हरम

0
193
शिक्षा
book
हरम

अमित राजपूत

कष्ट था उसे, जो उसको अंदर तक द्रवित कर रहा था। लेकिन उसके आंसुओं की भरी-मोटी बूंदों को देखकर लग रहा था कि ये कष्ट उसके द्वारा मजबूरी में किये गये किसी न्यौछावर के हैं। अजीब तो लग ही रहा था मुझे उसका इस तरह से झुंझलाकर ऑडीटोरियम से बाहर आना और आकर सामने लगे बरगद के पेड़ के नीचे बने चबूतरे पर अपने शरीर को निढाल छोड़ देना और ज़ोर की फफकी के साथ आंसुओं को पी जाना, फिर एक आशा भरी निगाह से मेरी ओर आंखों में आंखे डालकर चुपचाप मुझे ही देखना…।

मैने सूरज को खड़ा किया और उसके आंसू पोछे। उसने मुझे सांस्कृतिक-केन्द्र के बाहर चलने का इशारा किया। हम बाहर आये। रोड पार करके सूरज ने एक बड़ी सी सिगरेट खरीदी और पुनः रोड के इस पार आकर सिगरेट जलाई और उसके कश लेता हुआ केन्द्र की ओर लौटा।

इससे पहले सूरज ने कभी ऐसी हरकत नहीं की थी। उसमे कोई नशा न था, किन्तु माना कभी एक-दो मरतबा उसने चोरी-छिपे भले ही सिगरेट पी रही हो लेकिन हम दोस्तों के सामने तो कभी नहीं। फिर सूरज का इस तरह से खुलेआम सिगरेट पीना किसी और वजह का कारण था।  मैने अह तक अपनी चुप्पी तोड़ दी, “तुम्हे अचानक से क्या हो गया है यार…, किसी ने कुछ कहा तुमसे? कर्टन-कॉल में नाम भी तो पढ़ा गया है तुम्हारा, जिसको लेकर अक्सर लोगों में नाराजगी रहती है फिर तुम, …यार!!! ”

मेरे सभीअनुमानों पर सूरज ने एक आहट भी न की। पूरी सिगरेट पीने के बाद उसने मुंह खोला, वह भी सिर्फ इतना ही कहा मुझसे- “चलो बाहर चलते हैं।”

मै उसके साथ चल दिया। इस बार उसी दुकान से सूरज ने सिगरेट की पूरी डिब्बी खरीदी और रोड के इस पार आकर अंदर आते हुये भरे गले से मुझसे बोला- “बताओ अगर कोई तुमसे ये कहे कि तुम अपनी बीबी को मुझे सौंप दो मै उसकी नुमाईश करूंगा, उसके पहनावे में बृज की झलक है जिसे मैं शहरी बना दूंगा और तब उसकी नुमाईश अच्छी होगी, लेकिन नुमाईशगीरों को ये बताना होगा कि ये मेरी बीबी है, जिसे तुम अपनी प्रेमिका कह सकते हो।”

मै समझता ही रह गया तब तक सूरज दोबारा बोल पड़ा- “सोचो अगर तुम्हारी पत्नी आज नुमाईश की अधिकारिणी हो तो तुम क्या करोगे..?”

मै तो उसकी बातों का कोई मतलब न समझ पाया था, इसलिए थोड़ा चिड़चिड़ाकर बोला- “पहेलियां न बुझाओ, ज़रा साफ-साफ कहो भाई… प्लीज़।”

“मै हया.., हया की बात कर रहा हूं।” सूरज ने फिर उसी चबूतरे पर बैठकर मुझसे अधिकार भरे लफ्जों में कहा था। साथ ही अब मै भी उसकी लगभग सारी समस्या को भांप चुका था जिससे उसको आज इतना तनाव है।

