औऱत के इस रूप का नाम वेश्या क्यों ?

1
965

केवल अहं की तुष्टि के लिए यह अमानवीयता क्यों?
-अनिल अनूप
कोई लड़की भीड़ से गुजरती है और कोई व्यक्ति उसे गलत तरीके से स्पर्श करता है, ऐसे में घर जाकर न जाने वो अपना हाथ कितनी बार धोती है. अनचाहे स्पर्श की व्यथा सिर्फ एक लड़की ही समझ सकती है. इसी तरह अपनी मर्जी के खिलाफ इस दलदल में उतारी गई लड़कियों को हर रोज किसी भी पुरूष के साथ हमबिस्तर होना पड़ता है. क्या इंसानियत के तौर पर ही सही, समाज से उपेक्षित इन लड़कियों के प्रति क्या हमारी कोई जिम्मेदारी नहीं है?
आज शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति हो जिसने भारत में फैले इन रेड लाइट एरिया के बारे में न सुना हो. महाराष्ट्र और कर्नाटक के कई इलाकों में ‘देवदासी बेल्ट’ वेश्यावृत्ति से ही जुड़ा हुआ नाम है. साथ ही कोलकत्ता का सोनागाछी, मुंबई का कमाटीपुरा, दिल्ली का जीबी रोड़, आगरा की कश्मीरी मार्केट, ग्वालियर का रेशमपुरा आदि इलाके रेड लाइट एरिया के लिए बदनाम है.
प्रतिमा…..
उसे अंधेरा पसंद नहीं था. अब गांव में बिजली कहां होती है जो रात में उसे रोशनी नसीब होती. दीए की मध्यम रोशनी में उसे वो राहत नहीं मिलती थी, इसलिए शाम होते ही वो नदी के पास आकर बैठ जाया करती थी. जहां पर जुगनू झुंड बनाकर उजाला फैलाते थे. लेकिन रोशनी की ये तलाश उसके लिए जिंदगी भर का अंधेरा साबित हुई. पड़ोस के एक आदमी की नजर न जाने उस पर कब से थी. उसे बस इतना ही याद है कि अगली सुबह जब उसकी आंखें खुली, तो वो एक अंधेरी कोठरी में बंद थी. फिर तो हमेशा के लिए उसके नसीब में अंधेरा ही लिख दिया गया.
17 साल की उम्र में उसे ज्यादा कुछ पता नहीं था लेकिन उसके पास आने वाले लोग उसके ग्राहक बताए जाते थे और वो रात की रानी. जिसकी रातों के सौदे कभी चंद सिक्कों तो कभी लाखों में होते थे.
ये कहानी हर उस लड़की की हो सकती है जो जबरन वेश्यावृत्ति के धंधे में गांवों या शहर के दूर-दराज के इलाकों से लाकर धकेल दी जाती हैं.
देशभर में ऐसे कई रेड लाइट एरिया हैं जो जिस्मफरोशी का दलदल कहे जाते हैं. लेकिन क्या आप जानते हैं कि भारत में आखिर वेश्यावृत्ति शुरू कैसे हुई थी. आइए डालते हैं एक नजर भारत में वेश्यावृत्ति के इतिहास पर.
‘नगरवधु’ से शुरू दोहरे समाज की कहानी
जैसा कि नाम से ही पता चलता है कि प्राचीन भारत में नगरवधु हुआ करती थी. जिस पर किसी एक आदमी का नहीं बल्कि नगरभर के प्रभावशाली व्यक्तियों का स्वामित्व होता था. शुरूआत में नगरवधुएं केवल नाचने, गाने और मनोरंजन का ही काम किया करती थी लेकिन धीरे-धीरे इन्हें दाम देकर खरीदा जाने लगा. दूसरी सदी में सुदरका नाम के लेखक द्वारा संस्कृत में लिखी गई ‘मृछकतिका’ में नगरवधू का पूरा विवरण मिलता है जिससे ये साबित होता है कि दिन में मनोरंजन करने वाली ये लड़कियां रात में दाम देकर राजाओं के पास बुलाई जाती थी. इनमें
आम्रपाली नाम की नगरवधु बहुत मशहूर है. कहते हैं वो इतनी सुंदर थी कि पूरा नगर ही नहीं बल्कि कई राज्यों के राजा उसे जीतने का प्रयास करते थे.
तवायफों को भी बनाया गया वेश्यावृत्ति का हिस्सा
शुरूआत में मुगल काल के दौरान तवायफें केवल दरबार में नाच-गाना करके शाही परिवार का मनोरंजन किया करती थी, लेकिन धीरे-धीरे इनके कोठों को वेश्यावृत्ति के ठिकानों में बदल दिया गया.
16-17वीं शताब्दी में गोवा पर पुर्तगालियों का कब्जा हुआ करता था. उस समय ये लोग जापान से मुंह मांगे पैसे देकर सेक्स गुलाम बनाई गई लड़कियों को जापान से खरीदकर लाया करते थे. धीरे-धीरे जब पुर्तगालियों की दोस्ती भारत के अन्य ब्रिटिश शासकों से हुई तो वो भारत से गरीब लड़कियों के परिवारों को पैसे देकर या जबरन लड़कियों को उठाकर वेश्यावृत्ति के ठिकानों पर भेजने लगे. इस तरह आर्मी कैंप के पास ही वेश्यावृत्ति के कोठे बनाकर ब्रिटिश सिपाही अपनी मनमर्जी से इन लड़कियों के ठिकाने पर पहुंच जाते थे.
