आखिर वकीलों ने वकीलों के खिलाफ चिट्ठी क्यों लिखी?

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-ललित गर्ग-

न्यायिक बिरादरी में गलत को सही ठहराने के लिये एक-दूसरे के पैरों के नीचे से फट्टा खींचने की कोशिशें अक्सर होती रही है। भले ही इससे देश कमजोर हो, राष्ट्रीय मूल्यों पर आघात लगता हो। लोकतंत्र के चार स्तंभों में महत्वपूर्ण इस न्यायिक बिरादरी ने राजनीतिक अपराधियों, घोटालों और भ्रष्टाचार के दोषियों को बचाने के लिये शीर्ष वकीलों का एक समूह सक्रिय है, यह हमारी न्याय व्यवस्था का स्वाभाविक हिस्सा है, जो चिन्ता का बड़ा कारण है। वरिष्ठ अधिवक्ता हरीश साल्वे और बार काउंसिल ऑफ इंडिया के अध्यक्ष मनन कुमार मिश्रा सहित पूरे भारत से 600 से अधिक वकीलों ने प्रधान न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ को पत्र लिखकर इन लगातार बढ़ रही राजनीतिक अपराधियों को बचाने की स्थितियों पर चिंता जताई गई है, निश्चित ही इन वकीलों का यह प्रयास सराहनीय एवं राष्ट्रीयता से प्रेरित है। न्यायिक प्रक्रिया में हेरफेर करने, अदालती फैसलों को प्रभावित करने और निराधार आरोपों और राजनीतिक एजेंडे के साथ न्यायपालिका की प्रतिष्ठा धूमिल करने के प्रयास करने वाले ‘निहित स्वार्थी समूह’ की निंदा व्यापक स्तर पर होनी ही चाहिए। एक प्रश्न यह भी है कि आखिर वकीलों को वकीलों के खिलाफ चिट्ठी क्यों लिखनी पड़ी?
न्यायपालिका को प्रभावित करने की इन घातक एवं अराष्ट्रीय कोशिशों के खिलाफ 600 वकीलों की चिन्ता गैरवाजिब नहीं है। वकीलों की यह जागरूकता न्याय-प्रक्रिया की प्रतिष्ठा एवं निष्पक्षता के लिये जरूरी हो गयी है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वकीलों के इस सार्थक एवं प्रासंगिक प्रयास की सराहना की है। उन्होंने कहा कि दूसरों को डराना और धमकाना पुरानी कांग्रेस संस्कृति है। प्रधानमंत्री ने कहा, पांच दशक पहले ही उन्होंने प्रतिबद्ध न्यायपालिका का आह्वान किया था-वे बेशर्मी से अपने स्वार्थों के लिए दूसरों से प्रतिबद्धता चाहते हैं लेकिन राष्ट्र के प्रति किसी भी प्रतिबद्धता से बचते हैं। कोई आश्चर्य नहीं कि 140 करोड़ भारतीय उन्हें अस्वीकार कर रहे हैं।’ हमारे राष्ट्र की न्यायिक बिरादरी का यही पवित्र दायित्व है तथा सभी वकील भगवान् और आत्मा की साक्षी से इस दायित्व को निष्ठा व ईमानदारी से निभाने की शपथ लेते हैं। लेकिन अभी कुछ वर्षों से देख रहे हैं कि हमारे वकीलां का एक खास वर्ग भारतीय न्याय-प्रक्रिया की पवित्रता और गरिमा को अनदेखी किये जा रहा है। चिंता का बड़ा कारण यह है कि यह समूह अपने पक्ष में ऐसे दबाव बना रहा है, जिससे न्यायपालिका की अखंडता के लिए खतरा पैदा हो रहा है। लेकिन पिछले दो दशक से न्यायमूर्तियों में ज्यादा जिम्मेदारी, सजगता व संवेदना देखने को मिली है और उन्होंने देशहित में किसी भी आर्थिक या राजनीतिक दबाव में झुकना स्वीकार नहीं किया है।