सूरज की मुलाकात मुझसे आज से लगभग पांच साल पहले इसी शहर में हुयी थी, जब वो इस शहर में नया-नया आया था। दुबला सा एकहरा बदन, गौर वर्ण और सिर पर बड़े-बड़े बाल रखने का शौक, हमारे थियेटर ग्रुप में उसका पहला दिन था जब मैने उसको देखा था, थोड़ा असहज महसूस कर रहा था वो। हमारे डायरेक्टर से वो कभी आंख नहीं मिलाता था। एक हफ्ते तक ऐसा ही चलता रहा, लेकिन मै सूरज को पढ़ रहा था। एक अजीब हनक थी उसके अंदर… मानो हमारे डायरेक्टर को कुछ प्रूफ करके दिखाना चाहता रहा हो। एक दिन डायरेक्टर साहब ने टोक ही दिया था सूरज को “क्या बात है भाई..? नज़र मिला के क्यूं नही बात करते हो तुम..? देखो, एक ही दिन में सब कुछ नही मिलता है, मैने पन्द्रह सालों तक बैक-स्टेज़ काम किया है।”

“पन्द्रह सालों तक बैक-स्टेज़ काम करने की क्या ज़रूकत थी? काम करना अलग बात है सर, लेकिन अगर आप पन्द्रह सालों तक बैक-स्टेज़ सीखते रह गये हैं तो यह आपकी कमी रही होगी। सफलता का पैमाना ये बिल्कुल नहीं है कि कोई पन्द्रह साल बैक-स्टेज़ काम करेगा तभी डायरेक्टर बनेगा। वैसे बैक-स्टेज़ काम करते रहना कोई बुरी बात नहीं है।” सूरज ने डायरेक्टर साहब की आंखों में आंखे डालकर सबकुछ कहा था। और वो हैरान रह गये…! कुछ भी न बोल सके।

कुछ ही दिनों बाद सूरज ने डायरेक्टर को अपनी लिखी हुयी दो फ़िल्मों की पटकथा सौंपी और अपनी लेखन विधा से उन्हें परिचित करवाया, किन्तु डायरेक्ट महोदय ने सूरज की पटकथा को गम्भीरता से नहीं लिया। सूरज पूरे एक महीने तक उनसे पटकथा पढ़ने का अनुरोध करता रहा। दूसरे महीने के दस दिन बीत जाने के बाद सूरज ने डायरेक्टर के पैर पकड़ लिये और पटकथा पढ़ने का अनुरोध करने लगा। लेकिन अब भी डायरेक्टर महोदय ने सूरज के अनुरोध से द्रवित होने की बजाय उसे धुत्कार दिया। हलांकि उसी रात उसने सूरज की एक पटकथा को पढ़ डाला और अगली सुबह पूरी टीम को सामने सूरज की वाहवाही की।

अब तक दो-तीन बरस बीत जाने तक सूरज ने अपने अभिनय से सब को परिचित करा दिया था। पूरे शहर को सूरज का अभिनय लुभाने भी लगा था। लेकिन सूरज कथा के कच्चे माल को तैयार करनेवाले कारीगर और उनके मजदूरों को ही सच्चा फनकार और ईश्वर का असली दूत समझता था। एक बात तो सूरज में उसकी प्रतिनिधि थी, उसका हंसमुक होने के साथ-साथ एक गम्भीर चिन्तक होना। इसीलिए सूरज का रूझान नाटक की कथा-वस्तु के शिल्प में अधिक हो गया, साथ ही साथ सूरज अब सभी से कहने लगा था  कि उसकी दौड़ अब अभिनय के क्षेत्र में लम्बी दूरी की नहीं है। यानी थियेटर के तीन सालों के बाद सूरज का रूझान अभिनय से अधिक लेखन की ओर हो चला था।