ये एक ज्वंलत सवाल है कि इतनी सदियां गुजर जाने के बाद भी आज तक पुलिस, प्रशासन और सरकार वेश्यावृत्ति पर लगाम लगाने के लिए कोई सार्थक कदम नहीं उठा पाई है. वहीं दूसरी तरफ वेश्यावृत्ति को नियमित करके या कानूनी वैधता दिलाने के लिए बहस होती दिखाई देती हैl
उसे अंधेरा पसंद नहीं था लेकिन यह जगह ऐसी थी जहां दिन-रात का पता ही नहीं चलता था. बचपन की धुंधली पड़ चुकी यादों में से उसे बस इतना ही याद है कि जब भीड़ में किसी अंजान मर्द का गलती से भी उसे स्पर्श होता था तो घर में आकर न जाने कितने घड़ों पानी से वो नहा लिया करती थी. सौतेली मां के पूछने पर कहती थी ‘मैं गिर गई थी इसलिए खुद को साफ कर रही थी’ लेकिन यहां तो उसे ये भी याद नहीं है कि वो कितने गैर मर्दों साथ हमबिस्तर हुई है. अब उससे ये सवाल किया जाता है कि आज दिन भर में कितने ग्राहकों को निपटा दिया.
रेड लाइट एरिया में लाई गई ऐसी न जाने कितनी ही लड़कियों की आप-बीती इस कहानी से मिलती-जुलती या इससे भी अधिक रोंगटे खड़े कर देने वाली हो सकती है लेकिन उनके लिए यह बदनाम जगह अब घर बन चुकी है और अब उन्हें बाहर की दुनिया से कोई फर्क नहीं पड़ता. लेकिन फिर भी इनकी बातों से ऐसा लगता है कि आजादी की दबी-कुचली हल्की सी उम्मीद अभी भी इनके मन में कहीं धूल में लिपटी हुई पड़ी है.
अभी कुछ अरसे पहले रेप की बढ़ती घटनाओं के कारण वेश्यावृत्ति को कानूनी दर्जा देने की मांग ने जोर पकड़ लिया था. अधिकतर लोग वेश्यावृत्ति को कानूनी दर्जा देने को रेप के मामलों में कमी से जोड़कर देख रहे थे वहीं दूसरी तरफ ऐसे लोगों की भी कमी नहीं थी जो लगातार स्त्रियों के लिए दोगली सोच रखने वाले समाज को कोस रहे थे. एक सवाल रेड लाइट एरिया को ग्रीन सिग्नल देने की सोच रखने वालों से ,अगर आप रेप के बढ़ते मामलों को वेश्यावृत्ति को कानूनी मंजूरी मिलने कारण से जोड़कर देखते हैं तो यानि आप हवस के नशे में अंधे मर्दों के लिए जानें-अनजाने आसानी से लड़कियां उपलब्ध करवाने की पैरवी कर रहे हैं. आप ऐसे लोगों को अपनी गंदी मानसिकता सुधारने के लिए नहीं बल्कि विकल्प देकर उनके घिनौने इरादों को हवा दे रहे हैं. क्या आप इस मानसिकता के साथ इन लोगों जितने ही दोषी नहीं हो जाते?
जिस दिन वेश्यावृत्ति को कानूनी रूप से स्वीकृति दे दी गई उस दिन से ही समाज में महिलाओं के दो वर्ग बन जायेगें जिसमें एक तो इज्जत के साथ अपने सपनों को पूरा करेगी जबकि दूसरे वर्ग की महिलाओं की जिम्मेदारी केवल मर्दों की शारीरिक इच्छा को पूरा करने तक ही सीमित होगी और उनके लिए आवाज उठाने वालों को बेवकूफ मानकर चुप करवा दिया जाएगा क्योंकि तब उन्हें कानूनी दर्जा हासिल हो चुका होगा.रेप से महिलाओं को बचाने के लिए वेश्यावृत्ति के रूप में महिलाओं को बीमार मानसिकता वाले मर्दों के सामने परोसने से रेप के मामलों में कमी आएगी या नहीं, इसकी कोई गारंटी नहीं है लेकिन रेड लाइट एरिया का ये स्याह कारोबार जरूर फल-फूल जायेगा.
वो अपनी मर्जी से तो नहीं आती यहां
आए दिन जिस्मफरोशी के लिए फलां राज्य से लाई हुई लड़कियों को बरामद किया गया, ऐसी न जाने कितनी ही खबरों से हम रू-ब-रू होते हैं. इससे तो ये बात साफ है कि अधिकतर लड़कियां रेड लाइट एरिया तक पंहुचा दी जाती हैं न कि खुद इस दलदल में फंसने आती हैं. इस तरह से तो कानूनी दर्जा मिलने पर लड़कियों को रेड लाइट एरिया में पहुंचने से पहले कानूनी रूप से बचाया जा सकता है लेकिन जिस्मफरोशी के जाल में उतरने के बाद कोई इनकी सुध भी नहीं लेगा क्योँकि तब यह कानूनी हक हासिल कारोबार का हिस्सा बन जाएगी. फिर किसी के लिए भी ये साबित करना मुश्किल हो जायेगा कि ये लड़किया जोर-जबर्दस्ती से यहां लाई गईं है या अपनी मर्जी से ये काम कर रही हैं.
