इच्छा मृत्यु का औचित्य….

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-अनिल अनूप
12 फरवरी, 2014 को बेल्जियम में 18 साल से कम उम्र के बच्चों के लिए अपनी इच्छा से मरना कानूनी तौर पर वैलिड कर दिया गया है. वहां की पार्लियामेंट में इससे संबंधित कानून पारित कर दिए जाने के बाद यह मुद्दा भारत में भी उठने लगा है कि गंभीर रूप से बीमार लोगों को मरने की आजादी मिलनी चाहिए या नहीं?
अपनी इच्छा से मरना कानूनन अपराध है. आत्महत्या इसी श्रेणी में आती है. पर बेल्जियम में 2002 से इच्छा मृत्यु को कानूनन मान्यता मिली हुई है और इस साल 12 फरवरी से अब यहां 18 साल से कम उम्र के बच्चों के लिए भी यह मान्य होगी. यूथेनेसिया या इच्छा मृत्यु पर पिछले कई सालों से बहस होती रही है. भारत और इसके जैसे कई और देशों में भी अपनी इच्छा से मरना कानूनन अपराध है. विश्व में केवल तीन देशों नीदरलैंड, बेल्जियम और लग्जमबर्ग में ही यह मान्य है. स्विट्जरलैंड, तथा कुछ अमेरिकन देशों में यह असिस्टेड सुसाइड के रूप में मान्य है लेकिन बेल्जियम के इस नए कानून के बाद भारत में भी इच्छा मृत्यु या यूथेनेसिया पर अब बहस की खुलकर शुरुआत हो चुकी है.
भारत में भी अरुणा शानबाग और वेंकटेश के केस में इच्छा मृत्यु पर काफी बहस हुई और फाइनली सुप्रीम कोर्ट ने इसे रिजेक्ट कर दिया. वेंकटेश के केस में उसकी मां ने अपने बेटे की इच्छा मृत्यु की याचिका इसलिए दायर की थी क्योंकि वेंकटेश बहुत दर्द में था और मरने ही वाला था लेकिन वह अपने अंगों को दान करना चाहता था. वेंकटेश के शरीर में इंफेक्शन बढ़ता जा रहा था और प्राकृतिक रूप से मरने तक उसके सभी अंग इंफेक्टेड होकर किसी और किसी और शरीर में फिट होने लायक नहीं रहते. बलात्कार पीड़ित नर्स अरुणा भी पिछले 37 सालों से कोमा में थी. उसकी पत्रकार दोस्त ने उसकी इच्छा मृत्यु के लिए याचिका दाखिल की थी. कोर्ट ने हालांकि उसकी याचिका खारिज कर दी लेकिन बाद में बहुत सोच-विचार के बाद पैसिव यूथेनेसिया की इजाजत दी थी जिसमें मरने के लिए जहर न देकर मरीज की सभी सपोर्टिव लाइफलाइन को बंद कर दिया जाता है. अरुणा के केस में भी उसकी दवाइयां, ऑक्सीजन आदि बंद कर दिए गए और तब जाकर कहीं अरुणा को इस दर्दनाक जिंदगी से छुटकारा मिला. पर यह एक बड़ी बहस का विषय है कि इच्छा मृत्यु या यूथेनेसिया को कानूनी मान्यता मिलनी चाहिए या नहीं?
इच्छामृत्यु की मांग – सही या गलत
सभी धर्मों में हत्या को पाप माना गया है. इसलिए प्राकृतिक मौत के अलावे दुनिया के लगभग अधिकांश देशों के कानून इच्छा मृत्यु या आत्महत्या को हत्या मानते हुए अपराध मानते हैं. पर इच्छा मृत्यु का समर्थन करने वालों की दलील दूसरी है. कई लोग ऐसे हैं जो जन्मजात अपंग होते हैं, कई किसी दुर्घटना में इतनी बुरी हालत में पहुंच जाते हैं कि उनके लिए जीना-मरना एक ही बराबर होता है. कैंसर के अंतिम स्टेज में, कोमा में सालों तक रह रहे मरीजों के लिए जीना मरने के बराबर होता है. हर दिन उनके लिए मरने से कम नहीं होता. ऐसे लोग भयानक दर्द में जीने के लिए मजबूर होते हैं और हर दिन मौत का इंतजार करते हैं. यूथेनेसिया या इच्छा मृत्यु की पैरवी करने वाले एनजीओ या इसे कानूनन अपराध से हटाए जाने की मांग करने वाले लोग इसी दर्द से मरीजों को मुक्ति देने हुए इच्छा मृत्यु की आजादी देने की मांग करते हैं.