अब तक शहर में सूरज की कई बड़े साहित्यकारों से अच्छी जान-पहचान हो गयी थी। उसके आलेखों, कहानियोंऔर नाटकों का लोग विश्लेषण करते थे और सूरज को सराहते थे। अब तो उसके डायरेक्टर भी उसके आईडिया और काम के कायल हो चुके थे। कभी-कभी तो वह सूरज के नाटकों की परिकल्पनाओं पर उसका साथ देते थे, उसके साथ बहस में हिस्सा भी लेते थे। एक बार तो वो सूरज का एक प्ले-लेट देखकर बहुत प्रभावित हुये थे तथा उसे सम्पूर्ण नाटक सरीखा पटकथा के रूप में तैयार करने की सूरज को सलाह दी थी। सूरज ने उनके आदेश का पालन जरूर किया, लेकिन वास्तव में डायरेक्टर ही चापलूस निकला। वो हमेशा मात्र पैसों की ही फिराक में रहा करता था, कोई भी काम वह ऐसा नहीं करता जिससे उसको दो पैसों का लाभ न हो, फिर चाहे भले ही किसी काम से सामाजिक या सांस्कृतिक सरोकार क्यूं न जुड़ा हो। अंततः सूरज की पटकथा पर नाटक का मंचन नहीं हो सका।

अब चूंकि डायरेक्टर साहब को पर्दे के पीछे के कामों को करने का पन्द्रह बरसों पुराना अनुभव है, इसलिए उन्होंने अपने इस गुण का उपयोग कर परदे के पीछे एक बड़ा गुल खिलाया। अपनी एक विवाहित सहकर्मी के ही साथ उनका प्रेम-प्रसंग बन गया जिसके चलते सूरज ने उस न का साथ छोड़ दिया क्योंकि अब डायरेक्टर दिलो-दिमाग से कार्यशाला से कहीं दूर विचरण किय़ा करता था। और अब सूरज पिछले एक साल से अपना पूरा  का पूरा ध्यान लेखन में ही लगा रखा है, क्यूंकि उनके अवैध संबंधों के चलते पूरी नाटक मण्डली में विकार पैदा होने लगा था। फिर धीरे-धीरे सूरज ने कई उत्कृष्ट नाटकों का लेकन किया, जिसमें कुछ तो अपनी परिष्कृतता के कारण कालजयी सिद्ध हो सकते हैं। ये सब कुछ सिर्फ हम दोस्तों का ही मानना नहीं था, बल्कि सूरज के जान-पहचान वाले इस शहर के तमाम बड़े रचनाकार व साहित्यकारों की राय के बाद ही हम दोस्तों की भी उसके लिए ये राय बनी थी, जोकि उसके सृजन के विश्लेषण के बाद ही बनी थी।

यद्यपि सूरज को भी पता था किउसकी रचनाएं उत्कृस्ट हैं तथा तमाम नामचीन साहित्यकारों की राय से वह सहमत भी था। तथापि उसकी अभिलाषा थी कि उसकी कोई एक बार मंचन के साथ दर्शकों के सामने प्रस्तुत हो और उनकी राय तथा टिप्पणियों को भी जानने का मौका मिले। इन सबसे परे सूरज की हार्दिक इच्छा थी कि उसकी रचनाओं को प्रकाश मिले जिससे कोई रचना उसकी प्रतिनिधि बन सके और इसी फिराक में सूरज पिछले एक वर्ष से लगातार पर किसी से मिल रहा है, जिसमें उसकी रचनाओं को मंच प्रदान करने की थोड़ी भी संभावना हो। हलांकि चार-पांच दफा उसकी रचनाओं को मंच मिलते-मिलते रह गया जिसके कुछ प्राकृततिक और कुछ मानवीय अवरोध थे। इनमें से एक रचना नाटक ‘हया’ दो-तीन बार मंचित होते-होते विफल हुआ। इस कारण अब लगभग शहर के रंगकर्मियों के बीच ‘हया’ की काफी चर्चाएं हैं।

‘हया ‘ सूरज का एक बेहतरीन प्रयोगवादी शिल्प से सजा समसामयिक नाटक है, जो अंधविश्वास की पुरानी उधेड़बुन की जगह नये आयामों को स्पर्श कर रहे ढकोसलों को तथा शहरी और ग्रामीण अंचलों को एक साथ जोड़ता हुआ एक ही फ्रेम में दिखने वाला नाटक है। इसमे ग्रामीण दृश्यों का शिल्प उत्कृष्ट है जो नाटक में दर्शाये गए दृश्यों के साथ वहां की स्थानीय बृज भाषा को साथ लेकर चलती है। इससे नाटक का मर्म और रोचकता थोड़ा बढ़ जाती है। अब तक जिस-जिस ने भी सूरज की इस पटकथा को पढ़ा था, सच में उसके मुंह से एक बार ‘वाह-वाह’ जरूर निकला था। मै तो उन वाह- वाह करने वालों से भी एक कदम आगे सूरज के इस नाटक का दीवाना था।

