समस्त पापनाशक व सुख -समृद्धि प्रदायक पापमोचनी एकादशी

पापमोचनी एकादशी
पापमोचनी एकादशी

अशोक “प्रवृद्ध”

संसार के सभी व्यक्तियों से कभी न कभी जाने अनजाने में पाप कर्म हो ही जाता है और प्रायः सभी व्यक्ति पापकर्म के फल से डरते हैं , इसीलिए पाप के नाश और जीवन में सुख- समृद्धि की प्राप्ति के लिए प्रत्येक मनुष्य ईश्वर की शरण में जाकर भक्ति भाव से उपासना -आराधना करते हुए पाप कर्मों के नाश व कृत पापकर्म की क्षमा मांगने का कोई न कोई यत्न अवश्य ही करता है । पौराणिक मान्यतानुसार भारतीय समाज में प्रत्येक माह के दोनों पक्षों में पड़ने वाली एकादशी तिथियों का अपना विशेष सांस्कृतिक महत्व है और समस्त एकादशी तिथि अपने विविध प्रभावों व आध्यात्मिक महत्व के लिए प्रसिद्ध व उस तिथि से सम्बन्धित व्रत के लिए लोकख्यात हैं । मनुष्य के समस्त पापों के नाश और सुख- समृद्धि के प्राप्ति हेतु पाप मोचनी एकादशी व्रत किये जाने की प्राचीन पौराणिक परिपाटी भी भारत में प्रचलित है । पौराणिक ग्रन्थों के अनुसार चैत्र कृष्ण पक्ष की एकादशी को पापमोचनी एकादशी कहा जाता है और पापमोचनी एकादशी का अर्थ है पाप को नष्ट करने वाली एकादशी। इस दिन निंदित कर्म तथा मिथ्या भाषण सर्वथा वर्जित हैं , अर्थात नहीं करना चाहिए। लोक मान्यतानुसार चैत्र कृष्ण पक्ष की एकादशी तिथि को व्रत करने से समस्त पापों का नाश होता है और जीवन में सुख-समृद्धि प्राप्त होती है। एकादशी तिथि को जागरण करने से कई गुणा पुण्य मिलता है। यही कारण है कि एकादशी तिथि को रात्रि में भी निराहार रहकर भजन- कीर्तन करते हुए जागरण करने की प्राचीन परम्परा आज भी भारत में अनवरत जारी है ।मान्यतानुसार इस व्रत को करने से ब्रह्महत्या, स्वर्णचोरी, मद्यपान, अहिंसा, अगम्यागमन, भ्रूणघात आदि अनेकानेक घोर पापों के दोषों से मुक्ति मिल जाती है , जैसा कि इसके नाम से ही स्पष्ट है ।

 

समस्त पापनाशक व सुख -समृद्धि प्रदायक पाप मोचनी एकादशी के विषय में भविष्योत्तर पुराण में विस्तार से वर्णन अंकित है। भविष्योत्तर पुराण के अनुसार इस व्रत में भगवान विष्णु के चतुर्भुज रूप की पूजा की जाती है। व्रती को दशमी तिथि को एक बार सात्विक भोजन करना चाहिए और मन से भोग विलास की भावना को निकालकर हरि में मन को लगाना चाहिए । एकादशी के दिन सूर्योदय काल में स्नान करके व्रत का संकल्प करना चाहिए और संकल्प के उपरान्त षोड्षोपचार सहित श्री विष्णु की पूजा करने से उतम फल की प्राप्ति होती है। तत्पश्चात धूप, दीप, चंदन आदि से नीराजन करना चाहिए। पूजा के पश्चात भगवान के समक्ष बैठकर भगवद कथा का पाठ अथवा श्रवण करना चाहिए । एकादशी के दिन भिक्षुक, बन्धु-बान्धव तथा ब्राह्मणों को भोजन दान देना फलदायी होता है। इस व्रत के करने से समस्त पापों का नाश होता है और सुख-समृद्धि प्राप्त होती है। एकादशी तिथि को रात्रि में भी निराहार रहकर भजन कीर्तन करते हुए जागरण करने से कई गुणा पुण्य मिलता है । द्वादशी के दिन प्रात: स्नान करके विष्णु भगवान की पूजा कर और फिर ब्रह्मणों को भोजन करवाकर दक्षिणा सहित विदा करने के पश्चात ही स्वयं भोजन करने का विधान भविष्योत्तर पुराण में किया गया है । मान्यतानुसार जो कलि में एकादशी की रात में जागरण करते समय वैष्णव शास्त्र का पाठ करता है, उसके कोटि जन्मों के किये हुए चार प्रकार के पाप नष्ट हो जाते हैं । जो एकादशी के दिन वैष्णव शास्त्र का उपदेश करता है, उसे शिव का भक्त जानना चाहिए । जिसे एकादशी के जागरण में निद्रा नहीं आती तथा जो उत्साहपूर्वक नाचता और गाता है, उसे शिव भी विशेष भक्त मानते हैं । शिव उसे उत्तम ज्ञान देते हैं और सब धर्मों के ज्ञाता, वेद और शास्त्रों के अर्थज्ञान में पारंगत, सबके हृदय में रमण करनेवाले श्रीविष्णु भगवान मोक्ष प्रदान करते हैं । पौराणिक ग्रन्थों के अनुसार जो एकादशी के दिन ॠषियों द्वारा बनाये हुए दिव्य स्तोत्रों से, ॠग्वेद , यजुर्वेद तथा सामवेद के वैष्णव मन्त्रों से, संस्कृत और प्राकृत के अन्य स्तोत्रों से व गीत वाद्य आदि के द्वारा भगवान विष्णु को सन्तुष्ट करता है उसे भगवान विष्णु भी परमानन्द प्रदान करते हैं ।पौराणिक उक्ति है-

