75 साल की हुईं एंटीबायोटिक दवाएं

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प्रमोद भार्गव
एंटीबाॅयोटिक दवाओं को लेकर अर्से से जताई जा रही चिंता भले ही गंभीर रूप लेती जा रही हो, लेकिन हकीकत यह है कि तमाम बीमारियों का रामबाण इलाज आज भी इन्हीं दवाओं से संभव हो पा रहा है। 75 साल पहले इन दवाओं का उत्पादन शुरू  हुआ था। प्लेग जैसी महामारी से इन्हीं दवाओं ने छुटकारा दिलाया। 1340 में यूरोप में ढाई करोड़ से भी ज्यादा लोग प्लेग की चपेट में आकर मरे थे। किंतु अब यह महामारी लगभग पूरी तरह खत्म हो चुकी है। हकीकत यह भी है कि मलेरिया जैसी घातक और विश्वव्यापी बीमारी पर नियंत्रण इन्हीं एंटीबाॅयोटिक दवाओं से है। बावजूद इन दवाओं को इसलिए दुश्प्रचार इसलिए किया जाता है, क्योंकि कभी-कभी ये शरीर में एलर्जी व अन्य नई बीमारियों को पैदा करने का सबब बन जाती है। इसी कारण यह आशंका  उत्पन्न हो रही है कि ये दवाएं अपनी हीरक जयंती तो मना लेंगी, लेकिन शताब्दी समारोह मना पाएंगी अथवा नहीं ? दरअसल आसानी से उपलब्ध होने और नीम-हकीम द्वारा रोग की ठीक से पहचान नहीं किए जाने के बाबजूद ये दवाएं रोगी को जरूरत से ज्यादा खिलाईं जा रही है। इस कारण ये दवा-दुकानों के अलावा गांव की परचून दुकानों पर भी मिल जाती है। लिहाजा शरीर में जो जीवाणु व विषाणु मौजूद हैं, वे इन दवाओं के विरुद्ध अपना प्रतिरोधी तंत्र विकसित करने में सफल हो रहे हैं। नतीजतन ये दवाएं रोग पर बेअसर भी साबित हो रही है।
इसीलिए  विश्व  स्वास्थ्य संगठन ने अपनी एक रिपोर्ट में एंटीबायोटिक दवाओं के विरूद्ध पैदा हो रही प्रतिरोधत्मक क्षमता को मानव स्वास्थ के लिए वैश्विक खतरे की संज्ञा दी है। इस रिपोर्ट से साफ हुआ है कि चिकित्सा विज्ञान के नए-नए  अविष्कार और उपचार के अत्याधुनिक तरीके भी इंसान को खतरनाक बीमारियों से छुटकारा नहीं दिला पा रहे हैं । चिंता की बात यह है कि जिन महामारियों के दुनिया से समाप्त होने का दावा किया गया था, वे फिर आक्रामक हो रही है। तय है, मानव जीवन के लिए हानिकारक जिन सूक्ष्म जीवों को  नष्ट  करने की दवाएं ईजाद की गई थीं, वे स्थाई तौर से रोगनाशक साबित नहीं हुई।
डब्ल्यूएचओ ने 114  देशों विश्लेषण  करते हुए रिपोर्ट में कहा है कि यह प्रतिरोधक क्षमता दुनिया के हर कोने में दिख रही है। रिपोर्ट में एक ऐसे पोस्ट एंटीबायोटिक युग की आशंका जताई गई है, जिसमें लोगों के सामने फिर उन्हीं सामान्य सक्रंमणों के कारण मौत का खतरा होगा, जिनका पिछले कई दशकों से इलाज संभव हो रहा है। यह रिपोर्ट मलेरिया, निमोनिया, डायरिया और रक्त संक्रमण का कारण बनने वाले सात अलग-अलग जीवाणुओं पर केंद्रित है। रिपोर्ट के अनुसार अध्ययन में शामिल आधे से ज्यादा लोगों पर दो प्रमुख एंटीबायोटिक का प्रभाव नहीं पड़ा। स्वाभाविक तौर पर जीवाणु धीरे-धीरे एंटीबायोटिक के विरूद्ध अपने अंदर प्रतिरक्षा क्षमता पैदा कर लेता है, लेकिन इन दवाओं के हो रहे अंधाधुंध प्रयोग से यह स्थिति अनुमान से कहीं ज्यादा तेजी से सामने आ रही है। चिकित्सकों द्वारा इन दवाओं की सलाह देना और मरीज की ओर से दवा की पूरी मात्रा न लेना भी इसकी प्रमुख वजह है। डाॅ फुकुदा का मानना है कि जब तक हम संक्रमण रोकने के बेहतर प्रबंधन के साथ एंटीबायोटिक के निर्माण, निर्धारण और प्रयोग की प्रक्रिया को नहीं बदलेंगे,यह खतरा बना रहेगा।
