ऊसर जीजिविषा और वो

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बलबीर राणा भैजी

सुनशान स्याह रात

बैठा वह प्रहरी ।

अन्धयारे में आँख विछाये]

उस अन्धकार को ढूंढता

जो माँ के अस्तित्व को

ध्वस्त करने को आतुर।

यकायक सचेत हाsती निगाहें

पलकें बिचरण करती]

खोजती हर उस शाये और आहट को

जो कहर ना बन जाये मातृभूमी पर।

उसके दर्द की कोई सीमा नहीं]

सीमा हैS जमीन की

मानव अंहम की

खोखले जमीर की

दो मुल्कों के रंजिस की

उस जमीं पर परिन्दा भी घरोंदा बनाने में डरता]

उसी जमीं पर बसेरा उसका।

जीवन की हज़ार शिकायतें के बाबजूद भी

सब्र और हिम्मत का पैमाना उसका]

अन्धेरे में और भी प्रगाड हो जाता

जब आवाज देती सुनशान हवायें।

उसकी इस अडिग तन्द्रा का मोल

ऊसर होती उसकी जीजिविषाA

 

 

 

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