कुछ नया करने की चाह में,
अपनी ही कविताओं के,
अंग्रेज़ी में अनुवाद कर डाले,
या उन्हे ही उलट पलट कर,
दोहे कुछ बना डाले।
जो कल नया था आज पुराना सा
लगने लगा है अब…..
तो सोचा…..
आज कुछ नया ही लिख दूँ।
रोज़ होते रहे बलात्कार,
उनपर टीका टिप्पणी
और विश्लेषण तो अब बहुत
तो सोचा………
वहशियों के नाम सज़ाये मौत आज लिख दूँ!
सड़क पर रोज़ होते हादसों में ,
शराब का हाथ है लिख दूँ,
या कार में लगी ज़रा सी खरोंच पर,
हुई हिंसा की वारदात पर कुछ लिखदूँ
रोज़ छोटी छोटी बातों पर,
हो जाते हैं क़त्ल अब यहाँ,
तो सोचा,
ख़ून से लथ-पथ अख़बार पर ही कुछ लिख दूँ!
सत्ता के लिये पारिवारिक युद्ध,
कोई नई बात नहीं है,
लोकतंत्र मे वँशवाद ने ज़ड़े,
पकड़ ली हैं,
परिवार का टूटना भी कोई पुरानी बात हो गई
तो सोचा,
बाप बेटे की तकरार पर कुछ ही लिखदूँ।
नोटबंदी पर जनता की त्रासदी
तो देखी है परन्तु
नोटबंदी का अर्थशास्त्र ,
समझसे बाहर होगया,
तो सोचा,
रोज़ पकड़े जा रहे ,
नये नोटों परही कुछ लिख दूँ!
पुस्तक मेले में साहित्यकार और प्रकाशक,
विचर रहे हैं,
सभी अपनी किताबों को बेचने में लगे हैं,
कई तो चार पाँच किताबों के साथ,
प्रगति मैदान में उतरे हैं।
तो सोचा……..
साहित्यकारों की प्रतिस्पर्द्धा पर ही कुछ लिख दूँ!
फ़ेसबुक पर रोज़ नये सहित्यकार
उदित होने लगे हैं अब,
एक ही दिन में बीस तीस रचनायें,
पोस्ट करके नये आयाम बने हैं,
कुछ राजनीति दलों के प्रति,
अपनी वफादारी सिद्ध करने में लगे हैं।,
कुछ पर्यटन के चित्र चिपकाके ही,
ख़ुश हो रहे है अब,
मैं आज यही सोचने मे लगी हूँ
कि आज कुछ नया अच्छा सा लिख दूँ!
आज बहुत समय के बाद इ-कविता पर आया तो आपकी इ मेल देखी और यहाँ प्रवक्ता पर आपकी रचना पढ़ने आया। रचना में नयापन अच्छा लगा। बधाई।
सचमुच एक नयापन है,इसमे.अच्छी सामयिक कविता.
Nice poem .