एड्स का कम होता डर

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 प्रमोद भार्गव

रोगियों में अब आ रही है कमी

अब लगातार एड्स के रोगियों के कम होने की खबरें आ रही हैं। बीती शताब्दी में एड्स को कुछ इस तरह से प्रचारित किया गया था कि महामारी का रूप लेकर एड्स दुनिया को खत्म कर देगा। इसे भय का बड़ा पर्याय मान कर दिखाया जा रहा था। एड्स से जुड़े संगठनों की माने तो पिछले दशक में हर साल 22 लाख लोग एड्स की चपेट में आकर दम तोड़ रहे थे,किंतु अब यह संख्या घटकर 18 लाख रह गई है। मसलन 1997 की तुलना में एड्स के नये मरीजों की संख्या में 21 फीसदी की कमी आई है। कहा जा रहा है कि यदि इस गति से एड्स नियंत्रण पर काम चलता रहा तो दुनिया जल्दी ही एड्स-मुक्त हो जाएगी। यहां हैरजअंगेज पहलू यह है कि जब एड्स के जब सभी मरीजों को उपचार मिल नहीं पा रहा है तो यह बीमारी एकाएक घटने क्यों लगी है।दरअसल एड्स को लेकर एक अवधारणा तो पहले से ही चली आ रही थी कि एड्स कोई ऐसी बीमारी नहीं है,जो लाइलाज होने के साथ केवल यौन संक्रमण से फैलती हो।इस कारण इसे सुरक्षित यौन उपायों और दवाओं के कारोबार का आधार भी माना जा रहा था। दुनिया में आई आर्थिक मंदी ने भी एड्स की भयावहता को कम करने का सकारात्मक काम किया है। दरअसल अब तक एड्स पर प्रतिवर्ष 22 सौ करोड़ डॉलर खर्च किए जा रहे थे,लेकिन अब बमुश्किल 1600 करोड़ डॉलर ही मिल पा रहे है। इस कारण स्वयं सेवी संगठनों को जागरूकता के लिए धन राशि मिलना कम हुई तो एड्स रोगियों की भी संख्या घटना शुरू हो गई।यदि इन संगठनों को धन देना बंद कर दिया जाए तो एड्स पूरी तरह नियंत्रित हो जाएगा।

दुनिया में कथित रूप से फैली एड्स एक ऐसी महामारी है जिसकी अस्मिता को लेकर अवधारणाएं बदलने के साथ-साथ दुनिया के तमाम देशों के बीच परस्पर जबरदस्त विरोधाभास भी सामने आते रहे हैं। हाल ही में एड्स से बचाव के लिए जो नई अवधारणा सामने आई हैं,उसके अनुसार एड्स से बचाव के लिए टी.बी.(क्षय रोग) पर नियंत्रण जरूरी है। यह बात कनाडा के टोरंटो शहर में सम्पन्न हुए सोलहवें एड्स नियंत्रण सम्मेलन में प्रमुखता से उभरी है। इस सम्मेलन में यह तथ्य उभरकर सामने आया कि दुनिया भर में जितने एच.आई.वी. संक्रमित लोग हैं उनमें से एक तिहाई से भी ज्यादा टी.बी. से पीड़ित हैं। अब सच्चाई यह है कि एड्स को लेकर दुनिया के वैज्ञानिक खुले तौर से दो धड़ों में बंट गए हैं। आर्थिक मंदी के चलते अब उन लोगों का पक्ष प्रबल होता जाएगा जो एड्स को महामारी नहीं मानते। क्योंकि 1990 के दशक मे एड्स का हौवा फैलाने वाले लोगों का दावा था कि 15-20 सालों के भीतर अफ्रीकी देशों की आबादी पूरी तरह बरबाद हो जाएगी,लेकिन ऐसा नहीं हुआ। मध्य और दक्षिणी अफ्रीकी देशों की आबादी लगातार बड़ रही है। उनके नवजात शिशुओं में एड्स के कोई लक्ष्ण भी देखने में नहीं आ रहे हैं।