डच कानून में जहां यूथेनेसिया को कानूनी मान्यता दी जा चुकी है वहां इच्छा मृत्यु के लिए यह कंडीशन है कि अगर मरीज बहुत अधिक दर्द में हो और डॉक्टर आगे उसकी हालत में सुधार नहीं होने की बात कहते हैं तो ऐसी स्थिति में वह अपनी इच्छा से जहर पीकर या डॉक्टर द्वारा जहरीला इंजेक्शन लेकर मर सकता है. बेल्जियम में अभी बच्चों की इच्छा मृत्यु से उम्र की सीमा हटाने के बाद यह विरोध उठा कि बच्चों को इसकी समझ नहीं होती कि मरना क्या होता है लेकिन बेल्जियम कानून साफ कहता है कि जिस भी बच्चे के लिए यह अपनाया जाएगा उसके डॉक्टर, साइकियाट्रिस्ट, पेरेंट्स की परमिशन के साथ बच्चे की खुद की लिखी हुई एप्लिकेशन भी कम से कम दो बार दी जानी चाहिए ताकि यह साफ हो कि बच्चे को इसकी समझ है कि वह क्या करना चाहता है.
इसलिए अब बेल्जियम के बाद भारत में भी यह बहस तेज हो रही है कि मौत से बद्तर जिंदगियों को मरने की आजादी दी जानी चाहिए या नहीं? कहीं अगर मानवीय आधार पर यह अमान्य लगता है तो उसी मानवीय आधार पर यह सही भी लगता है.
‘कॉमन कॉज’ द्वारा दाखिल जनहित याचिका में तर्क दिया गया कि जब चिकित्सा विशेषज्ञों की राय में मरणासन्न मरीज के ठीक होने की बिल्कुल उम्मीद न हो तो उसे तय करने का अधिकार दिया जाए कि वह जीवन रक्षक प्रणाली पर रहना चाहता है या नहीं क्योंकि इससे कहीं न कहीं उसकी पीड़ा बढ़ती है. याचिका 2008 में दाखिल की गई थी और अदालत ने केंद्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय तथा कानून मंत्रालय से इस पर विचार मांगे थे. अतिरिक्त सॉलिसीटर जनरल सिद्धार्थ लूथरा ने याचिकाकर्ता के आग्रह का विरोध करते हुए कहा था कि जनिहत याचिका में किया गया आग्रह कानून में मान्य नहीं है और न्यायिक कवायद के जरिये इसकी अनुमति नहीं दी जा सकती.
निश्चय ही मृत्यु की मांग जटिल प्रश्न है? इसे यह कहकर खारिज किया जा सकता है कि जो चीज मनुष्य दे नहीं सकता, उसे छीनने का अधिकार उसे नहीं है. एक डर यह भी है इच्छामृत्यु (युथनेशिया) की इजाजत मिलने पर आत्महत्या के इच्छुक लोग इसकी आड़ में जिंदगी खत्म कर सकते हैं. मेडिकल साइंस भी कोमा में पड़े लोगों के कभी भी होश में आने की संभावना से पूरी तरह इनकार नहीं करता, इन तर्कों के बावजूद वे लोग, जिनके लिए मृत्यु का अर्थ मरना नहीं, कष्टकर और असाध्य स्थितियों से छुटकारा पाना है, मौत को समाधान की तरह देखते हैं.
किसी बीमारी के ठीक नहीं होने और उसके कारण भयानक पीड़ा की दशा में कुछ देशों में लोगों को इसका अधिकार मिला है.
