कविता साहित्‍य

अभिशप्त

अभिशप्त
अभिशप्त

रात का था धुँधलका ,
सिर्फ़ तारों की छाँह ।
मैंने देखा –
मन्दिर से निकल कर एक छायामूर्ति
चली जा रही है विजन वन की ओर ।
आश्चर्यचकित मैंने पूछा,
” देवि ! आप कौन हैं ?
रात्रि के इस सुनसान प्रहर में
अकेली कहाँ जा रही हैं ? ”
*
वह चौंक गई, कुछ रुकी , बोली,
” मैं जा रही हूँ राम के वामांग से उठकर,
चिर दिन के लिये ,
क्योंकि विश्वास और सत्य प्रमाण-सापेक्ष नहीं होते ।
चेतनामयी नारी का स्थान ले ले सोने की मूरत,
मर्यादा का ये आचार ,
मैं वैदेही की चेतना छाया,
जड़ सी देखती रह गई !
अब मैं जा रही हूँ चिर दिन के लिये ।”
*
” अब इतने दिनों बाद ? आज ? ”
मेरे मुँह से निकल पड़ा ।
वह उदास सी मुस्कुरायी- बोली
” तुम आज देख पाई हो ।
मैं तो जा चुकी शताब्दियों पहले ,
सरयू अपार जलराशि बहा चुकी तब से ,
श्री-हत अयोध्या अभिशप्त है तभी से ।।”

डॉ. प्रतिभा सक्सेना