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आचार्य शंकर का ऐतिहासिक योगदान

Shankaracharya—–
डॉ. मधुसूदन
(एक )
“हिमालय का प्रवास” पुस्तक।
“हिमालय नो (का) प्रवास” नामक गुजराती पुस्तक के लेखक, काका कालेलकर के, आदि-शंकराचार्य की प्रशंसा में लिखे, शब्दों ने ध्यान खींचा। वें आदि शंकराचार्य को असामान्य ऐतिहासिक व्यक्तित्व मानते हैं। वें कहते हैं।
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**शंकराचार्य धर्म के क्षेत्र में समुद्रगुप्त और नेपोलियन थे;
**प्रबंधन में, राजा टोडरमल या शिवाजी थे;
**काव्य रचना में तुलसीदास थे;
**बुद्ध भगवान जैसे आत्मविश्वासी थे,
**ज्ञानेश्वर जैसे साहित्याचार्य थे;
और **बुद्धि में बुद्धि की पराकाष्ठा व्यास जैसे विशाल बुद्धि थे।
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तनिक सोचिए-विचारिए।किन किन ऐतिहासिक महानताओं से काका कालेलकर, आचार्य शंकर की समानता दर्शाते हैं?
**समुद्रगुप्त और नेपोलियन जैसे विजेता, राजा टोडरमल और शिवाजी जैसे व्यवस्थापक, तुलसीदास जैसे कवि, बुद्ध जैसे आत्मविश्वासी, ज्ञानेश्वर जैसे साहित्याचार्य  और बुद्धि की पराकाष्ठा व्यास जैसे विशाल बुद्धि।**
इतनी सारी पराकोटि की संपदाएं एक व्यक्ति में, मात्र कुल ३२ वर्ष के जीवन में अभिव्यक्त होना असामान्य में असामान्य चमत्कार ही है।

(दो)
शिवाजी और टोडरमल जैसे प्रबंधक:
आज उनके प्रबंधन को ही सूक्ष्मता सहित जानने का प्रयास करते हैं।
इसके प्रमाण भी सहज मिल जाते हैं।साथ साथ उनकी (Analysis) विश्लेषण की प्रतिभा, संगठन कौशल्य, और  विविधता में एकता की दृष्टि इत्यादि विशेषताएँ भी  उजागर होती है।
इसी पर लक्ष्य केंद्रित कर, कुछ अध्ययन कर पाया। जिसे सामान्य बोध (common Sense) से ही समझा जा सकता है। कोई विशेष विद्वान होने की भी आवश्यकता नहीं।
जब कालेलकर उन्हें  “टोडरमल और शिवाजी जैसे प्रबंधक” मानते हैं,  तो क्यों,  इस का ही उत्तर ढूँढने का प्रयास मैंने किया, मेरी अपनी जिज्ञासा के लिए।

हिम शैल की केवल शिखा  (Tip of the iceberg )जैसा, यह आलेख लिख कर, एक असाधारण प्रतिभा का परिचय कराने में लेखक स्वय़ं धन्यता का अनुभव करता है।
(तीन)
दशनामी संन्यासी परम्परा क्या है?

पाठक ने संन्यासियों के नाम के अंत में भारती, सरस्वती, आश्रम, तीर्थ, सागर, गिरि इत्यादि का प्रयोग सुना होगा। ऐसे दस नाम होते हैं।
जैसे सत्यमित्रानन्द गिरि, ईश्वरानन्द गिरि, स्वामी रामानंद तीर्थ,  स्वामी प्रणव चैतन्यजी पुरी  स्वामी गौरीश्वरानंद पुरी, स्वामी अधोक्षजानंद देव तीर्थ, स्वामी दयानन्द सरस्वती  ऐसे अनेक नाम समाचारों में भी होते हैं। इस परम्परा को आदि शंकराचार्य ने रूढ किया था। ऐसी सागर, गिरि, पुरी इत्यादि भौगोलिक इकाइयों के नाम सन्यासियों के नाम के साथ जोडने का क्या कारण हो सकता है?