जैसे स्विटजरलैंड में आत्महत्या जुर्म है, पर लाइलाज बीमारी वाली दशा में डॉक्टर की मदद से हासिल मृत्यु की इजाजत 1942 से लागू है. स्विटजरलैंड के अलावा भी कई देशों में सहज मृत्यु की जरूरत के बारे में समझ कायम हुई है. कई देशों में कड़ी निगरानी के तहत इसकी छूट दी गई है. जैसे नीदरलैंड में डॉक्टरों की मदद से दी गई मृत्यु वैध है. अमेरिका में इस मुद्दे पर हुई वोटिंग के आधार पर वहां के 15 राज्यों में असिस्टेंड सुसाइड के रूप में इसे वैधता देने की कोशिश की गई, हालांकि अभी ओरेगांव के सिवा कहीं और यह वैध नहीं है. ओरेगांव में सम्मानजनक मृत्यु से संबंधित अधिनियम 1997 से लागू है. अमेरिका के न्यू हैंपशायर में इसके लिए बिल लाया गया था. अल्बानिया और लग्जमबर्ग में भी युथनेसिया को कानूनन सही माना गया है. ऑस्ट्रेलिया के एक प्रांत (नार्दर्न टेरीटरी) में 1995-1997 के बीच इसकी इजाजत थी.
मामला सिर्फ कानूनी अधिकार का ही नहीं बल्कि जनमत का भी है. कई देशों का समाज इसका हामी है कि असाध्य बीमारी अथवा दशकों तक कोमा जैसी स्थितियों में इच्छा मृत्यु यंतण्रा से मुक्ति का रास्ता है. हमारे समाज में परंपरा के रूप में स्वेच्छा मृत्यु का एक स्वरूप पहले से मौजूद है. जैसे हिंदू धर्म में समाधि और जैन धर्म में संथारा की परंपरा. इनके तहत स्वस्थ व्यक्ति तक स्वेच्छा से मृत्यु का वरण कर सकता है.
बहरहाल, भारत में कानून इसके आड़े आ रहा है. अरुणा शानबाग से पहले जयपुर में 79 वर्षीय गिरिराज प्रसाद गुप्ता की ओर से राजस्थान हाई कोर्ट से इच्छामृत्यु के लिए इजाजत मांगी गई थी. दलील दी थी कि वह एक दर्जन असाध्य रोगों से पीड़ित हैं, हालांकि उनके परिवार वाले उनकी देखभाल में सक्षम थे, पर उनके लिए इच्छामृत्यु की मांग इसलिए थी कि बिस्तर पर पड़े रहकर मरने की अपेक्षा वह सम्मानजनक मृत्यु चाहते हैं.
हालांकि कई डॉक्टर मानते हैं कि जरूरी नहीं कि वर्षो से बिना कोई हरकत किए बिस्तर पर पड़े व्यक्ति को मौत की नींद सुलाने का इंतजाम किया जाए क्योंकि कुछ वर्ष पहले जर्मनी में 26 सालों से निस्पंद पड़े एक मरीज ने एक कम्युनिकेटर के जरिए संदेश दिया कि ढाई दशक के इस अरसे में उससे जो कहा गया, या जो उसके आसपास घटित हुआ, उसे सबका अहसास है. इसी तरह जब कोई व्यक्ति आर्थिक विवशता, शारीरिक अपंगता और इस कारण पैदा हुए मानिसक दबाव में जिंदगी खत्म करने को बाध्य हो तो इसे सम्मानजनक मृत्यु नहीं कह सकते. उल्लेखनीय है कि तेजाबी हमले से झुलसी झारखंड की एक महिला की इच्छा मृत्यु की मांग कोर्ट ने नहीं मानी.
इन संभावनाओं और आशंकाओं के मद्देनजर कहा जा सकता है कि शायद इस बारे में समाज और कानून की राय में कभी समानता कायम नहीं हो पाए. ज्यादा अच्छा तो यह होगा कि ऐसे मामलों में डॉक्टर तय करें कि उस व्यक्ति के बचने और जीवन में लौटने की संभावना शेष है या नहीं. दूसरे इस काम को कोर्ट पर छोड़ने के बजाए संसद में स्पष्ट कानून बने ताकि कोई दुविधा शेष न रहे.

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