य: पुन: पठते रात्रौ गातां नामसहस्रकम् ।

द्वादश्यां पुरतो विष्णोर्वैष्णवानां समापत: ।

स गच्छेत्परम स्थान यत्र नारायण: त्वयम् ।

अर्थात -जो एकादशी की रात में भगवान विष्णु के आगे वैष्णव भक्तों के समीप गीता और विष्णुसहस्रनाम का पाठ करता है, वह उस परम धाम में जाता है, जहाँ साक्षात् भगवान नारायण विराजमान हैं ।

 

एकादशी व्रत की महिमा का बखान करते हुए पुराणों में कहा है कि पुण्यमय भागवत तथा स्कन्दपुराण भगवान विष्णु को प्रिय हैं । मथुरा और व्रज में भगवान विष्णु के बालचरित्र का जो वर्णन किया गया है, उसे जो एकादशी की रात में भगवान केशव का पूजन करके पढ़ता है, उसे विशेष पुण्य प्राप्त होता है । भगवान के समीप गीत, नृत्य तथा स्तोत्रपाठ आदि से जो फल होता है, वही कलि में श्रीहरि के समीप जागरण करते समय विष्णुसहस्रनाम, गीता तथा श्रीमद्भागवत का पाठ करने से सहस्र गुना होकर मिलता है । जो श्रीहरि के समीप जागरण करते समय रात में दीपक जलाता है, उसका पुण्य सौ कल्पों में भी नष्ट नहीं होता । जो जागरणकाल में मंजरीसहित तुलसीदल से भक्तिपूर्वक श्रीहरि का पूजन करता है, उसका पुन: इस संसार में जन्म नहीं होता । स्नान, चन्दन , लेप, धूप, दीप, नैवेघ और ताम्बूल यह सब जागरणकाल में भगवान को समर्पित किया जाय तो उससे अक्षय पुण्य होता है । एकादशी की रात्रि में श्रीहरि के समीप भक्तिपूर्वक जागरण जो लोग करते हैं उनके शरीर में इन्द्र आदि देवता आकर स्थित होते हैं । जो जागरणकाल में महाभारत का पाठ करते हैं, वे उस परम धाम में जाते हैं जहाँ संन्यासी महात्मा जाया करते हैं । जो उस समय श्रीराम का चरित्र, दशकण्ठ वध पढ़ते हैं वे योगवेत्ताओं की गति को प्राप्त होते हैं । जिन्होंने श्रीहरि के समीप जागरण किया है, उन्होंने चारों वेदों का स्वाध्याय, देवताओं का पूजन, यज्ञों का अनुष्ठान तथा सब तीर्थों में स्नान कर लिया । श्रीकृष्ण से बढ़कर कोई देवता नहीं है और एकादशी व्रत के समान दूसरा कोई व्रत नहीं है । जहाँ भागवत शास्त्र है, भगवान विष्णु के लिए जहाँ जागरण किया जाता है और जहाँ शालग्राम शिला स्थित होती है, वहाँ साक्षात् भगवान विष्णु उपस्थित होते हैं ।

 