पहले  शंकराचार्य जी ने, भारत के भौगोलिक मान-चित्र  (Map) का परिशीलन किया, देखा कि, सारा भारत दस अलग अलग भौगोलिक इकाइयों में फैला है। ऐसे अलग अलग इकाइयों में फैले हुए  भारत को राष्ट्रीयता के संस्कार देने और संगठित करने के लिए दशनामी संन्यासियों की परम्परा चलायी।
जब भारत के मानचित्र का, अवलोकन किया, तो, देखा कि, भारत नदी किनारे तीर्थों में, वनो में, अरण्यों में, पहाडी पर, पर्वतीय क्षेत्रों में, नगरों में, इत्यादि दस इकाइयों में बसा हुआ है। इस लिए दशनामी संन्यासियों का संगठन खडा किया। और सारे भारत में उसका जाल फैला दिया।
ऐसे अनासक्त संन्यासियों ने उस समय जो काम किया, उसे वेतनधारियों से नहीं करवाया जा सकता था। त्याग की प्रेरणा और शंकराचार्य का प्रत्यक्ष नेतृत्व भी काम कर गया होगा। आज संघ का प्रचारक भी निःस्वार्थ भाव से इसी प्रकार प्रेरित होता है; लेखक जानता है।
ऐसे, इन दशनामियों को, नदी किनारे तीर्थों में, वनो में, अरण्यों में, पहाडी पर, पर्वतीय क्षेत्रों में, नगरों में, और अंतमें जिन्हें सर्वत्र भ्रमण करनेका काम दिया गया था, वैसे भारती के नामकरण से क्षेत्र का विभाजन किया गया।
पहले तो चकित हूँ, उनके (१) परिशीलन और विश्लेषण से। (२)दूसरा उनके  स्पष्ट कार्यक्षेत्र के विभाजन से। और उनकी  (३)  राष्ट्रीय दृष्टि से।
पर आज दशनामी परम्परा में भी लेखक को शिथिलता और समय के साथ साथ  आई हुयी क्षीणता दिखाइ देती है। वैसे आज प्रत्यक्ष शंकराचार्य की कोटिका नेतृत्व भी नहीं है।

(चार)
शंकराचार्य की प्रतिभा
विश्लेषक, प्रबंधक, चार आश्रमों के स्थापक, सारे भारत का ३ -४ बार भ्रमण करनेवाले, अनेकानेक वाद विवाद कर प्रतिपक्ष को मतांतरित करनेवाले, कर्मकाण्ड सुधारक, बुद्ध जैन सिद्धान्तों का समन्वयी वृत्ति से स्वीकरण, और अनुकूलन करनेवाले, उपनिषदों के भाष्यकर्ता। (यह सूची लम्बी है; बी. एन. गोयल जी का आलेख आप देख सकते हैं। अधिक विस्तृत चरित्र के लिए आप आध्यात्मिक सुधारक आदि शंकराचार्य निम्न कडि देखें।

आध्यात्मिक सुधारक – आदि शंकराचार्य

(पाँच)
दशनामी संन्यासियों का प्रबंधन ।

तीर्थाश्रमवनारण्यगिरिसागरपर्वताः।
सरस्वती पुरी चैव भारती च दशक्रमात्‌॥

इस श्लोक में तीर्थ, आश्रम, वन, अरण्य, गिरि,सागर, पर्वत, सरस्वती, पुरी, और भारती ऐसे दस नाम आते हैं।
उनके विषय में, संक्षेप में निम्न कहा जा सकता है।
(१)तीर्थ ,नामी संन्यासी तीर्थ क्षेत्रों की यात्रा कर समाज को संस्कारित किया करते थे।
(२)आश्रम नामी संन्यासी, भिन्न भिन्न मठों एवं आश्रमों से सम्बंध रखते हुए देश में घुमते थे।
(३)वन नामी संन्यासी वनों मे रहकर और घूमकर वनवासियों का मार्गदर्शन करते थे।
(४) अरण्य नामी संन्यासी  घने अरण्यों में संचार कर अरण्य वासियों को भी राष्ट्रीयता से जोडे रखते थे।
(५)गिरि नामी  संन्यासी पर्वतीय प्रदेशों में भ्रमण कर वहाँ बसे गिरिवासियों को मुख्य धारासे जोड रखते थे।
(६)सागर नामी संन्यासी,  सागर-तटस्थ प्रजा की देखभाल कर संस्कार करने वाले होते थे।
(७) पर्वत नामी संन्यासी दुर्गम पर्वतीय प्रदेशो में भ्रमण कर पर्वतीय प्रजाजनों का भी सम्पर्क बनाए रखते थे।
(८) सरस्वती नामी संन्यासी विद्यालयों और आश्रमों में सरस्वती की उपासना करने वालों से सम्पर्क रखने वाले होते थे।
(९) पुरी नामी नामी संन्यासी नगर-निवासियों को उपदेश देने वाले हुआ करते थे।
(१०) भारती नामी संन्यासी किसी भी एक भू-भाग में सीमित ना रहते हुए अखिल भारत में भ्रमण करने वालेहोते थे।
सारे राष्ट्र को इस ताने बाने में जोडना और संगठित करना कितना प्रचण्ड काम होगा?

