जनक की पाती उर्मिला के नाम

कीर्ति दीक्षित

urmila

मेरी प्राणजा,

मैथिली, जनकदुलारी, वैदेही, जानकी

प्रिय उर्मिले,

ये पत्र तो सीता जीजी के लिए है, मेरे इन उद्बोधनों को पढ़कर यही विचारा होगा न तुमने, मेरी तनया! ये पाती मैनें मेरी उर्मिला के लिए लिखी है, श्री राम सीता, और सौमित्र के वनगमन के पश्चात् मैं तुझे लेने आया था इस आशा को लिए कि मायके में सखियों के मध्य माता के अंक की छाया में तेरा वनवास प्रसन्नता से कट जाएगा पर तुमने मुझे ये कहकर लौटा दिया कि जिनकी आत्माएं जुड़ी हैं उसके लिए विरह कैसा? मै तो मनोयोगिनी हूँ तात! फिर वियोगिनी कैसे बन जाऊं? मेरे सौमित्र तो मेरे कर्त्तव्य में स्वयं को स्थापित करके गये हैं फिर उन्हें छोड़ आपके साथ कैसे आऊँ?

उस समय तो तेरे दृगों पर चित्रित होते भावों को  पढ़ने की चेष्टा भी न जुटा पाया था ये तेरा पिता, किन्तु आज ये आकाश मुझ पर मानी हुआ जा रहा है, त्याग, बलिदान मेरे सम्मुख नतमस्तक खड़े हैं, मेरा भाल गौरव के भार को वहन नहीं करने पाता है, इसलिए इस पिता ने अपनी प्राणजा से प्रश्नों के उत्तर की अभिलाषा के लिए ये पाती लिखी है। मेरी राजदुलारी जबसे सिया गोद में आई, हमने तो तुझे मांगा ही नहीं था, तू ईश्वर का बिन मांगा वर हमारे अंक में आई थी, तेरी माता सुनैना जब लोरियां सुनाती थी तब तू सिया के बाद ही आती थी, तेरी माता भी सियामुखी होकर वीरगाथायें गाती थी, फिर किस गाथा को तूने अपनी मर्यादा मान लिया, चंद्र सी चंचल, उर्मियों से चपल थी तू इसलिए तो तेरा नाम रखा था उर्मिला, तब मुझे कहाँ पता था त्याग बलिदान और मान समष्टि बन मेरे घर उर्मिला नाम से जन्मा है, आज मानसरोवर सी धीर शान्त प्रशान्त काया सी घर की सेवा करती है । विदेह तो मैं था तू अदेह बनी कैसे माताओं की टहल करती फिरती है ।

ये समाज ऋषि तो मुझे कहता था, सन्यासिनी सी तू कैसे जी गई मेरी बच्ची। मेरी बिटिया! कहाँ से लाई इतना साहस? जाते पति को सेवा का धनुष थमा विदा किया उस पर अश्रुहीन रहने का अभिशाप लिया । मिथिला की मैथिली अयोध्या की सेविका बन खुद पर मानी हो जाती है, कौन है तू मानुषी है? देवी है? या उससे भी वृहद् कोई शक्ति? लोग कहते हैं सिया नारायणी है पर वो भी तो प्रिय वियोग न सह पाई और तू कर्त्तव्यों की गठरी में प्रिय को बांधे महलों में वनवासी कर्त्तव्य कैसे जिया करती है? वहाँ वन में सेवा का रूप धरे सौमित्र भाई के चरणों में जीते मरते हैं, यहाँ तू सेवा प्रिया बनी नित अपने प्राणों को होम अयोध्या को श्वास दिया करती है, देव भी विह्वल हैं तेरा ये रूप देख माता तेरी विचलित हैं तेरा बलयोग देख, कुल का गौरव मेरा मान मेरी नन्ही धिया अब तुझसे ही होगी इस वंश की पहचान ।

न्याय अन्याय से परे मूक रेखा सी तूने एक शब्द न कहा जब सब गये भरत के साथ राम के पास वन में तू भी हो आती 14 वर्षों के लिए कुछ श्वांसे तो ले आती लेकिन किसी ने तेरे बारे में कुछ न बिचारा, मैं भी तो था मैनें भी तो तनिक भी न दिया तेरे जीवन को सहारा, हा! काश मैनें ही सोच लिया होता, तुझको संग ले लिया होता।

अपने आंचल ढांक दियों को जीवन देती, दिन रात सौमित्र को शक्ति दिया करती है, अब मेरी धिया महलों में वनवासी हो जिया करती है, फूस के बिछौने पर तू सोती तो होगी या फिर तू भी निद्रा देवी को रोज नमन कर विदा करती होगी ? कंदमूल खा तू भी जीती होगी?

अबसे मान, बलिदान, त्याग तुझसे परिभाषित होंगे ये विदेह का वर है । तू मेरी बिटिया है इस पर मुझको गर्व है । मेरे भाल के सम्मुख हिमालय भी झुका जा रहा है । दूर-दूर से आती हैं स्त्रियां तेरी माता की चरणरज लेने, अपने नौनिहालों को क्षीर का अमृत पिलाने। काल तुझको भले भूल जाए पर तू इस रज का अस्तित्व बनी अमरत्व बनेगी, सीता उपमा होगी पर तू अनुपमेय रहेगी । इतिहास तुझको जानकी कहे न कहे पर तू वैदेही है वैदेही रहे, ये मेरा वरदान है, मेरे अंक का तू ईश्वरीय मान है । अंत में क्या कहूँ बेटा! खुश रहे तू ये भी नहीं कह सकता, चिरंजीवी हो ये  कामना भी मैं कर नहीं सकता, तेरे लिए आज सभी वर छोटे हैं पर इस पत्र को पढ़कर तू मुझे वरदान देना जब-जब मैं इस धरा पर जीवन धारण करूं तू मेरी बिटिया बन मुझको सम्मान देना।

अयोध्या की वधू, सौमित्र की प्रिया को मेरा कोटि-कोटि नमन, मेरी प्राणजा, मेरी बिटिया पर मेरा प्राणसिंचन ।

तुम्हारा मानी पिता

जनकराज, उर्मिलातात विदेह

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