इस सम्मेलन में ब्राजील में एड्स पर किए गए एक अध्ययन के निष्कर्ष सामने लाये गये हैं। इस अध्ययन से पता चलता है कि एड्स की रोकथाम की दवा के साथ टी.बी. की दवा भी दी जाए तो मरीज के बचने की उम्मीदें बढ़ जाती हैं। इस तरह के मिले-जुले उपचार से एच.आई.वी. संक्रमित व्यक्तियों को टी.बी. से बचाया जा सकता है। टी.बी. ऐसे व्यक्तियों की प्रमुख जानलेवा बीमारियों के रूप में सामने आई है।

ब्राजील में कंसॉर्शियम टु रिस्पॉण्ड इफेक्टवली टु दी एड्स-टी.बी. एपिडेमिक (क्रिएट) द्वारा ग्यारह हजार लोगों पर एक अध्ययन किया गया। इनमें से कुछ लोगों को सिर्फ एंटीरिट्रोवायरल (एच.आई.वी.-रोधक) दवा दी गई कुछ लोगों को सिर्फ टी.बी. की दवा आइसोनिएजिड दी गई जबकि तीसरे समूह को दोनों तरह की दवाऐं दी गईं। नतीजतन एंटीरिट्रोवायरल औषधि से टी.बी. संक्रमण से 51 प्रतिशत बचाव हुआ। सिर्फ आइसोनिएजिड से 32 प्रतिशत बचाव हुआ। जबकि मिली-जुली दवाऐं देने से टी.बी. संक्रमण का खतरा 67 फीसदी तक कम हो गया। इस निष्कर्ष को महत्व देते हुए अब विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी एच.आई.वी. संक्रमित रोगियों के लिए मिली-जुली दवा देने की अनुशंसा की है। फिलहाल यह अलग बात है कि इस सिफारिश का पालन भारत में नहीं किया जा रहा है। क्योकि भारत सहित दक्षिण अफ्रीका में टी.बी. की रोकथाम के लिए आइसोनिएजिड के इस्तेमाल पर प्रतिबंध है। यह रोक इस डर से लगाई गई थी कि कहीं आएसोनिएजिड के अत्यधिक इस्तेमाल से टी.बी. का बैक्टीरिया इसका प्रतिरोधी न बन जाए ?मगर वैज्ञानिकों को अब यह आभास हो रहा है कि सिर्फ एंटीरिट्रोवायरल दवा देने से पूरा फायदा नहीं मिल पाता और मरीज टी.बी. का शिकार हो जाता है। अब विश्व स्वास्थय संगठन का स्पष्ट मत है कि टी.बी. पर नियंत्रण एड्स से संघर्ष में सबसे प्रमुख लक्ष्य होना चाहिए।

इसके पूर्व एड्स के सिलसिले में विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा जो रिपोर्ट जारी की गई थी तब यह दर्शाया गया था कि अफ्रीकी देशों में 38 लाख एड्स के रोगी हैं। 22 रोगियों की एड्स के कारण मौतें भी हुईं हैं। तब अफ्रीकी राष्ट्रपति और वहां के वैज्ञानिकों ने इस रिपोर्ट को नकारते हुए एड्स के अस्तित्व को ही अस्वीकार कर दिया था। इस रिपोर्ट पर सख्त असहमति जताते हुए अफ्रीकी सरकार ने न तो इस जानलेवा रोग से निजात के लिए दवाएं उपलब्ध कराईं और न ही एड्स के विरूद्ध वातावरण बनाने के लिए जन-जागृति की मुहिम चलाई। बल्कि इसके उलट अफ्रीका के तत्कालीन राष्ट्रपति थावो मुबेकी ने अंतराष्ट्रीय स्तर पर 33 विशेषज्ञों का पेनल बनाया। इस पेनल की खास बात यह थी कि इसमें सेंटर फॉर मालीक्यूलर एंड सेलुलर बायोलॉजी, पेरिस के निदेशक प्रो. लुकमुरनिर भी शामिल थे। प्रो. लुकमुरनिर वही वैज्ञानिक हैं,जिन्होंने अमेरिकी वैज्ञानिक डा. गैली के साथ मिलकर 1984 में एड्स के वायरस एच.आई.वी. का पता लगाया था। इसके साथ ही इस पेनल में अमेरीका,ब्रिटेन,भारत और अटलांटा के सी.डी.सी. के वैज्ञानिक डॉ. ऑन ह्यूमर भी शामिल थे।