देह-व्यापार का समर्थन करने वाले लोगों की अजीब मानसिकता को दिखाती एक कहानी सालों पहले अचानक यूं ही मेरे कानों में पड़ गई थी, मैं डीटीसी की क्लस्टर बस से कमला मार्किट की ओर जा रहा था मेरी सीट के पीछे एक आदमी और उसका दोस्त थोड़ी तेज आवाज में बातें कर रहे थे. उनमें से एक ने कहा ‘रात को घर लेट आया तेरी भाभी को पता चल गया कि मैं वहां गया था, हमेशा की तरह लड़ाई कर रही थी. यह सुनकर दूसरे दोस्त ने कहा ‘तो फिर…मायके नहीं गई? इतने में वो आदमी बोला ‘कहां जाएगी…समझा दिया मैंने उसमें और उन लड़कियों में बहुत फर्क है वो लड़कियां बनी ही इन चीजों के लिए हैं. इतना कहकर दोनों तेज आवाज में ठहाके मारने लगे.उनकी घिनौनी बातें सुनकर मेरे रोंगटे खड़े हो गए और मैं सोचने पर मजबूर हो गया कि आखिर इन लोगों के इन बदनाम गलियों में जाने से ही तो इन गलियों में रौनक होती है और वेश्यावृत्ति का कारोबार फलता-फूलता है.
स्वप्ना दास, 40 वर्षीय एक महिला, या यूं कहें एक वेश्या जो पिछले कई सालों से कोलकाता के सोनागाच्छी रेड लाइट एरिया (जहां वेश्या काम करती हैं) में काम करती है. सोनागाच्छी भारत का दूसरा सबसे प्रसिद्ध रेड लाइट एरिया है. वो यहां कब, कैसे, क्यों और किन हालातों में आई यह काफी दर्दनाक है.
स्वप्ना केवल 15 वर्ष की थी जब उसके पिता ने उसकी शादी कर दी. स्वप्ना का कहना है कि दूसरी लड़कियों की तरह वह भी स्कूल जाना चाहती थी लेकिन उसका यह सपना हमेशा के लिए सपना ही रह गया. उसके पिता की आर्थिक स्थिति काफी कमजोर थी और यदि कोई कमाई होती भी तो उसके पिता द्वारा शराब व नशे में बहा दी जाती थी. उसकी आखिरी उम्मीद उसका पति था जिससे उसने यह आशा लगा रखी थी कि शायद अब उसे भुखमरी में नहीं रहना पड़ेगा लेकिन ऐसा हुआ नहीं.
स्वप्ना की शादी एक ऐसे इंसान से हुई जो उसके पिता की तरह ही नशे का आदि था. वो ना तो कोई काम करता था और ना ही स्वप्ना को खुश रखता था. यदि उसकी ओर से स्वप्ना के लिए कोई चाहत थी तो केवल स्वप्ना के पास जाना, साफ लफ्जों में कहें तो उसका शारीरिक शोषण करना. घर की बुरी अवस्था और कामजोर पति के व्यवहार को देख स्वप्ना ने घर से बाहर निकल कर काम करने का फैसला किया.
उसने पड़ोस के ही एक घर में साफ-सफाई का काम ढूंढ़ा. यह एक ऐसा घर था जहां एक पिता, उसका बेटा और बहू रहते थे. अभी कुछ ही दिन हुए थे कि घर के मर्दों ने स्वप्ना पर अपना हक जमाना शुरु कर दिया. घर के मर्द किसी ना किसी बहाने से स्वप्ना को छूते थे. कुछ समय बाद जब उन्हें समझ में आया कि स्वप्ना विरोध करने की हालत में नहीं है तो वे और भी निर्दयी हो गए. उन्होंने स्वप्ना का शारीरिक शोषण करना शुरु कर दिया.
अब स्वप्ना बेहद मजबूर हो गई थी. वो ना तो काम छोड़ सकती थी और ना ही विरोध कर सकती थी. अंत में उसने एक बड़ा फैसला लिया. वो इस ‘जाल’ से बाहर निकलना चाहती थी और ऐसा करने में वो सफल भी हुई.
एक रात स्वप्ना दबे पांव कुछ छोटा-मोटा सामान उठाकर घर से भाग निकली. भागते-भागते वो गंगा किनारे पहुंची और थक हारकर वहीं सो गई. जब उसकी आंख खुली तो उसने अपने सामने एक आदमी को खड़ा हुआ पाया. स्वप्ना की हालत को देख उस आदमी ने उसके बारे में जानने की इच्छा जताई. भोली भाली स्वप्ना ने उसे सब कुछ बता दिया.
उस आदमी ने स्वप्ना की मदद करने की इच्छा व्यक्त की और उसे एक महिला के घर ले गया. स्वप्ना बताती हैं कि वो घर नहीं बल्कि एक ऐसी जगह थी जहां एक कमरे को नजाने कितने ही भागों में बांटा गया था. उसे लगा वो फिर से कहीं नौकरानी बनने आई है लेकिन सच्चाई कुछ और ही थी.
कुछ देर आराम करने के बाद वहां मौजूद लोगों ने उसे तैयार हो कर बाहर दरवाजे पर खड़े होने के लिए कहा. तब उसे समझ में आया कि वो किसी साधारण महिला नहीं बल्कि एक वेश्या के घर में है जिसका घर भारत में स्थित दूसरे सबसे प्रसिद्ध रेड लाइट एरिया सोनागाच्छी, कोलकाता में है.
स्वप्ना यह जान कर दंग रह गई. वो रोई, चिल्लाई, उसने काफी मार भी खाई लेकिन इससे ज्यादा विरोध वो कर ना सकी और अंत में उसे उस दलदल में पैर रखना ही पड़ा जहां चाहकर भी कोई लड़की अपनी खुशी से आना नहीं चाहेगी.
आज स्वप्ना के दो बेटे हैं, एक 15 वर्ष का और दूसरा 10 वर्ष का. स्वप्ना कहती है, “मेरे बेटे यह नहीं जानते कि उनके पिता कौन हैं, लेकिन वो इतना जरूर जानते हैं कि उनकी मां कौन है, और क्या काम करती है.” स्वप्ना अपने काम व इस अनचाहे जिंदगी की परछाईं अपने बच्चों पर नहीं पड़ने देना चाहती. वो चाहती है कि उसके बच्चे अच्छी शिक्षा ग्रहण करके अपनी जिंदगी में सफल बनें और यह महसूस कर सकें कि उन्हें सफल बनाने में उनकी मां ने कितनी मेहनत की है.
