अधर में अफगानिस्तान का भविष्य

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-अरविंद जयतिलक

ताजिकिस्तान की राजधानी दुशांबे में नौवें ‘हार्ट आॅफ एशिया’ मंत्रिस्तरीय सम्मेलन कई मायने में महत्वपूर्ण है। सम्मेलन में भारत के विदेशमंत्री एस जयशंकर ने दो टूक कहा है कि अफगानिस्तान में शांति के लिए देश के भीतर और इसके आसपास सभी के हित समान होने आवश्यक हैं। उन्होंने ट्वीट किया कि अफगानिस्तान में स्थायी शांति के लिए हमें सच्चे अर्थों में ‘दोहरी शांति’ यानी अफगानिस्तान के भीतर और इसके आसपास शांति की आवश्यकता है। उनके ट्वीट को समझें तो उन्होंने अमेरिका समेत दुनिया के सभी देशों को संदेश दे दिया है कि जब तक पाकिस्तान तालिबान के आतंकी संगठनों को प्रश्रय देना बंद नहीं करेगा तब तक अफगानिस्तान में शांति की उम्मीद नहीं की जा सकती। याद होगा 2016 में हार्ट आॅफ एशिया के अमृतसर सम्मेलन में भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने विश्व समुदाय को आगाह किया था कि अगर तालिबान को पाकिस्तान का शह न मिले तो उसका अफगानिस्तान में एक दिन टिके रहना मुश्किल होगा। फिलहाल अफगानिस्तान में शांति बहाली के लिए दुशांबे में भारत, पाकिस्तान, ईरान और तुर्की समेत दो दर्जन से अधिक देशों के नेता बातचीत में हिस्सा ले रहे हैं। यह वार्ता किस नतीजे पर पहुंचेगा कहना मुश्किल है। वैसे भी गत वर्ष कतर में संपन्न तालिबान-अमेरिका समझौते से हालात में तनिक भी परिवर्तन नहीं हुए हैं। अमेरिका ने प्रस्ताव दिया है कि अफगानिस्तान शांति स्थापना के लिए आवश्यक है कि वहां एक कार्यवाहक सरकार का गठन हो। जबकि अफगानी राष्ट्रपति अशरफ गनी इससे सहमत नहीं हैं। दरअसल उनका कार्यकाल चार साल बाकी है। उन्होंने सुझाव दिया है कि अफगानिस्तान में सत्ता में बदलाव चुनाव के जरिए हो। उन्होंने यह भी कहा है कि शांति वार्ता के बाद अगर चुनाव हो तो वह अंतर्राष्ट्रीय समुदाय की देखरेख में हो। लेकिन अहम सवाल यह है कि अमेरिका और तालिबान दोनों के बदलते रुख को देखते हुए क्या ऐसा संभव है। अमेरिका के नवनियुक्त राष्ट्रपति बाइडेन अपनी पहली प्रेस कांफ्रेंस में कह चुके हैं कि अमेरिकी फौजों की वापसी एक मई के डेडलाइन को पूरा कर पाना मुश्किल है। इससे तालिबान भड़क गया है। उसने कड़ी टिप्पणी की है कि फिर विदेशी फौजों पर हमले तय हैं। गौरतलब है कि युद्धरत देश अफगानिस्तान में अभी भी नाटो सैन्य गठबंधन के 10 हजार सैनिक मौजूद हैं। समझौते के तहत इन्हें मई में वापस जाना है। मौजूदा परिदृश्य पर नजर डालें तो अफगानिस्तान में मौजूद विदेशी सैन्य गठबंधन में अमेरिकी सैनिकों की तादाद ज्यादा नहीं रह गयी है। लेकिन अगर उनकी वापसी होती है तो फिर नाटो के लिए तालिबान के खिलाफ आॅपरेशन चलाना आसान नहीं होगा। आशंका यह भी है कि अमेरिकी