भारतीय इतिहास के एक स्वर्णिम अध्याय का नाम है वीर सावरकर…….

आज की युवा पीढ़ी जाग गई है, अब उसे छला नहीं जा सकता, उसे अंधेरे में नहीं रखा जा सकता है। अब युवा पीढ़ी ने स्वयं नया इतिहास लिखना शुरू कर दिया है। उस नए इतिहास के एक स्वर्णिम अध्याय का नाम है वीर सावरकर। जिसके भाई को जेल भेज दिया गया हो, पत्नी और भाभी बेघर हो गईं हो, ससुर की नौकरी छीन ली गई हो, वह इन मुसीबतों में भी अपने लक्ष्य से पीछे नहीं हटा, बल्कि मुसीबतों के पहाड़ को चीरता चला गया। उस त्याग , समर्पण और राष्ट्रभक्त का नाम है सावरकर। सावरकर आजीवन क्रांतिकारी थे। ऐसे बहुत कम देखने को मिलता है कि जितनी ज्वाला तन में हो उतना ही उफान मन में भी हो, जिसके कलम में चिंगारी हो और उसके कार्यों में भी क्रांति की अग्नि धधकती हो। वीर सावरकर ऐसे महान सपूत थे जिनकी कविता भी क्रांति मचाती थी और वह स्वयं भी क्रांतिकारी थे। उनमें तेज भी था, तप भी था और त्याग भी था। 27 फरवरी 1966 को द टाइम्स ऑफ इंडिया ने वीर सावरकर के निधन के बाद अपने संपादकीय में लिखा था – “विनायक दामोदर सावरकर अपनी अंतिम सांस तक क्रांतिकारी थे। इतिहास हमेशा उन्हें एक विलक्षण भारतीय के रूप में सलामी देगा। एक ऐसा व्यक्ति जिसका इतने उतार चढ़ाव के बाद भी देश के प्रति अटूट विश्वास बना रहा। उनका जीवन एक महागाथा की तरह है। उनकी कथनी और करनी में समानता थी। भारतीय सीमाओं की सुरक्षा के प्रति उनका उल्लेखनीय योगदान रहा। उनकी निर्भीक आत्मा आनेवाली पीढ़ियों को हमेशा झकझोरती रहेगी।” वीर सावरकर का जन्म 28 मई 1883 को नासिक में हुआ था। वे अपने माता- पिता की चार संतानों में से एक थे। उनके पिता दामोदर पंत शिक्षित व्यक्ति थे। वे अंग्रेजी के अच्छे जानकार थे। लेकिन वे अपने बच्चों को अंग्रेजी के साथ – साथ रामायण, महाभारत, महाराणा प्रताप, वीर शिवाजी आदि महापुरूषो के प्रसंग भी सुनाया करते थे। सावरकर अल्प आयु से ही निर्भीक होने के साथ – साथ बौद्धिक रूप से भी संपन्न थे। उनकी पहली कविता मात्र दस वर्ष की आयु में प्रकाशित हुई थी। राष्ट्रीय एकता और अखंडता की भावना उनके रोम – रोम में भरी थी। उनके अदम्य साहस और समर्पण की भावना से अंग्रेजी शासन हिल गया था। सावरकर पहले भारतीय थे जिन्होंने विदेशी कपड़ो की होली जलाई थी। सावरकर को किसी भी कीमत पर अंग्रेजी दासता स्वीकार नहीं थी। वे हमेशा अंग्रेजों का प्रतिकार करते रहे। उन्होंने इंग्लैंड के राजा के प्रति वफादारी की शपथ लेने से मना कर दिया था। फलस्वरूप उन्हें वकालत करने से रोक दिया गया। 24 साल की आयु में सावरकर ने इंडियन वॉर ऑफ इंडिपेंडेंस नामक पुस्तक की रचना कर ब्रिटिश शासन को झकझोर दिया था। लंदन को बनाया कुरुक्षेत्र और फिर रचा चक्रव्यूह- 1906 में वीर सावरकर कानून की पढ़ाई के लिए लंदन गए। पढ़ाई के लिए लंदन जाना तो उनका बहाना था, उनका असली लक्ष्य देश को आजाद कराना था, वहां रह रहे भारतीयों में जोश भरना था,उनका स्वाभिमान जगाना था। सावरकर ने लंदन में भारतीय युवाओं को एकत्रित किया, आजादी को लेकर रणनीति तैयार की। उन्होंने मैजिनी की आत्मकथा का मराठी में अनुवाद किया और उसकी प्रस्तावना लिखी। उस प्रस्तावना की कॉपी भारत भेजी गयी। उसकी प्रतियों को छपवाने के लिए पैसे कम पड़े तो सावरकर की पत्नी और उनकी भाभी ने अपने गहने बेच दिए। सरकार उस प्रस्तावना को जब्त न कर ले इसलिए हजारों युवाओं ने उसे याद कर लिया और एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुंचाने का कार्य किया। उस प्रस्तावना से अंग्रेजी सरकार हिल गई थी। लंदन में रहते हुए उन्होंने मदनलाल ढींगरा के साथ योजना के तहत बम बनाने की कला सीखी, हथियार एकत्रित किया और फिर स्वाधीनता की चिंगारी सुलगाने का काम किया जिससे अंग्रेजी शासन का संभलना मुश्किल हो गया।

