, समाज सुधार व देश को स्वतन्त्र कराने की प्रेरणा सहित जीवन के सभी धार्मिक व सामाजिक क्षेत्रों में अपूर्व योगदान दिया। उन्होंने जो कार्य किया वैसा महाभारत काल के बाद देश व विश्व के किसी महापुरुष ने नहीं किया। इसे देश व समाज की विडम्बना ही कह सकते हैं कि मत-मतान्तरों को मानने वाले सभी लोग अपने अपने मत के आचार्यों की अच्छी व अज्ञानता की बुरी बातों को तो ग्रहण कर लेते हैं परन्तु सत्यमत वेद, धर्म, विचार, सिद्धान्त, आचरण आदि को जानने की किसी में विशेष उत्सुकता व पिपासा नहीं देखी जाती। यदि ऐसा होता तो आज विश्व में एक ही मत व धर्म होता जो केवल सत्य मान्यताओं व सिद्धान्तों पर ही आधारित होता जिसे जानने व अपनाने का प्रयास ऋषि दयानन्द ने अपने जीवनकाल में किया था। सफलता मिलने पर ऋषि दयानन्द ने देश व विश्व के लोगों का कल्याण करने के लिए वेदों के प्रचार के निमित्त आर्यसमाज की स्थापना कर सत्यार्थप्रकाश एवं वेदभाष्य सहित सत्य ज्ञान युक्त अनेक ग्रन्थों की रचना की जिससे देश देशान्तर के लोगों का युग-युगान्तरों तक मार्ग दर्शन हो सके।

 

सत्य पर आधारित प्रमुख धार्मिक व सामाजिक मान्यतायें क्या हैं जिनसे मनुष्य अभ्युदय व मोक्ष को प्राप्त होता है? इसके लिए सभी मत-पन्थों के ग्रन्थों सहित वेद व वैदिक साहित्य की परीक्षा करना अपेक्षित है। यह कार्य ऋषि दयानन्द सरस्वती ने सत्यार्थप्रकाश एवं अन्य ग्रन्थ लिख कर किया। अपनी शिक्षा पूर्ण करने तक उनका उद्देश्य सत्य ज्ञान की खोज करना था। अपना अध्ययन पूरा होने पर उन्होंने पाया संसार में वेद ज्ञान के मूल स्रोत हैं। उन्होंने वेदों की परीक्षा की तो पाया कि वेद सृष्टि के आरम्भ में ईश्वर से उत्पन्न हुए थे। वेद ईश्वर का निज ज्ञान है जो वह हर कल्प में सृष्टि के आरम्भ में चार ऋषियों को उत्पन्न कर उन्हें एक एक वेद का ज्ञान देता है। यह चार वेद ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद हैं और जिन ऋषियों को यह ज्ञान दिया जाता है उनके नाम क्रमशः अग्नि, वायु, आदित्य व अंगिरा हैं। चारों वेद सब सत्य विद्याओं की पुस्तकें हैं। इनमें इतिहास व सृष्टिक्रम के विपरीत कोई बात नहीं है। वेद बतातें हैं कि इस संसार को बनाने, चलाने व प्रलय करने वाली एक सच्चिदानन्द, सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ व पूर्व कल्पों में अनन्त बार सृष्टि रचना करने वाली एक अनुभवी सत्ता ‘ईश्वर’ है। ईश्वर, जीवात्मा और प्रकृति के यथार्थ स्वरूप, गुण, कर्म व स्वभाव का ज्ञान भी वेदों में यथार्थ रूप में वर्णित हैं। वेदों मत-मतान्तरों के ग्रन्थों की तरह एक हजार व दो हजार वर्ष पूर्व की बातों का इतिहास व कहानी किस्से नहीं हैं अपितु कल्प-कल्पान्तर में एक समान व एक रस रहने वाला सद्ज्ञान है। वेदों का ईश्वर सर्वज्ञ है। कभी भूल नहीं करता और न कभी किसी के प्रति पक्षपात ही करता है। वह आर्यों की संख्या बढ़ाने के लिए हिंसा की प्रेरणा नहीं देता और न मनुष्य जाति को मत-मतान्तरों में बांटता है। उसका ज्ञान व शिक्षायें सार्वभौमिक, सर्वकालिक एवं मनुष्य मात्र सहित प्राणियों के हित के लिए हैं। वेदों के अनुसार श्रेष्ठ व शुभ कर्म वा आचरण करने वाले लोग आर्य होते हैं और इसके विपरीत अशुभ कर्म व आचरण करने वाले अनार्य, दुष्ट, राक्षस व पिशाच होते हैं।

 