आज देशभर में स्वप्ना जैसी ना जाने कितनी ही औरते हैं जिन्हें पैसों के नाम पर रेड लाइट ऐरिया की शान बनाया जाता है लेकिन उनकी जिंदगी की शान किस चीज में है यह कोई नहीं पूछता. यदि हम गहराई से देखें तो हर वेश्या की कहानी में कुछ समानताएं हैं और वो हैं मजबूरी, पैसों की जरूरत या फिर अपनों से मिला हुआ धोखा.
कहते तो हैं कि एक औरत के कई रूप हैं, वो एक मां, एक पत्नी, एक बहन और एक बेटी है, अनेकों किरदार में नारी को भगवान का दर्जा दिया जाता है परंतु आज के युग में यह महज किताबी बातें रह गई हैं. नारी का अपमान तो युगों-युगों से होता आ रहा है. महाभारत युग में भी कौरवों ने भरी सभा में द्रौपदी का चीर-हरण किया और रामायण युग में रावण के हाथों सीता मइया का अपमान हुआ था तो फिर आज कलयुग में नारी की सुरक्षा होना कैसे संभव है?
आज तो औरत एक वस्तु के समान है जिसे अपनी जरूरत पूरी करने के लिए इस्तेमाल किया जाता है. आए-दिन ऐसी कई घटनाएं घटती हैं जो औरत के लिए दर्दनाक हैं. यह हमारे समाज के लिए एक बहुत बड़ा अभिशाप है. बलात्कार, शारीरिक शोषण, लड़कियों को बेचना, वैश्विक धंधा, इन सभी कठिनाइयों से आज औरत घिरी है. औरत के लिए तो यह कभी ना खत्म होने वाले दर्द बन गए हैं.
क्या आप समझ सकते हैं उस लड़की का दर्द?
हाल ही में दक्षिण अफ्रीका में एक ऐसा मामला सामने आया है जिसे सुनकर किसी का भी इस समाज व रिश्तों से विश्वास उठ जाएगा. खबर के मुताबिक देश के सरकारी प्रसारणकर्ता – साउथ अफ्रीका ब्रॉडकास्टिंग कॉर्पोरेशन (एसएबीसी) के प्रमुख, मोत्सोएनेंग, को एक पत्नी तोहफ़े के तौर पर दी गई है. हैरानी की बात है कि इतने बड़े सरकारी ओहदे पर होने के बावजूद भी इस शख़्स ने बेशर्मी की सभी हदें पार कर दीं.
इस हैवानियत में माता-पिता भी थे राज़ी
एक बच्चा अपनी सुरक्षा की सबसे पहली गुहार अपने माता-पिता से ही तो करता है लेकिन जब वही उसके जीवन के दुश्मन बन जाएं तो यह संसार उसके लिए अभिशाप से कम नहीं. बताया जाता है कि मोत्सोएनेंग हाल के दिनों में देश के उत्तरी प्रांत लिम्पोपो के दौरे पर गए थे जहां मोत्सोएनेंग और एसएबीसी के अन्य अधिकारियों की मुलाक़ात एक समूह से हुई थी. इस बीच उन्हें लगभग दस लड़कियां दिखाई गईं जिसमें मोत्सोएनेंग ने एक लड़की पसंद कर ली जिसकी उम्र 23 साल है.
क्रूरता की सारी हदें पार कर वह खुद को पिशाच समझने लगा था, पढ़िए अपने ही माता-पिता को मौत के घाट उतार देने वाले बेटे की कहानी
पसंद की गई महिला को मोत्सोएनेंग को तोहफ़े के रूप में सौंप दिया गया. लड़की के अलावा मोत्सोएनेंग को एक , गाय और बछड़ा भी दिया गया. हैरतंगेज वाकया तो यह है कि उस समय लड़कियों के साथ उनके सभी माता-पिता भी मौजूद थे. इससे यही तात्पर्य है कि उन कन्याओं के माता-पिता सब जानते थे कि क्या हो रहा है और वह इसके लिए राज़ी भी थे.
हर सेकेंड एक महिला होती है हवस का शिकार
क्रूरता व हैवानियत का सिर्फ यही जीता जागता उदाहरण नहीं है. ना जाने कितनी औरतें, दुनिया के कोने-कोने में रोजाना ऐसी घटनाओं का शिकार होती हैं. आए-दिन मासूम लड़कियों को नर्क की इस आग में ढकेल दिया जाता है. कुछ समय पहले भी नाइजीरिया से खबर आई थी जिसमें एक इस्लामिक टेरोरिस्ट ग्रुप ने स्कूल जाने वाली 300 मासूम छात्राओं को सिर्फ इसलिए अगवा किया था क्योंकि उस ग्रुप के लोगों का मानना है कि लड़कियों का शिक्षा ग्रहण करना एक बहुत बड़ा गुनाह है.
उसका गुनहगार कोई और नहीं, उसके पिता का जिगरी दोस्त है, एक मासूम की आपबीती
बोको हरम (पाश्चात्य शिक्षा वर्जित है) के लीडर अबुबकर शेखाव ने इन लड़कियों का अपहरण कर उन्हें बेचने का एलान तक कर दिया था. एक वीडियो के जरिए उसने सरकार तक यह पैगाम भेजा कि जितनी भी लड़कियां गायब हुई हैं उनका अपहरण उसके ग्रुप ने किया है. ‘अल्ला-हु-अकबर’ के नारे लगाते हुए और आसमान में गोलियां चलाते हुए उसने अपनी एक वीडियो रिकॉर्ड की है जिसमें उसने अपना यह गुनाह कबूला है.