आजादी के बाद से हमारे देश में एक खास किस्म का वकीली समूह विकसित हुआ है, जिन्हें सत्ताधारी पार्टियों का संरक्षण एवं प्रोत्साहन मिलता रहा है, वे अपराधों पर परदा डालने एवं खुंखार अपराधियों एवं संगीन आरोपों से घिरे राजनीतिक अपराधियों को बचाने में सिद्धहस्त होकर मोटी कमाई के साथ राजनीतिक पदों पर आसीन होते रहे हैं। बड़े लोगों एवं राजनेताओं के मामलों में अक्सर ऐसे बड़े वकील ही सामने आते हैं और वकीलों के बीच आय की असमानता से भी यही पता चलता है कि राजनीतिक एवं आर्थिक रूप से सक्षम लोग न्याय पाने में आम लोगों से ज्यादा संभावना वाले होते रहे हैं। आम जनता के लिये महंगी होती कानून व्यवस्था एवं निष्पक्ष न्याय की नाउम्मीदी भी ऐसे ही स्वार्थी वकीलों से उपजी है। इसी बड़ी विसंगति एवं विडम्बना ने राजनीति में अपराध को भी प्रोत्साहन दिया है। इससे वकीलों का पेशा विवादास्पद भी बना है एवं न्याय-प्रक्रिया की विश्वसनीयता पर भी प्रश्नचिन्ह लगते रहे हैं।
प्रश्न है कि आखिर वकीलों को ऐसी चिट्ठी लिखने की जरूरत क्यों पड़ी। क्योंकि इन दिनों कुछ राजनेता कठघरे में खड़े हैं और उन्हें बचाने के लिए वकीलों का एक खास समूह सक्रिय है, जो सत्य को ढंकने की कुचेष्टा करते हुए राजनीतिक हित में तथाकथित अपराधियों को बचाने के लिये विभिन्न तरीकों से काम करता है। ऐसे स्वार्थी वकील एक खास अंदाज में कथित बेहतर अतीत और अदालतों के सुनहरे दौर की झूठी कहानियां गढ़ते हैं, इसे वर्तमान में होने वाली घटनाओं से तुलना करते हैं। ये और कुछ नहीं बल्कि जानबूझकर दिए गए बयान हैं, जो अदालत के फैसलों को प्रभावित करने और कुछ राजनीतिक लाभ के लिए अदालतों को शर्मिंदा करने के लिए दिए गए हैं। यह देखना परेशान करने वाला है कि कुछ वकील दिन में राजनेताओं का बचाव करते हैं और फिर रात में मीडिया के माध्यम से न्यायाधीशों को प्रभावित करने की कोशिश करते हैं। ऐसे स्वार्थी वकीलों का यह कहना कि अतीत में अदालतों को प्रभावित करना आसान था, उन पर जनता के विश्वास को हिला देता है। इसीलिये वकीलों के दूसरे पक्ष को पत्र लिखने की जरूरत पड़ी, ऐसे पत्र लिखने का कोई राजनैतिक उद्देश्य नहीं, बल्कि नैतिक एवं राष्ट्रीय आग्रह है। इस पत्र में सुप्रीम कोर्ट से अनुरोध किया गया है कि वे इस तरह के हमलों से हमारी अदालतों को बचाने के लिए सख्त और ठोस कदम उठाएं। वकीलों ने चिंता जाहिर की कि ‘विशेष ग्रुप’ अदालतों की कार्यवाही में बाधा डालने की कोशिश कर रहे हैं। खासकर उन मुद्दों पर बाधा डालने की कोशिश की जा रही है, जो मामले राजनेताओं और राजनीतिक दलों से जुड़े हैं। इस तरह की रणनीति हमारी अदालतों को नुकसान पहुंचा रही हैं और हमारे लोकतांत्रिक ढांचे को खतरे में डालती हैं। वकीलों का आरोप है कि उनकी हरकतों से राष्ट्रीयता, विकास, विश्वास और सौहार्द का माहौल खराब हो रहा है, जो न्यायपालिका की कार्यप्रणाली की मूलभूत विशेषता है।