जीवात्मा स्वभावतः अल्पज्ञ है और वेदों का अध्ययन कर विद्वान बनता है। वेदों की शिक्षायें ऐसी हैं जिनका आचरण करने से देश व संसार में सुख व शान्ति की वृद्धि होती है। वेदों के अध्ययन व आचरण से मनुष्य का शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक व आत्मिक विकास वा उन्नति होती है। परिवार में प्रेम व सौहार्द की वृद्धि होने से सभी सदस्यों की सार्वत्रिक उन्नति होती है। वेद मनुष्यों को युवावस्था में एक पुरुष का एक स्त्री से एक बार ही विवाह करने का विधान करते हैं। वेदों के अनुसार समाज को श्रेष्ठ समाज बनाने के लिए मनुष्य के गुण, कर्म व स्वभाव के अनुसार वर्ण व्यवस्था का विधान है जिसका जन्म की जाति आदि से कुछ लेना देना नहीं होता। वेद किसी मनुष्य को उसके ज्ञान व कर्मों के अनुसार महान् व पतित मानते हैं। वेद मूर्तिपूजा का विधान नहीं करते अपितु ईश्वर के गुण, कर्म व स्वभाव के अनुसार उसकी स्तुति, प्रार्थना व उपासना का विधान करते हैं जिसका विस्तार महर्षि पतंजलि के योगदर्शन में मिलता है। अवतारवाद, मृतक श्राद्ध, बहुपत्नीप्रथा, परदा-प्रथा, असंयमित जीवन व व्यभिचार, पालन पोषण की क्षमता से अधिक सन्तान को निषिद्ध करते हैं। वेद के अनुसार सभी मनुष्यों व अन्त्यजों तक को अन्य ब्राह्मण आदि के समान वेदों का अध्ययन करने का पूरा अधिकार है। किसी भी प्रकार की अस्पर्शयता, छुआछूत व दूसरों के प्रति असमानता का व्यवहार वेदों के अनुसार निषिद्ध हैं। युवा विधवाओं का पुनर्विवाह आपद्धर्म है। वेद ईश्रोपासना वा ब्रह्मयज्ञ सहित देवयज्ञ अग्निहोत्र, पितृयज्ञ, अतिथियज्ञ सहित बलिवैश्वदेवयज्ञ का विधान भी करते हैं। इन्हें करने से देश व समाज उन्नत होता है और मनुष्य के शुभ कर्मों में वृद्धि होने से ईश्वर के द्वारा उसको जन्म-जन्मान्तरों में सुख मिलने सहित मोक्ष की भी यथासमय प्राप्ति होती है। वेदों के अध्ययन व आचरण से मनुष्य अंधविश्वासों एवं पाखण्डों से मुक्त होकर सच्चा मानव जीवन व्यतीत करने में सक्षम होते हैं।

 

संसार में सुख, शान्ति, सबका कल्याण व उन्नति का वातावरण बनता है। सब एक दूसरे की सुख समृद्धि सहित दुःखों में सहायक होते हैं। वेदों का ज्ञान प्राप्त कर उसके अनुसार आचरण करने से मनुष्य स्वस्थ रहता है व उसके बल व आयु में भी वृद्धि होती है। ऐसे अनेक लाभ वेदों के अध्ययन व तदवत् आचरण करने से प्राप्त होते हैं जबकि मत-मतान्तरों के ग्रन्थों को पढ़ने से बुद्धि व ज्ञान की वृद्धि न होकर मनुष्य मध्यकालीन अविद्या व अज्ञान से ग्रस्त होकर अनुचित व अनावश्यक अनेक कार्यों को करके स्वयं दुःखी होते हैं व देश व समाज को भी दुःखी करतं हैं। आज संसार में जो अशान्ति, प्रतिस्पर्धा, छीना-छपटी, गलत तरीकों से सम्पत्ति में वृद्धि, निर्दोषों की हत्या वा हिंसा, अन्याय, शोषण, येन-केन-प्रकारेण सीएम व पीएम बनने व सत्ताधीश बनने की होड़, कर्तव्य की उपेक्षा व अवहेलता, अनाचार, अत्याचार व भ्रष्टाचार आदि की बातें हैं वह सब मत-मतान्तरों की अविद्या व वेदों के अप्रचार के कारण ही हैं। वेदानुसार आचरण करने से मनुष्य का वर्तमान जीवन उन्नत होता व सुधरता है साथ ही ईश्वरोपासना, अग्निहोत्र, परोपकार, दान व शुभकर्मों से मृत्योपरान्त जन्म-मरण के बन्धनों व दुःखों से मुक्ति सहित मोक्ष की प्राप्ति भी होती है जो कि अन्य किसी मत-मतान्तर की मान्तयताओं पर आचरण करने से नहीं होती। वेदाध्ययन करने वाला प्रत्येक व्यक्ति वेदों के कथन को ज्ञान व विज्ञान से पूर्ण होने के कारण उस पर विश्वास करता है न कि बाबा वाक्यं प्रमाणम् के कारण। वेदों में मध्यकालीन अज्ञानता व इनकी स्वहित व परहानि जैसी शिक्षायें नहीं हैं। अतः सभी को सब मतों का अध्ययन सहित वेदों का अध्ययन कर वेदों को अपनाना चाहिये जिससे उनका यह जन्म व परजन्म उन्नत व सफल हो सके। यदि हमने वेदाध्ययन कर विवेक प्राप्त कर सत्य का आचरण व असत्य का त्याग नहीं किया तो हमें इसके परिणाम इस जन्म सहित भविष्य में अनेक नीच योनियों में जन्म लेकर भोगने पड़ेगे। इसी के साथ इस लेख को विराम देते हैं। ओ३म् शम्।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

* Copy This Password *

* Type Or Paste Password Here *

13,026 Spam Comments Blocked so far by Spam Free Wordpress