इस पेनल ने अप्रैल 2001 में अपनी अति महत्वपूर्ण रिपोर्ट अफ्रीकी राष्ट्रपति को सौंपते हुए एड्स के वायरस एच.आई.वी. के अस्तित्व पर तीन सवाल उठाते हुए नये सिरे से इस पर अनुसंधान करने की सलाह दी थी। रिपोर्ट का पहला सवाल था कि संभावित एड्स पीड़ित रोगी में रोग प्रतिरोधात्मक क्षमता कम होने की वास्तविकता क्या है,जिससे मौत होती है ?दूसरा?एड्स से होने वाली मौत के लिए किस कारण को जिम्मेदार माना जाए ?तीसरे ,अफ्रीकी देशों में विपरीत सैक्स से एड्स फैलता है, जबकि पाश्चात्य देशों में समलैंगिकता से,यह विरोधाभास क्यूँ ?इस रपट में एड्स रोधी दवाओं की उपयोगिता पर भी सवाल उठाए गए हैं। दरअसल इस परिप्रेक्ष्य में दबी जुबान से वैज्ञानिक यह भी मानते हैं कि एड्स रोधी दवाओं के दुष्प्रभाव से भी रोगी के शरीर में प्रतिरोधात्मक क्षमता कम होती जाती है और नतीजतन रोगी मृत्यु को प्राप्त हो जाता है।

दरअसल एड्स से पीड़ित पांच युवक सबसे पहले जून 1981 में अमेरिका में पाये गये थे,तभी इस तथाकथित महामारी का पता चला था। लेकिन खास तौर से अमेरीकी विशेषज्ञों ने एक अवधारणा गढ़ी कि यह बीमारी 1970 से ही फैल रही थी और इसके वायरस का पता चलने से पहले ही दुनिया के सभी देशों में फैल चुके थे। फिर अमेरिका और यूरोपीय देशों के वैज्ञानिक व चिकित्सकों ने पूरी दुनिया में यह अवधारणा फैलाई की एड्स के पहले वायरस अफ्रीका में पाए जाने वाल बन्दर की एक प्रजाति में पाए गए थे। बन्दर से यह पूरे अफ्रीका,अमेरीका और फिर इस वायरस का विस्तार पूरी दुनिया में हो गया। लेकिन कालांतर में इस वायरस पर हुए अनुसंधानों ने एड्स के जन्म के अमेरिकी तथ्य को सर्वथा झुठला दिया। अफ्रीका के बुद्धिजीवियों ने बाद में कहा भी कि नस्लीय सोच के चलते श्वेत लोग हर बुराई को अश्वेतों पर लादने के तरीकों की खोज में लगे रहते हैं।

भारत के बुद्धिजीवी भी इस महामारी के संदर्भ में नए सिरे से सोचने लगे है। उनका कहना है कि एड्स दुनिया की बीमारियों में एक मात्र ऐसी बीमारी है जो दीन-हीन,लाचार,कमजोर और गरीब लोगों को ही गिरफ्त में लेती है,ऐसा क्यों ?एड्स से पीड़ित अभी तक जितने भी मरीज सामने आये हैं,उनमें न कोई उद्योगपति है,न राजनेता, न आला अधिकारी, न डाक्टर-इंजीनियर, न लेखक-पत्रकार और न ही जन सामान्य में अलग पहचान बनाये रखने वाला कोई व्यक्ति ?जबकि अन्य बीमारियों के साथ ऐसा नहीं है। इससे स्पष्ट होता है कि एड्स के मूल में क्या है और उसका उपचार कैसे संभव है ?अभी साफ नहीं है। इस पर अभी खुले दिमाग से नये अनुसंधानों की और जरूरत है ?इस सब के बावजूद यह एक अच्छी बात है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन ऐसे आंकड़े देने लगा है जो एड्स के रोगियों की तादाद कम दर्शाते हैं। दुनिया में आर्थिक मंदी के हालात दो-चार साल ऐसे ही बने रहे तो तय है एड्स लगभग खत्म ही हो जाएगा।

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