“ऋषि दयानन्द के अनुसार कृष्ण लीला से कृष्णजी का अपमान होता है”

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-मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

ऋषि दयानन्द जी का जिन दिनों मेरठ में आगमन हुआ था, तब वहां ‘धर्मरक्षिणी सभा’ की ओर से तीन प्रश्न प्रश्न
उपस्थित किये गये थे जिनका स्वामी जी ने अपने व्याख्यान में उत्तर दिया था। ऋषि के
व्याख्यानों में उपस्थित एक ऋषि भक्त ने उनके दिये उत्तरों को नोट कर लिया था और पं0
लेखराम जी के कई वर्ष बाद उनसे मिलने पर उन्होंने अपनी स्मृति व लेख के आधार पर
वह पूरा विवरण उन्हें उपलब्ध कराया था। तीन प्रश्नों में तीसरा प्रश्न था ‘जो अवतार हुए हैं,
ये कौन हैं? उनका (अवतारों का) बनाने वाला कौन है और पराक्रम उनको किसने दिया
अथवा ये समर्थ हैं? अवतारों का-सा सामर्थ्य किसी राजा में अथवा मनुष्य में नहीं सुना।
प्रमाण श्रुति, स्मृति का हो तो लिखियेगा।’
स्वामी जी ने इस प्रश्न का अति विस्तृत उत्तर दिया। उन्होंने कहा कि आप जिनको
परमेश्वर का अवतार कहते हैं वे महापुरुष थे। परमेश्वर की आज्ञा में चलते थे, सत्य धर्मी
और न्याय आदि गुणों वाले थे, वेदादि सत्यशास्त्रों के पूर्ण जानने वाले थे। आज तक कोई
और ऐसा हुआ और न है परन्तु आप जो इन उत्तम पुरुषों को परमेश्वर का अवतार मानते हो
यह आपकी भ्रान्ति है। भला परमेश्वर का अवतार कभी हो सकता है? वह तो अजर और
अमर है। जब उसका अवतार हुआ तो उसका वह गुण (अजरता व अमरता) जाता रहा। इसके अतिरिक्त जब परमेश्वर व्यापक
और सर्वत्र विद्यमान है तो उसका एक शरीर में आना क्योंकर हो सकता है? और यदि कहो कि परमेश्वर प्रत्येक स्थान पर और
प्रत्येक मनुष्य में विद्यमान है। हां, यह तो सत्य है परन्तु यह नहीं कि केवल एक मनुष्य और एक स्थान में है और अन्यों में
नहीं। इसके अतिरिक्त परमेश्वर को जन्म लेने की आवश्यकता ही क्या है? यदि आप कहें कि रावण और कंस आदि को
परमेश्वर अवतार लिये बिना कैसे मार सकता था? तो आपका यह कहना अत्यन्त अशुद्ध है क्योंकि जब वह निराकार
परमेश्वर बिना शरीर के सब जगत् का पालन और धारण कर रहा है और बिना शरीर के जगत् का प्रलय भी कर सकता है, तो
उसको बिना शरीर के कंस आदि एक-दो मनुष्य का मारना क्या कठिन था? और जो यह बात आप पूछते हैं कि इन अवतारों को
बनाने वाला कौन है और किसने इनको पराक्रम दिया अथवा वे स्वयं समर्थ थे? इसका उत्तर अत्यन्त सरल और स्पष्ट है।
सबको बनाने वाला और सबको पराक्रम देने वाला परमेश्वर ही है। उसके अतिरिक्त अन्य कोई बनाने और पराक्रम देने वाला
नहीं हो सकता। परन्तु आपके प्रश्न से प्रकट होता है कि आपकी दृष्टि में कदाचित् परमेश्वर के अतिरिक्त कोई अन्य भी बनाने
और पराक्रम देने वाला है। अपने आप तो न कोई समर्थ हुआ और न है और न होगा। यह जो आप प्रश्न करते हैं कि उन अवतारों
का सा सामर्थ्य और किसी राजा अथवा मनुष्य में क्यों नहीं हुआ, यह आपका कहना बिलकुल व्यर्थ है, क्योंकि जिसमें जैसे गुण
होते हैं उसमें वैसा सामर्थ्य होता है और जैसा जिसमें सामर्थ्य है वैसे ही उसमें गुण होते हैं। आजकल बहुत से ऐसे मनुष्य हैं कि
जो बिलकुल कर्महीन और अज्ञानी हैं और बहुत से ऐसे विद्वान् समर्थ और पराक्रमी हैं कि हजारों में भी अन्य कोई उनके
समान नहीं है, तो क्या इसी कारण उन समर्थ मनुष्यों को परमेश्वर का अवतार कहना या मानना उचित है? वाह ! वाह !
परमेश्वर के अवतार होने का आपने क्या बढ़िया प्रमाण सोच रखा है। किसी ने सच कहा है-‘‘प्रत्येक की विचारशक्ति उसके
सामर्थ्य के अनुसार होती है” परन्तु बड़े दुःख की बात है कि आप लोग यद्यपि रामचन्द्र जी और श्रीकृष्ण आदि उत्तम पुरुषों को
परमेश्वर का अवतार मानते हो फिर भी उनकी परले सिरे की निन्दा और बुराई करने में संलग्न रहते हो। नगर-नगर और गली-
गली में उनकी पाषाण आदि की मूर्ति बनवाकर उनसे भीख मंगवाई जाती है और पैसे-पैसे के लिए सर्वसाधारण के सामने उनके
हाथ फैलवाये जाते हैं। जब धनवान् अथवा साहूकार शिवालय या मन्दिर में आते हैं या पुजारी जी स्वयं उनके पास जाते हैं तो

