उमेश चतुर्वेदी
हिंदुस्तानी सियासत के इतिहास में अगर दो सबसे बड़े अराजकतावादी माने जा सकते हैं तो वे थे डॉक्टर राममनोहर लोहिया और जयप्रकाश नारायण। रूसी क्रांति के नायक लेनिन के सहयोगी प्रिंस क्रोपार्टकिन ने अराजकतावाद की जो परिभाषा दी थी, उसमें अराजकतावाद का मूलाधार मानवता का पोषक रहा है। नवयुवकों से दो बातें नाम की प्रिंस की किताब पढ़िए तो आपकी आंखें खुल जाएंगी। जयप्रकाश चूंकि शुरूआती दौर में खुद जारशाही के खिलाफ चल रहे कम्युनिस्ट आंदोलन से प्रभावित रहे, लोहिया खुद यूरोप में पढ़ चुके थे, लिहाजा दोनों के विचार कहीं न कहीं मानवता को पुष्पित-पल्लवित करने वाले अराजकतावादी विचारधारा को उन्होंने साधा था। यही वजह है कि लोहिया आजीवन नेहरूवादी सोच और राजव्यवस्था के मुखर विरोधी रहे, उन्हें नेहरूवादी व्यवस्था में भी राजसी सामंतवाद नजर आता था। इसीलिए उन्होंने संसद में मशहूर बहस तीन आना बनाम 25 हजार शुरू की थी। इसके खिलाफ वे अराजक तक होने को तैयार थे। उसी तरह आपातकाल के दौरान जयप्रकाश नारायण ने इंदिरा सरकार के असंवैधानिक आदेशों को मानने से इनकार करने की अपील ना सिर्फ पुलिस, बल्कि देश की सुरक्षा की रीढ़ सेना तक से की थी। लोहिया और जयप्रकाश के इन अराजक विचारों को उस दौर का सत्ता तंत्र लगातार नकारता रहा और देशहित में बाधक बताता रहा। यह बात और है कि इतिहास के पन्ने पलटे, स्थितियां बदलीं, तो दोनों ही हस्तियों के उन दिनों के विचारों को माना गया कि वे कितने सही थे, कितने भारतभक्त थे, आम-अवाम के कितने नजदीक थे।
सवाल यह है कि लोहिया और जयप्रकाश के मानववाद के पोषक अराजकतावादी दर्शन की याद आज क्यों…यह य़ाद आई है आम आदमी पार्टी के सांसद भगवंत मान के हालिया काम के बाद। पंजाब से आम आदमी पार्टी के लोकसभा सदस्य भगवंत मान मशहूर गायक भी हैं। इस नाते उन्हें संस्कृतिकर्मी भी माना जा सकता है। संस्कृतिकर्मी की मूल पहचान मानवता प्रेम भी होता है। चूंकि भारतीय दर्शन में मानवप्रेम राष्ट्रप्रेम से ही जुड़ा मसला है, इसलिए भगवंत मान से उम्मीद की जा सकती है कि वे भी मानवता के साथ ही राष्ट्रप्रेमी जरूर होंगे। लेकिन सांसद होने के बावजूद जिस तरह उन्होंने संसद की सुरक्षा के लूपहोल को मोबाइल फोन में रिकॉर्ड करके उसे फेसबुक पर लाइव कर दिया, उससे उन पर सवाल उठते हैं। भगवंत मान को इन अर्थों में घोर अराजक माना जा सकता है। उन्हें आम आदमी या पत्रकारिता का पेशेवर मानकर इस काम के लिए माफ नहीं किया जा सकता। सांसद होने के नाते संसद की सुरक्षा को पुख्ता बनाने में योगदान देना उनकी भी जिम्मेदारी है। वे सुरक्षा व्यवस्था की इन खामियों को रिकॉर्ड करने के बाद सुरक्षा के जिम्मेदार लोगों, संसद परिसर की जिम्मेदारी निभाने वाली लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन आदि के सामने उजागर कर सकते थे। सुरक्षा को पुख्ता और चुस्त बनाने के उपाय सुझा सकते थे। अगर उनकी बात नहीं सुनी जाती तो वे प्रेस से संपर्क करते या फिर फेसबुक या सोशल मीडिया पर साया कर देते। लेकिन उन्होंने लोकसभा अध्यक्ष या संसद सुरक्षा के लिए जिम्मेदार लोगों को सीधे बायपास कर दिया है। इससे वे अराजकतावादी साबित तो हो सकते हैं, लेकिन उनके इस कदम को मानवता संरक्षक के तौर पर स्वीकार नहीं किया जा सकता। कई लोगों को भगवंत मान की तुलना लोहिया और जयप्रकाश से की जानी भी गलत लगेगी। यह तुलना अनुचित भी है। चूंकि आम आदमी पार्टी के कार्यकर्ताओं और उसके रहनुमाओं को खुद को श्रेष्ठतर दिखाने की कोशिश में खुद को शहीद भी दिखाने की आदत पड़ गई है, इसलिए यह तुलना जरूरी है। बेशक आम आदमी पार्टी के नेता खुद को अराजकतावादी ना मानें, लेकिन वे खुद को साबित ऐसा ही करते हैं। इसलिए जरूरी है कि उनके बरक्स ऐसे उदाहरण सामने रखे जायं। दिलचस्प बात है कि भगवंत मान की मुखालफत में समूचा राजनीतिक वर्ग एक हो गया है। सबका मानना है कि भगवंत ने गलत किया। शुरू में भगवंत अपनी गलती मानने की बजाय एक बार फिर ऐसा काम करने को तैयार थे। लगता है कि पंजाब विधानसभा चुनावों क मद्देनजर वे अपनी पार्टी और खुद को शहीद दिखाते हुए चर्चा में रखना चाहते थे, ताकि उनकी पार्टी को समर्थन हासिल हो। ऐसा करते वक्त वे भूल गए थे कि देश की सुरक्षा से ज्यादा महत्वपूर्ण किसी भी दल के लिए सत्ता हासिल करना नहीं होता। शायद यही वजह है कि उनके खिलाफ कार्रवाई को लेकर समूची सांसद बिरादरी एक हो गई है। उनकी संसद सदस्यता तक खतरे में नजर आ रही है। अब जाकर भगवंत मान को लग रहा है कि उनकी जिद उनके लिए भारी पड़ने जा रही है, लिहाजा वे बचाव की राह खोज रहे हैं। अब देखना यह है कि वे बच पाते हैं या फिर सजा भुगतनी पड़ती है। चाहे जो भी हो, भगवंत के इस कदम ने सांसद के आचरण को लेकर सवाल तो खड़ा कर ही दिया है।