चिट्ठी में वकीलों ने न्यायपालिका के समर्थन में एकजुट, समानतापूर्ण, निष्पक्ष रुख अपनाने का आह्वान किया है ताकि ये सुनिश्चित किया जा सके कि न्यायपालिका लोकतंत्र का एक मजबूत स्तंभ बना रहे। निश्चित रूप से न्यायमूर्तियों को नामी वकीलों या रसूखदार आरोपियों के सामने समान रूप से बिना किसी राजनीतिक आग्रह, पूर्वाग्रह या दुराग्रह के व्यवहार करना चाहिए और हमारे न्यायमूर्ति ऐसा ही करते हैं। फिर भी कहीं शिकायत की गुंजाइश रह जाती है और कुछ वकीलों को मिलकर ऐसे पत्र लिखने की जरूरत पड़ती है तो यह देश की जागरूकता एवं देश के प्रति निष्ठा को ही दर्शाता है। ऐसे पत्रों की आलोचना नहीं की जा सकती, ऐसे पत्र तो राजनीति की दूषित हवाओं को नियंत्रित करने के औजार है। ऐसे पत्र विशेष रूप से न्यायमूर्तियों से ज्यादा सजगता व संवेदना की मांग करते हैं। समाज के राष्ट्र के किसी भी हिस्से में कहीं भी मूल्यों एवं मानकों के विरुद्ध होता है तो यह सोचकर निरपेक्ष नहीं रहना चाहिए कि हमें क्या? गलत देखकर चुप रह जाना भी अपराध है। इसलिये बुराइयों एवं विसंगतियों से पलायन नहीं, उनका परिष्कार होना चाहिए। वकीलों की यह चिट्ठी ऐसे ही परिष्कार का द्योतक है जो लोकतंत्र के साथ-साथ संविधान को सुस्थापित बनाये रखने के लिये अपेक्षित है।
वकीलों के चिट्ठी लिखने वाले समूह के खिलाफ वकीलों का दूसरा समूह सक्रिय हुआ है, उनका सक्रिय होना स्वाभाविक है क्योंकि उनकी मोटी कमाई के साथ गलत मनसूंबों पर पानी फिर गया है। वकीलों के दोनों समूहों के बीच परस्पर आरोप-प्रत्यारोप भी काफी गंभीर व दुखद हैं। चुनावी मौसम में यह एक ऐसा मुद्दा है, जिस पर आने वाले कुछ दिनों तक बहस जारी रह सकती है। मामला वाकई गंभीर है। ध्यान रहे, 600 वकीलों के पत्र में बेंच फिक्सिंग के मनगढ़ंत सिद्धांत के बारे में भी चिंता जताई गई है, जिसके तहत न्यायिक पीठों की संरचना को प्रभावित करने और न्यायाधीशों की ईमानदारी पर सवाल उठाने का प्रयास शायद नया नहीं है। ऐसे में, यह जरूर कहना चाहिए कि देश में किसी भी स्तंभ या सांविधानिक संस्था की गरिमा धुंधलानी नहीं चाहिए। जनता को न्याय देने वाले मंचों पर अन्याय, स्वार्थ एवं आग्रहों के बादल नहीं मंडराने चाहिए। नया भारत एवं सशक्त भारत को निर्मित करते हुए संविधान को बनाए रखने के लिए काम करने वाले लोगों के रूप में, हमारी अदालतों के लिए खड़े होने एवं उसके अस्तित्व एवं अस्मिता को धुंधलाने के प्रयासों पर कड़ा पहरा देने का समय है।

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