वैज्ञानिकों ने एंटीबायोटिक दवाओं की खोज करके महामरियों में पर एक तरह से विजय-पताका फहरा दी थी। लेकिन चिकित्सकों ने इन दवाओं का इतना ज्यादा प्रयोग किया कि बीमारी फैलाने वाले सूक्ष्मजीवों ने प्रतिरोधात्मक दवाओं के विपरीत ही प्रतिरोधात्मक शक्ति हासिल कर ली। मसलन तुम डाल-डाल तो हम पात-पात। मानव काया में सूक्ष्मजीव भरे पड़े हैं। हालांकि सभी सूक्ष्मजीव हानिकारक नहीं होते,कुछ पाचन क्रिया के लिए लाभदायी भी होते हैं। प्राकृतिक रूप से हमारे शरीर में 200 किस्म के ऐसे सूक्ष्मजीव डेरा डाले हुए हैं,जो हमारे प्रतिरक्षा तंत्र को मजबूत व शरीर को निरोगी बनाए रखने का काम करते हैं। लेकिल ज्यादा मात्रा में खाई जाने वाली एंटीबायोटिक दवाएं इन्हें  नष्ट  करने का काम करती हैं।
एंटीबायोटिक दवाओं की खोज मनुष्य जाति के लिए ईश्वरीय वरदान साबित हुई थी। क्योंकि इनसे अनेक संक्रामक रोगों से छुटकारा मिलने की उम्मीद बंधी थी। मगर जैसे ही संक्रामक रोगों से लड़ने के लिए एंटीबायोटिक दवाओं का इस्तेमाल शुरू हुआ, वैज्ञानिकों ने पाया कि पुराने सूक्ष्मजीवों ने अपना रूपांतरण कर लिया है। यानी पेंसिलीन की खोज एक क्रांतिकारी खोज थी, किंतु वैज्ञानिकों ने देखा कि कुछ ऐसे सूक्ष्मजीव सामने आए हैं, जिन पर पेंसिलीन भी बेअसर है। सूक्ष्मजीव इतने सूक्ष्म होते हैं कि इन्हें केवल सूक्ष्मदर्शी यंत्र से ही देखा जा सकता है।
जीवाणु और विषाणु सूक्ष्मजीवों के ही प्रकार हैं, जो किसा भी कोशिका में पहुंचकर शरीर को नुकसान पहुंचाना  शुरू कर देते हैं। ये हमारी त्वचा,मुंह,नाक और कान के जरिए शरीर में प्रवेश  करते हैं। फिर एक से दूसरे व्यक्ति में फैलने लगते हैं। इसीलिए अब चिकित्सक सलाह देने लगे हैं कि प्रत्येक व्यक्ति के बीच एक हाथ की दूरी बनी रहनी चाहिए। किसी का जूठा नहीं खाना-पीना चाहिए। वैसे हमारी त्वचा सूक्षम जीवों को रोकने का काम करती है और जो शरीर में घुस भी जाते है,उन्हें एंटीबायोटिक मार डालते हैं। एक समय तक संक्रात्मक रोगों को फैलने में एंटीबायोटिक दवाओं ने अंकुश  लगा रखा था। इसके पहले खासतौर से भारत समेत अन्य एशियाई देशों के अस्पताल संक्रामक रोगियों से भरे रहते थे और चिकीत्सक मरीजों को बचा नहीं पाते थे। निमोनिया और डायरिया के रोगियों को भी बचाना  मुश्किल था। चोट लगने पर टिटनेस और सेप्सिस की चपेट में आए मरीजों की मौत तो निश्चित थी।
1940 से 1980 के बीच बड़ी मात्रा में असरकारी एंटिबायटिकों की खोज हुई,नतीजतन स्वास्थ्य लाभ के क्षेत्र में का्रंतिकारी परिवर्तन हुए। किंतु 1980 के बाद कोई बढ़ी खोज नहीं हुई,जबकि पूरी दुनिया में इस दौरान चिकित्सा शिक्षा संस्थागत ढांचे के रूप में ढल चुकी थी। अविष्कार में उपयोगी माने जाने वाले उपकरण भी शोध संस्थानों में आसानी से उपलब्ध हैं। 