सैनिकों की वापसी के बाद तालिबान अफगान सरकार को हटाकर अपनी सत्ता स्थापित कर लेगा। तालिबान के सर्वोच्च नेता मुल्ला हैबतुल्ला कह चुके हैं कि तालिबान के अलावा कानूनी रुप से अफगानिस्तान में कोई और शासक नहीं हो सकता। मुल्ला फजल जो कि उत्तरी अफगानिस्तान में तालिबान के उप रक्षामंत्री और समूह के शीर्ष कमांडर रह चुके हैं, वे कहते सुने गए कि अफगानिस्तान से अमेरिका की वापसी के बाद तालिबान के नेता तय करेंगे कि तालिबान से इतर कौन तालिबान के भविष्य के प्रशासन के साथ जुड़ा रह सकता है। अफगानिस्तान के पूर्वी क्षेत्र के प्रमुख मौलवी कबीर भी कह चुके हैं कि तालिबान की सफलता इस बात पर निर्भर करेगी कि पहले अफगानिस्तान की मौजूदा सरकार को बदला जाए। उनका कहना है कि अगर तालिबान को मौजूदा सरकार के साथ बैठना पड़ा तो यह स्थिति बहुत बदतर होगी। गौर करें तो तालिबान के इन प्रमुख नेताओं की टिप्पणी से एक बात साफ है कि वे अफगान सरकार के खिलाफ अपनी बंदूकों का मुंह नीचे करने वाले नहीं हैं। ऐसे में सवाल उठना लाजिमी है कि आखिर तालिबान-अमेरिका समझौते का क्या मतलब है। संभवतः यहीं वे कारण हैं कि अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड टंªप के समय संपन्न अमेरिका-तालिबान वार्ता की समीक्षा कर रहे हैं। गौरतलब है कि कतर के दोहा में अमेरिका और तालिबान के बीच शांति समझौते पर मुहर लगी। तब भारत समेत तकरीबन ढाई दर्जन देशों और अंतर्राष्ट्रीय संगठनों के विदेशमंत्री और प्रतिनिधि इस समझौते के गवाह बने। सभी ने समझौते के मूर्त रुप लेने की उम्मीद जतायी और माना कि अमेरिका और तालिबान के बीच समझौते से न केवल अफगानिस्तान में दो दशक से जारी रक्तपात थमेगा बल्कि अफगानिस्तान में डेरा जमाए अलग-अलग वैश्विक शक्तियों के बीच बीच संवाद का सिलसिला भी शुरु होगा। लेकिन यह समझौता तब खटाई में पड़ गया जब अफगानी सरकार ने तालिबानी कैदियों की रिहा करने से इंकार कर दिया। तब तालिबानी प्रवक्ता ने स्पष्ट कहा था कि उसके मुजाहिद्दीन अमेरिका समेत अन्य विदेशी बलों पर हमला तो नहीं करेंगे लेकिन काबुल प्रशासन बल के खिलाफ अभियान जारी रखेंगे। उल्लेखनीय है कि अमेरिका-तालिबान वार्ता के मुख्य शिल्पकार अमेरिकी दूत जाल्म खलीलजाद के प्रयासों के बाद दोनों पक्ष इस बात पर सहमत हुए थे कि अफगानिस्तान से नाटो सैनिकों की वापसी होगी। लेकिन फिलहाल अमेरिका तैयार नहीं है। दूसरी ओर तालिबान भी हर रोज अपनी मांग बदल रहा हैं। वह किसी भी कीमत पर युद्ध विराम के लिए तैयार नहीं है। उसके नेताओं ने अंतर्राष्ट्रीय समुदाय द्वारा की जा रही युद्ध विराम की अपील को पूरी तरह खारिज कर दिया है। उन्होंने अफगान सरकार के साथ शांति वार्ता की मांग को भी ठुकरा दिया है। गौर करें तो तालिबान के नेता अफगान सरकार को मान्यता नहीं देते हैं। वह