नेपाल ने तो अछूत बना दिया स्त्री को
नेपाल के लेगुड्सेन अछम की पहाड़ियों के बीच बसे एक छोटे से गांव में मासूम लड़कियों को एक अजीबो-गरीब सजा दी जाती है. कहा जाता है कि यहां रह रही लड़कियों को जैसे ही हर मासिक चक्र शुरू होता है उनके साथ बदसलूकी शुरू हो जाती है.
आमतौर पर ऐसे समय में महिलाओं को अपवित्र समझा जाता है और उन्हें पूजा-पाठ व मंदिर जैसी पवित्र जगहों से दूर रखा जाता है लेकिन यहां तो समस्या और भी गंभीर है. नेपाली स्त्रियों को मासिक धर्म शुरू होते ही घर से बाहर निकाल दिया जाता है और एक टूटे-फूटे से झोपड़े में रहने को मजबूर किया जाता है. एक बार इस मासूम की आंखों और अपनी बहन के प्रति उसकी भावनाओं को देखिए, आपकी भी आंखें ना भर आएं तो कहना
इस समय पर उनकी कोई मदद नहीं की जाती और इतना ही नहीं उन्हें पानी के साधन से दूर रखा जाता है व एक जानवर की हैसियत से खाना दिया जाता है. पहाड़ी के बीचो-बीच बसे इस गांव में यह महिलाएं कई बार जंगली जानवरों का शिकार भी हुई हैं. कई लड़कियों को ऐसी अवस्था में होने के बावजूद भी बलात्कार का शिकार होना पड़ता है.

‘अगुना’ प्रथा का भी शिकार हैं महिलाएं
बलात्कार व शारीरिक शोषण के अलावा भी यह समाज औरत को अंदर ही अंदर से तोड़ रहा है. इजराइल का नाम तो आपने सुना ही होगा और यहां से जुड़ी एक बेहद रुढ़िवाद परंपरा है ‘अगुना’, एक ऐसी प्रथा जिसका शिकार यहां रहने वाली कितनी ही महिलाएं होती हैं.
कहा जाता है कि इजराइल में हजारों की संख्या में ऐसी महिलाएं हैं जिनका विवाहित जीवन समाप्ति के कगार पर है. उनका पति ना तो उनके साथ रहता है और ना ही उनसे कोई सरोकार रखता है, लेकिन ऐसे हालातों के बावजूद भी वह तलाक की अर्जी दायर नहीं कर सकतीं. यदि अर्जी दायर कर भी दी और फिर उनका पति तलाक लेने से मना कर दे तो उन्हें जीवन भर के लिए उसकी अगुना या बंदिनी बनकर रहना पड़ता है.

यह प्रथा भी थी घिनौनी
भारत के दक्षिणी राज्य केरल में ब्राह्मणों की एक उच्च जाति ‘नंबूदरी’ बसती है. पहले एक प्रथा के तौर पर इस राज्य की नायर जाति के लोग अपनी बेटियों व महिलाओं को नंबूदरी ब्राह्मणों के सामने प्रस्तुत करते थे. नायर अपने यहां की स्त्रियों को अर्धनग्न हालत में नंबूदरी ब्राह्मणों के सामने आने को कहते थे. फिर ये ब्राह्मण उनमें से अपनी पसंद की स्त्री चुनते थे.

आखिर कब तक चलेगा यह सब?
भारत समेत अन्य एशियाई देशों में महिलाओं के उत्पीड़न, उनके मानसिक और शारीरिक शोषण करने जैसी घटनाएं दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही हैं. यह स्त्री के विकास में बाधक साबित हो रही हैं. एक तरफ तो हम लड़के-लड़कियों के बीच समानता की बात करते हैं, उन्हें आगे बढ़ने के समान अवसर देने की बात करते हैं लेकिन फिर जब ऐसी घटनाएं सामने आती हैं तो दोगले समाज का खतरनाक चेहरा सामने आता है. हम कोशिश करने के हजार दावे क्यों ना कर लें लेकिन कभी परंपरा तो कभी धर्म के नाम पर स्त्री शोषण की दास्तां आगे बढ़ती रहती है, जिसका अंत होना अब तो नामुमकिन ही लगने लगा है.

चकलाघर, बंग्लादेश में लगने वाली औरतों की एक ऐसी मंडी को कहा जाता है जहां पुरुष को उसकी शारीरिक इच्छाएं पूरी करवाने के लिए हर सुविधा उपलब्ध करवाई जाती हैं. उन्हें हर तरह की लड़की, हर उम्र की लड़की, भरे-पूरे या अविकसित शरीर वाली लड़की, सब कुछ प्राप्त करवाया जाता है ताकि आमदनी का जरिया उनसे छिन ना जाए. एक औरत को उन्हीं के लिए ही तो तैयार किया जाता है. उसका जिस्म, उसकी भावनाएं, उसकी आत्मा सबका सौदा करने का हक है पुरुष के पास, तो अगर मर्द खुश करने के लिए वह अपने जीवन से खिलवाड़ करती है या जबरन उससे यह खिलवाड़ करवाया जाता है तो इसमें हर्ज भी तो नहीं है.
क्यों नहीं मिलनी चाहिए मरने की आजादी?
पुरुषों को खुश करने के लिए वो सजती हैं, संवरती हैं, उनके सितम भी सहती हैं लेकिन यह सब उन्हें बहुत भारी पड़ता है. बांग्लादेश जैसे मुस्लिम बहुल राष्ट्र में वेश्वावृत्ति को कानूनी संरक्षण प्रदान किया गया है और यही इस देश और यहां रहने वाली औरतों की तकलीफों का कारण बना हुआ है..