एक बार तो इस नाटक का अभ्यास भी शुरू हो गया था ‘ऑल इण्डिया शॉर्ट प्ले कम्पटीशन’ केलिए, लेकिन शायद ख़ुदा को भी अभी इसका मंचन मंज़ूर न था। सूरज को अचानक से अपने गृह-नगर जाना पड़ गया, उसकी बहन का देहान्त हो गया था जिससे सूरज बुरी तरह टूट गया…।

प्रतियोगिता की तारीख़ नजदीक आती चली गयी। सूरज जब तक फिर से अपने शोक से उबरकर नाटक करने लायक हो पाता, काफी देर हो चुकी थी…। अंत में तमाम ऐसे कारणों से दोबारा ‘हया’ का अभ्यास नहीं हो सका, उन कारणों में इस शहर के थियेटर जगत की आंतरिक ‘गणित’ भी सम्मिलित थी।

सूरज केलिए अब ‘हया’ की चाहत और महत्व दोनों बढ़ गये, वो इसके मंचन केलिए अब कुछ-कुछ समझौता भी करने लगा था, पर तब भी सूरज को सफलता नहीं मिली। इसी बीच सूरज की मुलाकात दीपांकर श्रीज्ञान से हो गयी। दीपांकर भी एक ऐसा अभिनेता व तथाकथित लेखक था जो ‘हया’ को बेहद पसन्द करता था। लेकिन दीपांकर एक चतुर कायस्थ भी था। उसने सूरज से कहा- “मैने एक जगह बात की है ‘हया’ केलिए, उन्हें पटकथा खूब पसन्द आयी लेकिन उनकी एक शर्त है।”

“कहो, मुझे हर शर्त मंज़ूर है।” सूरज उत्सुकता दिखाते हुए बोला।

“वो पूरी कहानी के संवाद खड़ी बोली में ही चाहते हैं। आप मुझे स्क्रिप्ट दे दो, मै उसके बृज वाले हिस्से को खड़ी बोली में करके दे दूंगा।” दीपांकर ने चतुराई दिखाते हुए कहा।

लेकिन सूरज दीपांकर श्रीज्ञान की पूरी मंशा समझ रहा था, फिर भी लाचार होकर बोला “कर लो, लेकिन मेरा नाम तो लिखा रहेगा न कि नाटककार सूरज देसाई?”

“हां-हां बिल्कुल, अरे बाप रे! क्या बात कह रहे हो सूरज बाबू, नाटककार सूरज देसाई ही लिखा रहेगा और नाट्य रूपांतरण में मेरा नाम।” दीपांकर ने सूरज से अपनी भरपूर चतुराई से बात कही।

सूरज सहसा कुछ क्षणअसहज सा हो गयाऔर कुछ न कह सकने लायक। लेकिन मरता क्या न करता, उसने धीरे से अपना गला हिलाया “ठीक है, बस ‘हया’ का मंचन तो हो जायेगो न?”

“मेरी ज़िम्मेदारी है।” कहकर दीपांकर नाटक लेकर चला गया।

सहमति देते वक्त सूरज को लगाजैसे कोई अपनी जीवन संगिनी को किसी दूसरे को सौंप रहा हो, वही जो अब तक उसके सीने से लगी रहती और उसके जीवन व उन्नति का आधार थी। मानों वो कह रहा हो कि जाओ, जाओ इसे ले जाकर, इसके चिर बदलकर जिस तरह से चाहो भोग लो।

लेकिन जब आज सूरज की भार्या स्वरूप ‘हया’भोगी गयी तो वो कुंठित हो उठा और उसके सीने में जलन होने लगी। आज वैसी अनुभूति भी उसके अंदर है जब आदमी खुद से लुटना चाहता होता है और उसको उसी दर्द में मज़ा आता है।

