एक अदद ईमानदार आदमी

—विनय कुमार विनायक
गांव से शहर,मंदिर से दफ्तर
चिराग लिए भटक रहा हूं
एक अदद ईमानदार आदमी की
तलाश में खामोश-उद्भ्रांत
हकबकाए-बिनबताए किसी को
कि बेपता हो गया
एक अदद ईमानदार आदमी
भरोसा करुं तो किसपर?
पता पूछूं तो किससे?क्या पता?
भेद बताने वाला हो जाए लापता
जब से पनाहगाह हुई
अंधेरगर्दों की दुनिया
भूमिगत हो गया है
एक अदद ईमानदार आदमी
सहस्त्रों नागों के पहरे में
संज्ञाहीन हो गहरी खाई में जा छुपा
एक अदद ईमानदार आदमी
एक ईमानदार आदमी पता नही क्यों
इतना अधिक कमजोर हो जाता
कि अपनी ईमानदारी बचाने के सिवा
कुछ और कर नहीं सकता
एक अदद ईमानदार आदमी
इतना अधिक ईमानदार होता
कि अपनी ईमानदारी के सिवा
दूसरों को ईमानदार बनाने में
कुछ भी नही कर सकता
एक अदद ईमानदार आदमी
अपनी ईमानदारी के लिए
जान न्योछावर कर सकता मगर
ईमानदारी का प्रसार नहीं कर पाता
एक अदद ईमानदार आदमी
ईमानदारी का वंश विस्तार नहीं कर पाता
एक अदद ईमानदार आदमी का
पुनः पुनः बारंबार अवतार नहीं होता
लेकिन ईमानदारी का बीज
हर आदमी में होता जो सो गया होता
जिसे जगाने का प्रयत्न नहीं होता
एक अदद ईमानदार आदमी का ना होना
ईश्वर का अस्तित्व खो जाना होता
या ईश्वर को खुद के इस्तेमाल के सिवा
किसी और के लिए नहीं समझना होता!

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