दिन रात अपने जिस्म का सौदा करना वैसे भी दर्दनाक है उसके ऊपर स्टेरॉयड का सेवन उनके शरीर को खाता जा रहा है. दवा के सेवन से शरीर का वजन तो बढ़ता है लेकिन इससे ब्लड प्रेशर और शुगर लेवल बहुत ज्यादा बढ़ जाता है हालांकि इसकी किसी को कोई परवाह नहीं है. .
बांग्लादेश में मासूम बच्चियों को वेश्यावृत्ति के दलदल में धकेलना एक गंभीर समस्या का रूप लेता जा रहा है. संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2004 में यौन शोषण का शिकार होने वाली लड़कियों की संख्या करीब 10 हजार थी और अनौपचारिक आंकड़ों की मानें तो यह संख्या 30,000 के भी पार पहुंच चुकी थी. कट्टरपंथियों द्वारा चकलाघरों पर रोजाना हमले किए जाते हैं, सेक्सकर्मी घायल भी होते हैं लेकिन जब औरतों का नसीब ही बन गया जिस्म बेचना तो उनकी नियति बदल पाना संभव भी तो नहीं है.
यह कहानी है गोवा की. वे आपके सामने से गुजर जाएंगे लेकिन आप ही उन बच्चों को उनका पिता समझकर उनके वहशीपन का शिकार होने उनके साथ भेज देंगे. ऐसा वहशीपन शायद ही कभी आपने देखा और सुना होगा!!
एक लड़की तमिलनाडु, एक कर्नाटक, एक आंध्र प्रदेश, एक राजस्थान और एक बिहार से उठाई गई. कुछ औरतों को उनकी फर्जी मां बनाकर दूसरी जगह ले जाया गया और फिर बेशर्मी की वह हद…….जिसे हम-आप जैसे लोग शायद ही कभी समझ सकते हैं. वे आपके सामने से गुजर जाएंगे लेकिन आप ही उन बच्चों को उनका पिता समझकर उनके वहशीपन का शिकार होने उनके साथ भेज देंगे. ऐसा वहशीपन शायद ही कभी आपने देखा और सुना होगा.
यह कहानी है गोवा की. समुद्र के बीच खुलेपन और आजादी का जो एहसास यहां आपको होगा उतना ही घुटन भरा माहौल यहां फिडोफाइल रैकेट में रह रहे बच्चों के लिए है जो इस खूबसूरत शहर में तेजी से फल-फूल रहे सेक्स टूरिज्म का हिस्सा बनने आते हैं. 8 से 11 साल के बच्चे-बच्चियों को दूसरे गरीब राज्यों से उठाकर या खरीदकर यहां लाया जाता है और उनका इस्तेमाल बच्चों का सेक्सुअल यूज करने वाले विदेशियों की ऐयाशियों के लिए किया जाता है. महज 30 हजार में खरीदे गए ये बच्चे इन विदेशियों को एंटरटेन करने के लिए रखे जाते हैं और एक महीने में हर बच्चे से कम से कम 1000 से 2000 डॉलर आमदनी की जाती है. आपको जानकर आश्चर्य होगा कि इन बच्चों को इतनी बुरी तरह प्रताड़ित करने के लिए ये उन्हें पैसे भी देते हैं लेकिन कितना..?? 500 डॉलर या 200 डॉलर? नहीं, महज 2000-3000 रु. देकर इनसे जबरदस्ती यह काम करवाया जाता है और पकड़े जाने के डर से इन बच्चों की फर्जी मां को जो वास्तव में इस रैकेट के लोगों के लिए नौकरानी का काम करती हैं, 5000 रु. तक देते हैं.
अभी कुछ दिनों पहले फेमस अमेरिकी सिंगर इआन वाटकिंस को चाइल्ड सेक्सुअल एब्यूज के केस में जेल की सजा हुई. बाद में पता चला कि सिंगर इआन वाटकिंस फिडोफाइल का केस है. फिडोफाइल वैसे सेक्सुअल एब्यूज मामलों को कहा जाता है जिनमें लोग बच्चों के लिए सेक्सुअली आकर्षित होते हैं. एक घिनौनी हकीकत और…….कई लोगों का मानना है कि वर्जिन से सेक्स करने से एचआईवी एड्स और कई बड़ी बीमारियां ठीक होती हैं. क्योंकि 8 से 11 साल के बच्चे वर्जिन होते हैं इसलिए भी फीडोफाइल जैसे कई मामले होते हैं जहां एड्स या कई बड़ी बीमारियों के लिए इन बच्चों को यूज करते हैं. दिल दहला देने वाले ऐसे मामले पूरी दुनिया में सामने आ रहे हैं जिनमें ज्यादातर धनाढ्य और हाई सोसाइटी के बड़े लोग, यहां तक कि सेलिब्रिटी शामिल होते हैं. सिंगर इआन वाटकिंस से बहुत पहले माइकल जैक्सन का केस याद होगा आपको. हम खुश हो सकते हैं कि ऐसे मामले भारत में कम हैं लेकिन न हम निठारी कांड को भूल सकते हैं और न ही गोवा में धड़ल्ले से फलते-फूलते इस फिडोफाइल रैकेट को.
सबसे चौंकाने वाली बात है यहां की पुलिस! विदेशियों के अलावे कई देशी लोग भी यहां खुलेआम इन बच्चों के साथ रहते हैं. बच्चों की सप्लाई के लिए यहां कई फिडोफाइल रैकेट हैं जो खुलेआम होटलों, बाइक्स, कारों या जहां भी डिमांड हो, बच्चे पहुंचा देते हैं. पुलिस इनके लिए कोई डर वाली बात नहीं क्योंकि अक्सर ये पुलिस वालों को भी पैसे देकर या अगर उनकी डिमांड हुई तो उन्हें भी ऐयाशी के लिए फ्री में बच्चे पहुंचाकर मिला लेते हैं. कई मामले तो ऐसे भी होते हैं जिनमें रैकेट की सांठगांठ पॉलिटिशियन तक से होती है.