…सूरज को आज मज़ा ही आ रहा था।वो अब तक सिगरेट की पूरी डिब्बी खत्म कर चुका था, फिर सीधे ग्रीन-रूम होते हुए नेपत्थ्य से प्रवेश करता हुआ मंच पर आ धमका। तभी पत्रकारों का नाटक के लेखक से साक्षातकार का वक्त हो चला, सूरज ने मंच से ऐलान करना शुरू कर दिया- “देवियों और सज्जनों, मुझे क्षमा कीजिएगा। मै इस नाटक का लेखक नहीं हूं। ये तो दीपांकर जी का बड़प्पन है जो उन्होंने मेरा नाम दिया। वास्तव में वही ‘हया’ के मूल लेखक हैं। इसलिए सभी साक्षातकार उन्हीं से लिए जाएं।”

सूरज को सुनते ही ऑडीटोरियम में उपस्थित पत्रकारों ने अपने कैमरे दीपांकर की ओर घुमा दिये और किसी पत्रकार ने पहला प्रश्न दागा था दीपांकर से- “जिस ग्रामीम परिवेश और बृज की पृष्ठभूमि पर नाटक के दृश्य लिखे हैं आपने, यदि उसकी भाषा बृज ही रखी होती तो शायद नाटक और भी अच्छा प्रतिछाप छोड़ता, क्या कहना है आपका?”

इस पहले ही प्रश्न के साथ दीपांकर की आंखों में आंसू आ गये और अब सूरज की आंखों के आंसू और तेज़ हो गये। दोनो के आंसू तब तक बहते रहे, जब तक कि दोनों के आंसुओं के प्रवाह की गति समान न हो गयी। दीपांकर दौड़कर सूरज को गले लगाता है और उसे मंच के ऊपर ले जाकर घोषणा करता है- “शहर के सम्मानित नागरिकों और साहित्य-प्रेमियों, यदि आपको सूरज देसाई कृत ‘हया’ पसन्द आयी हो तो हम आपको अगले महीने आमंत्रित करते हैं उन्हीं के अगले नाटक ‘दस्तूर’ में। आप सभी का हार्दिक स्वागत और बेसब्री से इंतज़ार रहेगा।”

ऑडीटोरियम के अंदर बैठे सभी दर्शक खड़े होकर सूरज केलिए तालियां बजाने लगे और अब तक एकबार फिर से दोनों एक-दूसरे को देखते हैं। सूरज के आंसू फिर से तेज़ धारा में बह पड़े, लेकिन इस बार उन्हे ज़मीन पर नहीं टपकना पड़ा, दीपांकर श्रीज्ञान ने सूरज को जमकर अपनी छाती से लगा लिया जिससे सूरज के आंसुओं को दीपांकर के कंधों का आरामगाह मिल गयी और सूरज के आंसू वहीं ठहर गये।

Previous articleअभिशप्त
Next articleसमाजवादी प्रदेश के चार साल में शिक्षा का बुरा हाल
अमित राजपूत
जन्म 04 फरवरी, 1994 को उत्तर प्रदेश के फ़तेहपुर ज़िले के खागा कस्बे में। कस्बे में प्रारम्भिक शिक्षा के बाद इलाहाबाद विश्वविद्यालय से आधुनिक इतिहास और राजनीति विज्ञान विषय में स्नातक। अपने कस्बे के रंगमंचीय परिवेश से ही रंग-संस्कार ग्रहण किया और इलाहाबाद जाकर नाट्य संस्था ‘द थर्ड बेल’ के साथ औपचारिक तौर पर रंगकर्म की शुरूआत की। रंगकर्म से गहरे जुड़ाव के कारण नाट्य व कथा लेखन की ओर उन्मुख हुए। विगत तीन वर्षों से कथा लेखन व नाट्य लेखन तथा रंगकर्म के साथ-साथ सामाजिक सरोकारों में सक्रिय भागीदारी, किशोरावस्था से ही गंगा के समग्र विकास पर काम शुरू किया। नुक्कड़ नाटकों व फ़िल्मों द्वारा जन-जागरूकता के प्रयास।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here