1990 में एक नई किस्म की एंटीबायोटिक की खोज जरूर हुई, मगर बजार में जो भी नई दवाएं आई,वे हकीकत में पुरानी दवाओं के ही नए संस्करण थे। विडंबना है कि नई एंटीबायोटिक दवाएं विकसित नहीं हो रही हैं, जबकि ताकतवार नए-नए सूक्ष्मजीव सामने आ रहे हैं। इन सूक्ष्मजीवों ने मौजूद दवाओं की सीमाएं चिन्हित कर दी हैं। जाहिर है इस प्रष्ठभूमि  में संक्रामक रोगों का खतरा बढ़ रहा है। हाल ही में अस्तित्व में आया सुपरबग एक ऐसा ही सूक्ष्म जीव है। इस मामले में एक दूसरी समस्या यह भी मिर्मित हुई है कि नई एंटीबाॅयोटिक खोजने का काम मंदा पड़ गया है। दरअसल किसी भी एंटीबाॅयोटिक का अविष्कार करने और फिर उसे परीक्षणों के बाद बाजार में लाने में दो दशक से भी ज्यादा का समय लगता है। इसमें निवेश  भी अघिक होता है, इस कारण कंपनी को दवा के दाम महंगे रखने पड़ते है। इधर जनता की जागरूकता बढ़ने और सामाजिक कार्यकताओं की फौज खड़ी हो जाने से ड्रग ट्रायल करना भी मुश्किल  हो गया है। क्योंकि अधिकांश  कंपनियां और चिकित्सक ड्रग ट्रायल की शर्तें पूरी नहीं करते, नतीजतन इन्हें अदालत के कठघरे में खड़ा करना आसान हो जाता है। कुछ साल पहले इंदौर के सरकारी अस्पताल में गोपनीय ढंग से किए जा रहे ड्रग ट्रायल का बड़ा मामला सर्वोच्च न्यायालय के दखल से सामने आया था।
प्रकृति ने मनुष्य  को बीमारियों से बचाव के लिए शरीर के भीतर ही मजबूत प्रतिरक्षात्मक तंत्र दिया है। इन्हें  श्वेत  एवं लाल रक्त कणिकाओं के माध्यम से जाना जाता है। इसके अलावा रोग-रोधी एंजाइम लाइफोजाइम भी होता है, जो जीवाणुओं को नष्ट  कर देता है। एंटीबार्योिटक दवाओं ने जहां अनेक संक्रामक रोगों से मानव जाति को बचाया,वहीं दुष्परिणाम स्वरूप शरीर की प्रतिरोधात्मक शक्ति को कमजोर भी किया। जिस तरह मानव शरीर विभिन्न प्राकृतिक तापमान, वायुमंडल व भौगोलिक परिस्थिति और पर्यावरण के अनुकूल अपने को ढाल लेता है, उसी तरह से हमारे धरती पर अस्तित्व के समय से ही सूक्ष्मजीव और उनके विरूद्ध शरीर की प्राकृतिक प्रतिरोधात्मक शक्ति का भी परिवर्तित विकास होता रहा है।
कुदरत का कमाल देखिए एंटिबायोटिक दवाओं ने दोनों के बीच के संतुलन को गड़बड़ा दिया, लिहाजा एंटीबायोटिक दवाएं जब-जब सूक्ष्मजीवों पर मारक साबित हुई, तब-तब जीवाणु और विषाणुओं ने अपने को और ज्यादा शक्तिशाली बना लिया। गोया,महाजीवाणु कभी न नश्ट होने वाले रक्तबीजों की श्रेणी में आ गए हैं। इसलिए आज वैज्ञानिकों को कहना पड़ रहा है कि एंटीबायोटिक दवाओं की मात्रा पर अंकुश  लगना चाहिए। दवा कंपनियों की मुनाफे की हवस और चिकित्सकों का बढ़ता लालच, इसमें बाधा बने हुए हैं। चिकित्सक सर्दी-जुकाम और पेट के साधारण रोगों तक के लिए बड़ी मात्रा में एंटीबायोटिक दवाएं दे देते हैं। ऐलोपैथी चिकित्सा पद्धति के मुनाफाखोरों ने प्रायोजित शोधों के मार्फत आयुर्वेद, यूनानी, प्राकृतिक चिकित्सा और होम्योपैथी को अवैज्ञानिक कहकर हाशिए पर डालने का काम भी शड्यंत्रपूर्वक किया है। लेकिन सूक्ष्मजीव नए-नए कायातंरण कर नए-नए रूपों में सामने आना शुरू हो गए हैं,तब से एंटीबायोटिक दवाओं की सीमा रेखांकित की जाने लगी है। नतीजतन वैकल्पिक चिकित्सा पद्धतियां फिर से जोर पकड़ रही हैं। बेशुमार एंटीबायोटिक दवाओं की मार से बचने का यही एक कारगर उपाय है कि वैकल्पिक चिकित्सा पद्धतियों को लोग अपनाएं। हालांकि फिलहाल एंटीबाॅयोटिक दवाओं का कोई ठोस विकल्प नहीं दिख रहा है, इसलिए यह आशंका निर्मूल साबित होगी कि ये दवाएं अपना शताब्दी समारोह मनाने से पहले बहिष्कृत हो जाएंगी।

प्रमोद भार्गव
शब्दार्थ 49, श्रीराम काॅलोनी
शिवपुरी म.प्र.
मो. 09425488224, 09981061100

लेखक वरिष्ठ साहित्यकार और पत्रकार हैं।

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