चौंका देने वाली ये घिनौनी और डरावनी बातें हालांकि हमारे लिए बहुत नई हैं लेकिन गोवा जैसी जगहों के लिए यह बहुत छोटी बात है. 1996 में यहां फ्रेडी पीट्स का पहला पीडोफाइल मामला सामने आया था जिसने यहां विदेशियों के एंटरटेनमेंट के लिए ऐसी बातें सामने आईं. सरकारी स्तर पर इसके लिए कानून भी बना लेकिन तब से लेकर आज तक इसमें कमी आने की बजाय न सिर्फ पीडोफाइल मामले बढ़े बल्कि पीडोफाइल रैकेट भी बढ़ गए और आज खतरनाक स्थिति तक पहुंच गए हैं.
शिक्षा से लेकर सामाजिक चिंतन, आर्थिक से लेकर अपने अधिकारों की रक्षा तक हर जगह महिला का स्वयं के लिए और समाज का इनके प्रति नजरिए में बदलाव आया है. परिवार से आगे आकर महिलाएं व्यवस्थापक की भूमिका तक भी पहुंच चुकी हैं. संसद में 33 प्रतिशत आरक्षण इनकी इन नई बदलती भूमिकाओं को ही इंगित करता है. लेकिन इसके साथ ही कई अन्य नई समस्याएं भी सामने आई हैं. महिलाओं के विरुद्ध हिंसा के रूप में बलात्कार, यौन शोषण जैसे मामले अब बड़ी संख्या में सामने आने लगे हैं. लेकिन महिलाओं का एक वर्ग ऐसा भी है जो पुरुषों का सहारा लेकर महिला होने का फायदा उठाकर आगे बढ़ना चाहता है. इसमें सामाजिक मान्यताएं और मूल्य को वह कहीं पीछे छोड़ चुकी होती हैं और अपना हित न सध पाने की स्थिति में वे इन पुरुषों को सबक सिखाने के लिए अपनी ‘महिला छवि’ का ही इस्तेमाल करती हैं. हालांकि यह वर्ग बहुत छोटा और सिमटा हुआ है लेकिन महिलाओं की अस्मिता पर प्रशनचिह्न जरूर लगा जाता है. महिलाओं के विरुद्ध यौन-शोषण, यौन हिंसा जैसे मामलों में महिलाओं की स्थिति आज संदेह की नजर से देखी जाने लगी है. पहले जहां ऐसे मामले महिला अधिकारों और उनकी सुरक्षा को लेकर अति गंभीर माने जाते थे, आज स्थिति यह है कि उन मामलों में महिलाओं की सुरक्षा की बात से पहले उनके चरित्र की बात आ जाती है.
गत दिनों महिलाओं को लेकर फारुख अब्दुल्ला का एक बयान खासा विवादित रहा. फारुख का कहना था कि उन्हें अब महिलाओं के नाम से ही डर लगता है. इसलिए अब वे महिला सेक्रेटरी रखने से डरने लगे हैं कि क्या जाने कब वे शोषण का इल्जाम लगा दें और उनकी छवि खराब हो जाए. कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री और वर्तमान मुख्यमंत्री उमर अब्दुला के पिता के रूप में भी कश्मीर की राजनीति में एक उल्लेखनीय स्थान रखने वाले फारुख अब्दुला का यह बयान निश्चय ही महिलाओं के लिए उनकी सोच को इंगित करता है. भले ही यह उनकी व्यक्तिगत सोच हो लेकिन कानून बनाने की भूमिका निभाने वाले की सोच सिर्फ व्यक्तिगत नहीं कही जा सकती. कहीं न कहीं यह व्यवस्था की धारा तय करती है. समाज में इन्हें व्यवस्थापक के साथ विश्लेषक की नजर से भी देखा जाता है. इनका बयान कई जगह समाज में पुरुषों की सोच का परिचायक बन सकता है.
लड़की औरत कब बने?
उल्लेखनीय है कि हाल ही में महिला यौन शोषण के दो बड़े मामले ‘जज-इंटर्न प्रकरण’ और ‘तहलका प्रकरण’ मीडिया में खासा चर्चित रहा. पहले ये दोनों घटनाएं कॉर्पोरेट जगत में (कार्यस्थल पर उच्च अधिकारियों द्वारा) महिला-शोषण की एक और कहानी के रूप में प्रचारित हुईं. फिर महिलाओं के चरित्र पर बात उठ आई. मुद्दा उठा कि दोनों ही प्रकरण में महिलाएं वर्तमान में शोषित होने की शिकायत न कर पूर्व में हुए शोषण की बात कर रही थीं, तो शिकायत में इतना लंबा वक्त क्यों? सवाल यह उठा कि कहीं यह इन महिलाओं की हित-साधने का चरित्र तो नहीं था? सवाल एक बार को सोचनीय है. हम यहां इस पर बहस नहीं कर रहे. यहां सवाल यह उठता है कि ऐसे मामलों को आधार बनाकर किसी राज्य के सम्मानित राजनीतिज्ञ का समूल महिला जाति के चरित्र पर सवाल उठाता बयान क्या उचित है?
