अमित शाह का “बदला लो” और चार्ज शीट की हड़बड़ी

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प्रवीण गुगनानी

यह आशंका तो थी ही कि लोकसभा चुनावों में भाजपा से उप्र की 80 में से 73 लोस सीटों पर दांत खट्टे होनें और मूंह की खानें से बौराई अखिलेश-मुलायम की सरकार अमित शाह से खुन्नस निकालेगी!! यह आशंका सत्य हो गई जब गत दिवस उप्र पुलिस ने अमित शाह के विरुद्ध चार्ज शीट दायर की और पुरानें प्रकरण में व्यवस्थित षड्यंत्र करते हुए चार धाराएं और बढ़ा दी! यद्दपि उप्र पुलिस द्वारा आपाधापी और हड़बड़ाहट में तैयार की गई इस चार्ज शीट को न्यायालय ने बहुत सी कमियों और औपचारिकताओं को पूर्ण करनें का कह कर लौटा दिया है तथापि इस प्रकार पुलिस और प्रशासन का मुलायम परिवार का दुराशय तो झलक ही गया है.

पिछले आम चुनावों में अमित शाह ने कहा था कि आदमी भोजन और नींद के बिना जी सकता है, भूखा-प्यासा होने पर भी वह जी सकता है लेकिन बेइज्जत होने पर वह जी नहीं सकता. साथ साथ यह भी कहा था कि यह अपमान का बदला लेनें और अन्याय करनें वालों को सबक सिखानें का चुनाव है.

गत लोस चुनाव के दौरान इस भाषा को बोलनें की चार्ज शीट में उप्र पुलिस नें जो मूल कार्यवाही की गई थी उनकें अतिरिक्त इन धाराओं के जुड़ जानें से भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह के विरुद्ध षड्यंत्र मजबूत हो गया है. जो चार धाराएं जोड़ी गई हैं वे हैं-

धारा-125 भारत सरकार से मैत्री संबंध रखने वाली किसी एशियाई शक्ति के विरुद्ध युद्ध करना या युद्ध का प्रयत्‍‌न करना

धारा-153(क):धर्म मूलवंश भाषा जन्मस्थान निवास स्थान इत्यादि के आधारों पर विभिन्न समूहों के बीच शत्रुता का संप्रवर्तन और सौहा‌र्द्र बने रहने पर प्रतिकूल प्रभाव डालने वाले कार्य करना

धारा-295(क):विद्वेषपूर्ण कार्य जो किसी वर्ग के धर्म या धार्मिक विश्वास का अपमान करके उसकी धार्मिक भावना को भड़काने वाला व्यक्तव्य देना.

धारा-505 लोगों में कटुता पैदा करने वाला वक्तव्य देना

हाल में संपन्न लोकसभा चुनावों के घटनाक्रम में जब भाजपा नेता और उप्र की बागडोर संभाल रहे अमित शाह और समाजवादी पार्टी के नेता आजम खान पर रैलियों,जुलुस,आमसभा,रोड शो आदि का प्रतिबन्ध चुनाव आयोग ने लगाया था तब ही इस कार्यवाही पर बहुत से प्रश्नचिन्ह लगे थे. नैतिकता-अनैतिकता, उपयुक्त-अनुपयुक्त, समय-असमय जैसे अनेक शब्द मुखर स्वर चुनाव आयोग की इस कार्यवाही के लिए मुखरित हुए थे. चुनाव आयोग के इस निर्णय का समय-परिस्थिति, दृष्टांत और इन दोनों नेताओं के बयानों को आपस में जोड़ कर एक साथ एक समय निर्णय देना जनसामान्य और विधि विशेषज्ञ दोनों के समझ नहीं आया था. अमित शाह पर लग रही चार्ज शीट की बात करें तो यह सहज प्रश्न मन-मानस में आता है कि “बदला लेना” इस शब्द के अर्थ का कितना विस्तार हम कर सकतें हैं. यदि मात्र कल्पना के लिए के “बदला लेनें” कानूनी स्पष्टीकरण का विचार किया जाए या समाज, देश, मीडिया और कानून व्यवस्था की मानसिकता से भी “बदला लेनें””शब्द का बार बार उच्चारण किया जाए तब भी यह ही मन में आता है कि काहे का बदला लेना है? कैसे बदला लेना है? और कहां जाकर बदला लेना है? क्या रण भूमि में बदला लेना है? सड़क, बाजार, घर के आँगन में बदला लेना है? या मतदान कक्ष में जाकर स्थिर मानसिकता से बदला लेना है? भाषा के विश्लेषण में प्रत्येक शब्द के त्वरित और विस्तारित अर्थ होतें हैं. यदि हम बदला शब्द का त्वरित अर्थ मानें तो बदला लेना समाज में लगभग प्रतिदिन उपयोग होने वाला प्रत्येक आयु वर्ग में उपयोग होने वाला और समाज के प्रत्येक स्तर चाहे वह सामान्य व्यक्ति हो,चाहे अधिकारी हो,राजनयिक हो,राजनीतिज्ञ हो,प्रशासनिक हो,साधू संत हो सभी के लिए एक सामान्य सा शब्द है. व्याकरण के नियमों से इतर व्यवहारिक स्तर पर जब सामान्यतः हम किसी भी शब्द के चार अर्थों में उस शब्द का शब्दार्थ खोजते हैं- तात्कालिक अर्थ, विस्तारित अर्थ, शाब्दिक अर्थ और ध्वन्यात्मक अर्थ. अब यदि हम बदला लेनेके अर्थों को विस्तारित अर्थों में देखें, या इस शब्द की चीर फाड़ करें तब जाकर हमें लगेगा कि बदला लेनें शब्द में हिंसा की बू आती है! किन्तु यहां यह तो देखना ही होगा कि जबजिस समय और जिन अर्थों में ये शब्द कहे गए तब बदला लेनें के पीछे कोई हाथ पैर, हथियार चला कर या भाषाई हिंसा करके बदला लेनें की बात नहीं बल्कि मतदान का बटन दबाकर बदला लेनें की बात कही गई है. यह भी देखना होगा कि यदि किसी एक कट्टर विचार को किसी अन्य सौम्य विचार से बदल कर तथाकथित कट्टर विचार से बदला लेनें और उसे प्रचलन से बाहर कर देनें की बात की गई है तो इसे बदला लेना नहीं बल्कि सामाजिक नवाचार (Innovation) ही कहना होगा. मत की या वोट की शक्ति से नवाचार की आशा करना या ईनोवेशन की ओर बढ़ने को किस दृष्टि से गलत कहा जा सकता है? लोकतंत्र में एक छोटा सा निर्वाचित और चयनित वर्ग शासन करता है और एक बड़ा समाज या वर्ग या पूरा देश उनसे शासित रहता है. शासन के द्वारा किये गए निर्णयों से समाज में कई प्रकार के अवसाद, दबाव, आवेश, पीड़ा, शिकायत, मतान्तर का जन्म होता है और ठीक इसी प्रकार प्रसन्नता, सुख, सुविधा, न्याय, व्यवस्था, समविचार के भाव का भी सुखद जन्म समाज और व्यक्ति में होता है. लोकतंत्र में इन दोनों प्रकारों के भावों का उपजना, जन्म लेना और फिर एक निश्चित कालान्तर में मतदान कक्ष में जाकर मतदान करके इन भावों का बदला देते हुए किसी पक्ष पार्टी विशेष के लिए “बदला लेते या देते” हुए बटन दबा देना यही तो चुनाव है. पिछले पांच वर्षों में हमें मिलें अवसाद या प्रतिसाद का ही बदला हम जन प्रतिनिधियों को बटन दबाकर देते हैं, यह चुनाव का सत्य और व्यवहारिक पक्ष ही तो है.