इसे ‘काबुल प्रशासन’ जैसे शब्दों से नवाजते हैं। सच कहें तो वे अफगान सरकार को अमेरिका द्वारा थोपा गया मानते हंै। उनकी जिद् है कि अफगानिस्तान में अमेरिकी सैनिकों की नेतृत्ववाली नाटो सेना से तब तक जंग जारी रखेंगे जब तक कि उसके पैर नहीं उखड़ जाते हैं। महत्वपूर्ण तथ्य यह कि अमेरिका के साथ हुए समझौते पर अपनी सहमति की मुहर लगाने के बाद तालिबान अमेरिका के साथ युद्ध विराम समझौते पर तो कायम है लेकिन अफगान सरकार के खिलाफ जंग छेड़े हुए है। अमेरिका की कोशिश है कि तालिबान और अफगान सरकार के बीच वार्ता हो और अफगानिस्तान में शांति बहाल हो सके। उल्लेखनीय है कि 9ध्11 हमले के बाद अमेरिका ने 2001 में तालिबान के खिलाफ जंग के लिए अपने 13000 से अधिक सैनिक अफगानिस्तान भेजे। इनमें अमेरिका के अलावा जर्मनी, ब्रिटेन समेत 38 देशों के सैनिक शामिल थे। इस जंग में अमेरिका को तकरीबन 550 लाख करोड़ खर्च करने पड़े। जैसा कि युद्ध से किसी समस्या का हल नहीं निकलता वैसा ही अफगानिस्तान में भी हुआ। अंततः दोनों पक्षों को टेबल पर आना पड़ा। सच्चाई यह भी है कि अमेरिका के लिए अफगानिस्तान से तालिबान को खदेड़ना असंभव हो गया था। लिहाजा उसके सामने तालिबान से समझौता करने के अलावा कोई अन्य विकल्प नहीं बचा था। हां, यह सही है कि अमेरिका ने पाकिस्तान में छिपे अलकायदा के सरगना ओसामा-बिन-लादेन को मार गिराया। लेकिन उसके बाद भी तालिबान के विरुद्ध युद्ध में उसे अपेक्षित सफलता नहीं मिली। उल्टे इस जंग में उसे 4000 से अधिक सैनिकों से हाथ धोना पड़ा। फिर भी अफगानिस्तान में तालिबान की मौजुदगी बनी रही है तो ध्यान देना होगा कि इसके लिए अमेरिका की अफ-पाक नीति ही जिम्मेदार है। अमेरिका ने अफ-पाक नीति में पाकिस्तान को महत्वपूर्ण भूमिका प्रदान की। उसका मकसद दक्षिणी अफगानिस्तान से लगे पाकिस्तानी सीमावर्ती क्षेत्रों में जहां तालिबान के एक प्रभावशाली समूहों को शरण प्राप्त है, उस पर नियंत्रण करना। लेकिन पाकिस्तान की दगाबाजी के कारण वह इसमें असफल रहा। यह सही है कि अमेरिकी नेतृत्ववाली नाटो सेना हजारों तालिबानी आतंकियों को मौत की नींद सुलाने में सफल रही है लेकिन सच यह भी है कि में इस हमले में हजारों निर्दोष अफगान सैनिकों और नागरिकों की भी जान जा चुकी है। नतीजा अफगानिस्तान में अमेरिका की स्थिति खलनायक जैसी हो गयी जिसका फायदा उठाने में तालिबान सफल रहा। अमेरिका और वैश्विक बिरादरी को समझना होगा कि अफगानिस्तान में शांति तभी स्थापित होगा जब आसपास भी शांति स्थापित होगी। यानी पाकिस्तान अफगानिस्तान के तालिबानी आतंकियों को प्रश्रय देना बंद करेगा।  

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  1. बहुत ही अच्छा लेख है जिस के लिए लेखक को धन्यवाद ||

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