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कहते हैं कि सेठ जी! आज तो नारायण भूखे हैं, राधाकृष्ण जी को कल रात से बालभोग भी नहीं मिला है। इन दिनों सीताराम जी
को प्रसादी की कठिनाई पड़ रही है। सरदी के कपड़े नारायण के पास नहीं हैं और शीतकाल शिर पर आ गया है। पुराने कपड़े तो
सीताराम जी के कोई दुष्ट चुरा ले गया, उसी दिन से हम सीताराम जी को ताली कुंजी में बन्द रखते हैं, नहीं तो उनकी भी कुशल
न थी। यदि किसी रईस या धनवान् की ओर से शिवालय या मन्दिर का मासिक व्यय आदि नियत हुआ तो पुजारी जी या बाबा
जी जब कहीं बैठे होते हैं तो अपनी झूठी प्रेमभक्ति जताने के लिए कहते हैं कि लो यजमान! हमको जाने दो, अब हमारे
सीताराम जी या राधाकृष्ण जी भूखे होंगे और जब जायेंगे तो उनको भोजन मिलेगा अन्यथा भूखे बन्द रहेंगे।
अब देखिए, रामलीला को संगठित करके किस प्रकार आप लोग अपने उत्तम पुरुषों की नकल करवाते और उनकी
कितनी निंदा कराते हो?, अन्य मत वालों को उन पर हंसवाते हो और उनका अपमान कराते हो। इस लीला का तो कुछ वर्णन ही
नहीं। देखो! प्रायः लोग, क्या धनवान्, क्या रईस, क्या दुकानदार और क्या श्रमिक, सभी इस रास की सभा में एकत्रित होते हैं
और रास देख-देखकर अत्यन्त प्रसन्न होते हैं। कोई कहता है कि कृष्ण जी अच्छा नाचते हैं, कोई कहता है राधा जी बड़ी सुन्दरी
है, कोई कन्हैया जी के गाने पर प्रसन्न हो रहा है तो कोई राधा जी की मूर्ति पर मोहित और लट्टू है और अत्यन्त प्रेम-भक्ति
प्रकट कर रहा है। कोई कहता है वाह ! वाह ! साक्षात् राधा-कृष्ण जी ही आ गये हैं। इन्ही कन्हैया जी ने हजारों गोपियों के साथ
भोग-विलास किया है, 1600 रानियां रखी हैं, बहुत दूध माखन चुरा कर खाया है। नहाती हुई नंगी स्त्रियों के कपड़े तक चुरा लिये
हैं और उनको पहरों नग्न सामने खड़ा रखा है। अधिक और कहां तक तुम्हारी बातों का वर्णन करूं। अब लज्जा भी रोकती है और
बुद्धि भी आज्ञा नहीं देती। परन्तु खेद! लाख बार खेद! आप लोग अपने देश के ऐसे-ऐसे राजा-महाराजाओं को जो हजारों लाखों
पर शासन करते थे और उनका पालन तथा सहायता करते थे, ऐसे-ऐसे उत्तम पुरुषों को जो जीवन पर्यन्त परमेश्वर की आज्ञा में
रहे, सत्यवादिता, सदाचार और धर्म के कामों में अद्वितीय रहे, खाने कपड़े के लिए भी भिक्षुक बनाते हो, अधर्मी, व्यभिचारी
तमाशबीन और चोर ठहराते हो और केवल अपनी स्वार्थसिद्धि और मनोरंजन के लिए उनकी अपकीर्ति करते और कराते हो।
उनके विषय में ऐसी-ऐसी झूठी कहानियां, जिनका प्रमाण किसी पुस्तक या इतिहास से प्राप्त नहीं हो सकता, अपने मन से
बना-बना कर वर्णन करते हो और फिर अपने आप को उनका भक्त, गुणगायक और प्रशंसक समझते हो। हाय, हाय, इन बातों