बदला लेना शब्द का यदि हम कुछ और अधिक विश्लेषण करें तो इसका शाब्दिक अर्थ साधारण है जो किसी से हमें मिला उसे बदल कर या उसके बदलें में सामाजिक परिस्थितियों या नियमों या प्रचलन के अनुरूप उस व्यक्ति को उसका प्रतिफल दे देना! तो इस अर्थ में भी कुछ आपराधिक अर्थ नहीं निकलता है! यदि बदला लेनें शब्द के धव्न्यात्मक अर्थों में जाएं तो अवश्य बदला लेना शब्द में कहीं कुछ बू आने लगती है, किन्तु जब इस शब्द को प्रस्तुत अमित शाह के प्रसंग जैसे साफ़ साफ़ और सन्दर्भ-घटना से जोड़ कर कहा जाए तो इस शब्द के ध्वन्यात्मक आर्थों और सन्दर्भों को सोचनें की आवश्यकता ही नहीं रह जाती है!

कहना न होगा कि लोकतांत्रिक रीति नीति से एक निर्वाचित व्यवस्था ने हमें जो दिया. जितना दिया और जिस प्रकार दिया उसका बदला लोकतंत्र में उस व्यवस्था को मत पेटी और मत पत्र के माध्यम से ही मिलता है. बदला शब्द के इन अर्थों से कोई इन्कार नहीं कर सकता. इस देश के सामान्य नागरिक का तो अधिकार है मतदान के माध्यम से बदला लेना और यह बदला जितना अधिक विस्तारात्मक. सकारात्मक, गतिज और प्रभावी होगा उतना ही तो लोकतंत्र अधिक पल्लवित और सुफलित होगा!

जिन शब्दों के लिए अमित शाह को कटघरे में खड़ा किया जा रहा है उससे तो इस लोस चुनाव के दौरान उपयोग हुए बहुत से शब्दों का परीक्षण आवश्यक हो जाता है. बोटी-बोटी कर दूंगा, कुत्ते का बड़ा भाई, “कारगिल युद्ध को अकेले मुस्लिम सैनिकों ने जीता उसमें हिन्दू कोई नहीं था” (आजम खान) जैसे पैनें और धारदार शब्द समूहों की तुलना में मतदान के माध्यम से बदला ले लो” कहीं अधिक मट्ठा और धीमा शब्द है. स्वाभाविक सा लगता है कि इन शब्दों को कहे जानें के दंड और परिणाम में भी साम्य नहीं हो सकता. शब्दों को अर्थों के तराजू पर तौल कर देखेंगे और इस भाषा युद्ध का निर्णय करेंगे तब ही तो हम इस नए बोलने, सुनने, माननें के युग से साम्य बैठा पायेंगे.

 

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