बदलाव के साथ खूबियां और खामियां दोनों ही जुड़े होते हैं. भारतीय समाज में महिलाओं की बदलती स्थिति को लेकर भी हालात कुछ ऐसे ही हैं. खासकर यौन-शोषण आज एक ऐसा मुद्दा है जिससे सिर्फ महिला नहीं बल्कि आज पुरुष समुदाय भी पीड़ित है. बच्चों के प्रति यौन-हिंसा के मामले इसका एक अलग ही रूप है. लेकिन हर स्थिति के अपने पहलू हैं. हर एक का अपना पक्ष है. जहां तक महिलाओं द्वारा यौन-शोषण को लेकर पुरुषों का दोहन करने का सवाल है, इसके भी अपने तर्क, अपने पक्ष-विपक्ष हैं. इसका निष्पक्षता से आंकलन किया जाना चाहिए. लेकिन इसे मानक मानकर महिलाओं को मुख्य धारा से अलग नहीं किया जा सकता. फारुख अब्दुल्ला का बयान कुछ ऐसा ही है. अगर एक व्यवस्थापक महिलाओं के संबंध में ऐसे विचार रखता है निश्चय कहीं न कहीं महिलाओं की व्यवस्था में भूमिका घटाने की ओर यह एक इशारा माना जाएगा. कहीं न कहीं महिलाओं की भूमिका को निष्पक्ष मानने से भी यह इनकार करता है जो हर हाल में निंदनीय है.
किसी भी रूप में ‘शोषण’ निंदनीय है. यह समाज के मानकों के खिलाफ है. सभ्य और स्वस्थ समाज के नियमों का उल्लंघन है. इसके लिए जो भी जिम्मेदार हो समाज और कानून दोनों ही जगह उसे उचित सजा दिए जाने का प्रावधान है. महिला-यौन-शोषण और यौन-शोषण के नाम पर पुरुषों का दोहन दोनों ही अपराध की श्रेणी में आते हैं. लेकिन दोनों ही स्थितियों के लिए न समाज ने आज तक कभी पुरुषों का बहिष्कार किया है न इसके लिए कभी महिलाओं का बहिष्कार किया जा सकता है. सच तो यह है कि महिला-पुरुष से बढ़कर यह एक सामाजिक मुद्दा है, सामाजिक मूल्यों के ह्रास का मुद्दा है. महिला-पुरुष दोनों ही समाज के दो मजबूत स्तंभ हैं. इनमें अगर एक भी कमजोर होता है तो समाज का पतन निश्चित है. यह सच है कि बदलाव के बयार के साथ महिलाएं सशक्त हुई हैं. इस सशक्तिकरण के साथ ही कई जगह महिला छवि के नाम पर ये पुरुषों के दोहन से भी नहीं चूकतीं लेकिन इससे महिलाओं का समूल चरित्र चित्रण करना एक और प्रकार का शोषण और समाज के एक महत्वपूर्ण स्तंभ को गिराने की अवांछित कोशिश ही कही जाएगी. इससे बेहतर है कि इन स्थितियों से निपटने के लिए समाज का हर नागरिक (महिला और पुरुष) जागरुक और चरित्रवान हो बजाय कि हो हल्ला मचाकर एक मजबूत होते स्तंभ को गिराने की कोशिश की जाए.
“पापा मेरे साथ कभी नहीं खेलते, वो काम में इतना बिजी रहते हैं कि उनके पास मेरे लिए टाइम ही नहीं है. लेकिन उनके दोस्त मेरे बहुत अच्छे फ्रेंड बन गए हैं. वो मेरे साथ खेलते हैं, मुझे घुमाने ले जाते हैं और घंटों बातें भी करते हैं. वो अंकल बहुत अच्छे हैं, लेकिन अब वो मेरे साथ अजीब सा बिहैव करते हैं. मेरे मना करने पर भी मुझे छूते हैं. मुझे ये सब बिल्कुल नहीं अच्छा लगता, बहुत गंदा-गंदा फील होता है. पर मैं ममी को ये बता भी नहीं सकती, मुझे पता है वो मुझे डांटेंगी.”
ये कहानी है 7 साल की मासूम कोमल की, जिसे बाल शोषण का सामना करना पड़ रहा है और उसका गुनहगार कोई और नहीं, उसके पिता का जिगरी दोस्त है. सिर्फ कोमल ही नहीं देश-विदेश में हजारों ऐसे बच्चे हैं जिन्हें किसी अपने द्वारा शारीरिक रूप से शोषित किया जाता है. वह इस बात को समझ नहीं पाते कि उनके साथ क्या घटित हो रहा है इसलिए सिवाय चुप रहने के उनके पास कोई विकल्प नहीं होता.
जिस इंसान को वो अपना समझकर उसके साथ फ्रेंडली हो जाते हैं वो अच्छे अंकल कब गंदी हरकत पर उतर आएं आप या हम कभी इस बात का अंदाजा नहीं लगा सकते. बच्चे इन सब में खुद को दोषी ठहराते हैं इसलिए वह डर के मारे किसी को कुछ बता नहीं पाते. ऐसे में बच्चों को संभालने, उन्हें समझने का काम अभिभावकों और उनके शिक्षकों का होता है, जिनके हाथ में उनकी खुशहाली और उज्जवल भविष्य की कमान है. बच्चों को गुड टच और बैड टच में अंतर समझाकर, उनकी हर तकलीफ को प्यार से सुनकर और उनके दोषी को सजा दिलवाकर हम बहुत हद तक उनके दुख को कम कर सकते हैं, साथ ही चाइल्ड एब्यूज जैसी घृणित वारदातों से समाज को मुक्त कर सकते हैं.

1 COMMENT

  1. हमारे समाज की ऐसी तस्वीर?
    क्या है कारण कौन हो सकता इस कुत्सित मानसिकता का घटक?
    वाह अनूप जी आपकी मिहनत रंग लायेगीl

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

* Copy This Password *

* Type Or Paste Password Here *

13,676 Spam Comments Blocked so far by Spam Free Wordpress