के वर्णन से मन पर इतना शोक और दुःख का भार है कि अधिक वर्णन करने का सामर्थ्य नहीं। इसलिए इसी पर सन्तोष करता
हूं और अपने इस कथन के समर्थन में कि परमेश्वर का अवतार किसी अवस्था में नहीं हो सकता है, दो वेदमन्त्र कहता हूं।
पहला यजुर्वेद के चालीसवें अध्याय का आठवां मन्त्र है और दूसरा यजुर्वेद के 31 वें अध्याय का पहला मन्त्र है–
1– स पर्यगाच्छुक्रमकायमव्रणमस्नाविरं शुद्धमपापविद्धम्। कविर्मनीषी परिभूः स्वयम्भूर्याथातथ्यतोऽर्थान्
व्यदधाच्छाश्वतीभ्यः समाभ्यः।।
इस मन्त्र का अर्थ यह है कि परमेश्वर सबमें व्यापक और अनन्त पराक्रम वाला है, वह सब प्रकार के शरीर से रहित है,
कटने-जलने आदि रोगों से परे है। नाड़ी आदि के बन्धन से पृथक् है। सब दोषों से रहित और सब पापों से न्यारा है। सब का
जानने वाला, सबके मन का साक्षी, सबसे श्रेष्ठ और अनादि है। वही परमेश्वर अपनी प्रजा को वेद के द्वारा अन्तर्यामी रूप से
व्यवहारों का उपदेश करता है।
2– सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात्। स भूमिं सर्वतः स्मृत्वाऽत्यतिष्ठद्दशांगुलम्।।
इस मन्त्र का अर्थ यह है कि परमेश्वर तीनों प्रकार के जगत् (अर्थात् भूत, भविष्य और वर्तमान्) को रचता है, उससे
भिन्न दूसरा कोई और जगत् को रचने वाला नहीं है क्योंकि वह सर्वशक्तिमान् है। मोक्ष भी परमेश्वर की ही कृपा से मिलता है।
पृथिवी आदि जगत् की स्थिति भी परमेश्वर के व्यापकता गुण के कारण है। वह परमेश्वर इन वस्तुओं से पृथक भी है क्योंकि
उसमें जन्म आदि व्यवहार नहीं। वह अपने सामर्थ्य से सब जगत् को उत्पन्न करता है और स्वयं कभी जन्म नहीं लेता है। सब,

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अब यह बात भली प्रकार सिद्ध हो गई कि वेद और उपर्युक्त युक्तियों के आधार पर परमेश्वर का अवतार किसी प्रकार नहीं हो
सकता।
पंडित लेखराम जी ने ऐसे-ऐसे अनेकानेक महत्वपूर्ण प्रसंग ऋषि दयानन्द के जीवन चरित में दिये हैं जिन्हें पढ़कर
पाठकों का मार्गदर्शन होता है। उनका लिखा ग्रन्थ ऋषि का जीवन चरित भी है और उनके उपदेशों का ग्रन्थ भी इसे कहा जा
सकता है। ऋषि दयानन्द ने उपुर्यक्त प्रसंग में अवतार व मूर्तिपूजा का जो मार्मिक वर्णन किया है, उसे पढ़कर हमें लगा कि हमें
इसे अपने मित्रों तक पहुंचाना चाहिये। उसी का परिणाम यह लेख है। हम आशा करते हैं कि हमारे पाठक मित्र इस लेख को
पसन्द करेंगे और इससे उन्हें ज्ञान लाभ होगा। ओ३म् शम्।

-मनमोहन कुमार आर्य
पताः 196 चुक्खूवाला-2
देहरादून-248001
फोनः09412985121

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