पापमोचनी एकादशी के सन्दर्भ में एक पौराणिक कथा प्रचलित है । कथा के अनुसार महाराज युधिष्ठिर के द्वारा चैत्र मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी के सम्बन्ध में पूछे जाने पर भगवान श्रीकृष्ण ने चैत्र मास के कृष्णपक्ष की एकादशी के नाम , व्रत विधि व महिमा के बारे में जानकारी देते हुए चक्रवर्ती नरेश मान्धाता के पूछने पर महर्षि लोमश के द्वारा बताई गई पापनाशक उपाख्यान सुनाई । कथा के अनुसार प्राचीन काल में चैत्ररथ नामक अति रमणीक वन में च्यवन ऋषि के पुत्र मेधावी नामक नामक ऋषि तपस्या करते थे। इसी वन में देवराज इंद्र गंधर्व कन्याओं, अप्सराओं तथा देवताओं सहित स्वच्छन्द विहार करते थे। ऋषि शिव भक्त तथा अप्सराएं शिवद्रोही कामदेव की अनुचरी थी। एक समय की बात है कामदेव ने मेधावी मुनि की तपस्या को भंग करने के लिए मंजुघोषा नामक अप्सरा को भेजा। मंजुघोषा मुनि के भय से आश्रम से एक कोस दूर ही ठहर गयी और सुन्दर ढंग से वीणा बजाती हुई मधुर गीत गाने लगी । मुनिश्रेष्ठ मेघावी के कानों तक भी यह आवाज पहुँची और घूमते हुए वे उधर जा निकले और उस सुन्दर अप्सरा को इस प्रकार गान करते देख बरबस ही मोह के वशीभूत हो गये । मंजुघोषा ने अपने नृत्य-गान और हाव-भाव से ऋषि का ध्यान भंग किया। अप्सरा के हाव-भाव और नृत्य गान से ऋषि उस पर मोहित हो गए। । मुनि की ऐसी अवस्था देख मंजुघोषा उनके समीप आयी और वीणा नीचे रखकर उनका आलिंगन करने लगी । मेघावी भी उसके साथ रमण करने लगे । रात और दिन का भी उन्हें भान न रहा । इस प्रकार दोनों ने अनेक वर्ष साथ-साथ व्यतीत किये । एक दिन जब मंजुघोषा ने देवलोक जाने के लिए आज्ञा माँगी तो ऋषि को आत्मज्ञान हुआ। उन्होंने समय की गणना की तो मंजुघोषा के साथ उनके 57 वर्ष व्यतीत हो चुके थे। ऋषि को अपनी तपस्या भंग होने का भान हुआ। उन्होंने अपने को रसातल में पहुँचाने का एकमात्र कारण मंजुघोषा को समझकर, क्रोधित होकर उसे पिशाचनी होने का शाप दे दिया। शाप सुनकर मंजुघोषा काँपने लगी और ऋषि के चरणों में गिर पड़ी। काँपते हुए उसने मुक्ति का उपाय पूछा। बहुत अनुनय-विनय करने पर ऋषि का हृदय पसीज गया। उन्होंने उसे उपाय बताते हुए कहा कि चैत्र कृष्ण पापमोचनी एकादशी का विधिपूर्वक व्रत करने से तुम्हारे पाप और शाप समाप्त दोनों ही हो जाएंगे और तुम पुन: अपने पूर्व रूप को प्राप्त करोगी। मंजुघोषा को मुक्ति का विधान बताकर मेधावी ऋषि अपने पिता महर्षि च्यवन के पास पहुँचे। शाप की बात सुनकर च्यवन ऋषि ने कहा-पुत्र यह तुमने अच्छा नहीं किया। शाप देकर स्वयं भी पाप कमाया है। अत: तुम भी चैत्र कृष्णपक्ष में पापमोचनी एकादशी का व्रत करो। पापमोचनी एकादशी का व्रत करने पर पापराशि का विनाश हो जायेगा । पिता का यह कथन सुनकर मेघावी ने उस व्रत का अनुष्ठान किया । इससे उनका पाप नष्ट हो गया और वे पुन: तपस्या से परिपूर्ण हो गये । इसी प्रकार मंजुघोषा ने भी इस उत्तम व्रत का पालन किया । पापमोचनी का व्रत करने के कारण वह पिशाचयोनि से मुक्त हुई और दिव्य रुपधारिणी श्रेष्ठ अप्सरा होकर स्वर्गलोक में चली गयी ।भगवान श्रीकृष्ण ने व्रत की सम्पूर्ण विधि-विधान का वर्णन करते हुए कहा कि जो श्रेष्ठ मनुष्य पापमोचनी एकादशी का व्रत करते हैं उनके सारे पाप नष्ट हो जाते हैं । इसको पढ़ने और सुनने से सहस्र गौदान का फल मिलता है । ब्रह्महत्या, सुवर्ण की चोरी, सुरापान और गुरुपत्नीगमन करनेवाले महापातकी भी इस व्रत को करने से पापमुक्त हो जाते हैं । यह व्रत बहुत पुण्यमय है ।

 

 

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अशोक “प्रवृद्ध”
बाल्यकाल से ही अवकाश के समय अपने पितामह और उनके विद्वान मित्रों को वाल्मीकिय रामायण , महाभारत, पुराण, इतिहासादि ग्रन्थों को पढ़ कर सुनाने के क्रम में पुरातन धार्मिक-आध्यात्मिक, ऐतिहासिक, राजनीतिक विषयों के अध्ययन- मनन के प्रति मन में लगी लगन वैदिक ग्रन्थों के अध्ययन-मनन-चिन्तन तक ले गई और इस लगन और ईच्छा की पूर्ति हेतु आज भी पुरातन ग्रन्थों, पुरातात्विक स्थलों का अध्ययन , अनुसन्धान व लेखन शौक और कार्य दोनों । शाश्वत्त सत्य अर्थात चिरन्तन सनातन सत्य के अध्ययन व अनुसंधान हेतु निरन्तर रत्त रहकर कई पत्र-पत्रिकाओं , इलेक्ट्रोनिक व अन्तर्जाल संचार माध्यमों के लिए संस्कृत, हिन्दी, नागपुरी और अन्य क्षेत्रीय भाषाओँ में स्वतंत्र लेखन ।

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