1857 के गदर को बनाया स्वतंत्रता का अमर संग्राम

1907 में जब इस संग्राम के 50 साल पूरे हो रहे थे तब अंग्रेजों ने इस दिन को विजय उत्सव के रुप में मनाया। ब्रिटिश अखबारों में अंग्रेजों की शौर्यता का गुणगान किया गया। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के सेनानियों की निंदा की गई। जगह जगह नाटक का मंचन किया गया। मंगल पांडे, रानी लक्ष्मीबाई आदि स्वतंत्रता सेनानियों को हत्यारा और उपद्रवी बताया गया। क्या हमें अंग्रेजों के दमन को उनके दुष्प्रचार के रुप में स्वीकार कर लेना चाहिए था, क्या हमें अपने वीरों को कायर और हत्यारा बताने वाले अंग्रेजों के इतिहास को स्वीकार कर लेना चाहिए था? अगर नहीं तो इस नहीं की दिशा में सबसे पहला कदम था वीर सावरकर का। सावरकर ने अंग्रेजों की धरती से ही इसका प्रतिकार किया , विरोध किया और इसे भारतीय स्वातंत्र्य समर के उच्च सिंहासन पर प्रतिष्ठित किया। अगर तब सावरकर ने असाधारण प्रयास नहीं किया होता तो आज 1857 महज एक सिपाही विद्रोह के रुप में इतिहास में दर्ज होता। सावरकर ने लंदन में रहते हुए करीब डेढ़ वर्ष तक इंडिया ऑफिस लाइब्रेरी और ब्रिटिश म्यूजियम लाइब्रेरी में दस्तावेजों का अध्ययन किया और 1857 के संग्राम का छिपाया गया सच खोज निकाला। जिसके बाद सावरकर ने1907 में ओ मार्टियर्स के नाम से चार पन्नों का पैंफ्लेट प्रकाशित किया। सावरकर ने लिखा था कि 10 मई 1857 को शुरू हुआ यह युद्ध अभी समाप्त नहीं हुआ है। यह तब तक जारी रहेगा जब तक उस लक्ष्य को पूरा करने वाली कोई तारीख नहीं आएगी। उन्होंने लिखा ‘ओ महान शहीदों’ अपने पुत्रों के इस पवित्र संघर्ष में अपनी प्रेरणादायी उपस्थिति से हमारी मदद करो, हमारे प्राणों में वह जादू फूंक दो जिसने तुमको एकता सूत्र में गूंथ दिया था। सावरकर के इस लेख से अंग्रेजी शासक हिल गया था। ब्रिटिश अखबारों में इस लेख को राजद्रोह और कांतिकारी की चिंगारी सुलगाने वाला बताया था। इस लेख से अंग्रेजी सरकार इतनी हिल गई थी कि सावरकर पर मुकदमा दर्ज किया गया और उन्हें कारावास की सजा सुनाई गई तो इसी चिंगारी भरे पत्र का उल्लेख किया गया। सावकर एक मात्र ऐसे भारतीय थे जिन्हें एक ही जीवन में दो बार आजीवन कारावास की सजा सुनाई गयी थी। काले पानी की कठोर सजा के दौरान सावरकर को अनेक यातनाएं दी गयी। अंडमान जेल में उन्हें छ: महीने तक अंधेरी कोठरी में रखा गया। एक -एक महीने के लिए तीन बार एकांतवास की सजा सुनाई गयी। सात – सात दिनों तक दो बार हथकड़ियां पहनाकर दीवारों के साथ लटकाया गया। इतना ही नहीं सावरकर को चार महीने तक जंजीरों से बांध कर रखा गया। सावरकर जेल में रहते हुए भी स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय रहे। वह जेल की दिवारों पर कोयले से कविता लिखा करते थे और फिर उन कविताओं को याद करते थे। जेल से रिहा होने के बाद सावरकर ने उन कविताओं को पुन: लिखा था। यह भी अजीब विडंबना है कि इतनी कठोर यातना सहने वाले योद्धा के साथ तथाकथित इतिहासकारों ने न्याय नहीं किया। किसी ने कुछ लिखा भी तो उसे तोड़ मरोड़ कर पेश किया। सावरकर आजीवन भारत और भारतीयों को एक सूत्र में बांधने के लिए प्रयास करते रहे। वह किसी भीऊंच-नीच जाति- पंथ के भेदभाव से मुक्त थे। भारत की एकता और अखंडता के प्रति उनकी असीम श्रद्धा थी। यही कारण है कि उन्होंने धर्म के आधार पर विभाजन को अस्वीकार कर दिया था। उनका मत था कि संपूर्ण भारत एक है और इस भूखंड पर रहने वाले सभी एक है। वे किसी भी रोपित प्रचार -प्रसार से घृणा करते थे। वे आजीवन भाईचारे और भारत को एक करने के लिए संघर्ष करते रहे। आज सिर्फ वैचारिक मतभेद या राजनीतिक द्वेष की वजह से देश के वीर सपूतों को बांटना, उनकी आलोचना करना ठीक नहीं है।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here