(संदर्भ: श्री. बाबा सहब आपटे, और श्री. ब्रिजमोहन वशिष्ठ )

सोचिए इन नामों के पीछे कारण क्या रहा होगा? लगता है, प्रत्येक के कार्यक्षेत्र के प्रति किसी को कोई  भ्रांति न रहे। जैसे आज जब हम, अर्थ मंत्री, विदेश मंत्री, रक्षा मंत्री इत्यादि नामों से प्रत्येक मंत्रीका कार्यक्षेत्र निर्देशित करते हैं। बस उसी प्रकार शंकराचार्य जी ने, दो निर्णय लिए।

(छः) मठाधिपतियों की नियुक्तियों में राष्ट्रीय वृत्ति
आचार्य जी ने चार धाम स्थापित किए। दक्षिण में शृंगेरी कर्नाटक में एक, पश्चिम द्वारिका में दूसरा, बद्रिकाश्रम उत्तर में तीसरा, और पूर्व में पुरी में चौथा।
मठाधिपतियों की नियुक्ति में भी आपकी राष्ट्रीय दृष्टि का परिचय मिलता है।
सुरेश्वराचार्य जो उत्तर में जन्में थे, उन्हें दक्षिण में मठाधिपति नियुक्त किया।
और दक्षिण के  तोटक को बद्रिकाश्रम दूर उत्तर में भेजा।
आपने केरल  के नंबुद्रियों को भी बद्रीधाम की पूजा का अधिकार अनिवार्य कर दिया।
कर्नाटक के ब्राह्मणों को नेपाल भेजा।
और, दक्षिण में,  रामेश्वरम के पुजारी महाराष्ट्र से नियुक्त किए।

(सात)
अलौकिक राष्ट्रीय दृष्टि ?
इसकी तुलना अनायास हो जाती है,  हमारे स्वातंत्र्योत्तर उस नेतृत्व से,  जिसने भाषावार राज्य रचना कर सारे भारत में आपसी वैमनस्य के लिए संभावना को जन्माया था। कोई इसे द्वेष मूलक विधान ना समझे।बिना द्वेष केवल इतिहास से पाठ लेने के लिए ही लिखा है।

(आठ)
लेखक का  निरीक्षण:
मैं ने भारत के मानचित्र में शृंगेरी कर्नाटक को,  बद्रिकाश्रम से सरल रेखा से जोडा, और द्वारिका के बिंदू को पुरी से जोडा तो गणित का  +, अधिक चिह्न उभर आया। चारों बिन्दुओं को जोडनेपर चतुष्कोण भी बनता है।
ऐसा सारे भारत को जोडनेवाला व्यक्तित्व किस कारण हमारे इतिहास में उचित स्थान नहीं पाता?

(नौ)
जिन प्रदेशों में दशनामी पहुंच नहीं पाए:
जिन प्रदेशों में दशनामी शायद पहुंच नहीं पाए वैसे सुदूर अफगानीस्तान, और निकट का प्रदेश और पूर्वी भारत घर-वापसी  नहीं कर पाया था। ये बुद्ध धर्मी  हो चुके थे। और बुद्ध धर्म में वर्ण-व्यवस्था थी ही नहीं। जातियाँ भी नहीं थी।
जातियों का परस्पर सहायक ढाँचा शिथिल हो चुका था। इसी लिए उत्तरकाल में,  वहाँ मतांतरण हो कर इस्लाम का वर्चस्व हुआ। अफगानीस्तान में बामियाँ बुद्ध मूर्ति भी खण्डित हुयी। पूर्वी भारत में बुद्ध धर्मी ही मतांतरित हो कर इस्लामी धर्म में गए। यही  आज का बंगलादेश है। पश्चिम में अफगानीस्तान और निकट पाकिस्तान भी इसी प्रक्रिया का परिणाम है। इतिहास पुष्टि भी करता है।

(दस) मिशनरियों का गुप्त पत्र व्यवहार।
मिशनरियों का गुप्त पत्र व्यवहार, जो, कोलम्बिया युनिवर्सीटी के, प्रोफ़ेसर निकोलस डर्क्स ने अपनी पुस्तक Castes of Mind (मानसिक जातियाँ) में उजागर किया है। ्वह भी अलग रीति से जातियों को ही धर्मान्तरण के सामने प्रबल अवरोध रहा है।(मानसिक जातियाँ, भाग १.२.३ अवश्य पढें–इसी प्रवक्ता में पाएंगे)

जहाँ जातियाँ शिथिल हुयी थी, और जहाँ बौद्धों की बहुलता हो चुकी थी, वहाँ मतान्तरण हुआ, और आज अफगानीस्तान, बंगलादेश, पाकिस्तान जहां बने हैं, वहाँ जातियाँ शिथिल थीं, जो बुद्ध धर्म से मतांतरित हुयी थीं। सावरकर, विवेकानंद और निकोलस डर्क्स और स्वयं नेहरू भी अलग अलग रीति से यही मानते हैं।
डिस्कवरी ऑफ इण्डिया में भी यही बात लिखी है।